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ज्ञानी और अज्ञानी का भेद


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु मानते हैं कि जब तक सभी जीवों को एक नहीं माना जायेगा तब तक संसार में शान्ति की स्थापना असंभव है। सुख और दुःख सभी स्तर के जीवों को होते हैं, सभी जीवों की मूलभूत आवश्यक्ताएँ समान हैं। जब तक किसी भी व्यक्ति कों इस सच्चाई का बोध नहीं होगा तब तक उसके द्वारा की गई क्रियाएँ निरर्थक होंगी उसके द्वारा की गई क्रियाएँ उसको स्वयं को ही संतुष्ट नहीं कर सकेंगी। जैसे ही उसे इस सच्चाई का बोध होगा उसकी प्रत्येक क्रिया जागरूकता से होने के कारण सार्थक होगी और वह स्वयं भी पूर्ण सन्तुष्ट होगा। मेरे समान सभी जीवों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, ऐसा बोध हो जाने पर उसकी प्रत्येक क्रिया स्व और पर के हित से जुड़ी हुई होगी। आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा इहलोक परलोक को सुदर बनाना सिखाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

96.     जीवहँ तिहुयण-संठियहँ मूढा भेउ करंति।

       केवल-णाणिं णाणि फुडु सयलु वि एक्कु मुणंति।।

अर्थ -त्रिभुवन में स्थित जीवों का अज्ञानी भेद करते हैं, (परन्त) ज्ञानी अपने केवलज्ञान से स्पष्टतः सभी को एक ही मानते हैं।

शब्दार्थ - जीवहँ-जीवों का, तिहुयण-संठियहँ -त्रिभुवन में स्थित, मूढ-अज्ञानी, भेउ-भेद, करंति-करते हैं,  केवल-णाणिं-केवलज्ञान से, णाणि-ज्ञानी, फुडु-स्पष्टतः सयलु -सभी, वि-ही, एक्कु-एक, मुणंति-समझते हैं।

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