मुुनिराज के लिए समस्त परिग्रह का त्याग आवश्यक है
आचार्य योगीन्दु एक उच्च कोटि के अध्यात्मकार तो हैं ही साथ में बहुत संवेदनशील भी हैं। वे अपने साधर्मी बन्धु मुनिराजों के प्रति बहुत संवेदनशील है। वे कहते हैं कि जिनवर भेष धारण करना और केश लोंच जैसे कठिन कार्य करके भी मात्र एक परिग्रह त्याग जैसे सरल कार्य को नहीं अंगीकार किया गया तो उसने स्वयं ने ही अपनी आत्मा को ठग लिया और फिर जिस प्रयोजन से उन्होंने जिस कठिन मार्ग को अपनाया था वह व्यर्थ हो गया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
90. केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण।
सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण।।
अर्थ - जिनवर भेेष धारण करनेवाले किसी के भी द्वारा भस्म से सिर मूंडकर भी समस्त परिग्रह नहीं छोड़ा गया (तो समझ) (उसके द्वारा) (अपनी) आत्मा ठग ली गयी है।
शब्दार्थ - केण-किसी के द्वारा, वि-भी, अप्पउ-आत्मा, वंचियउ-ठग ली गयी है, सिरु-सिर को, लुंचिवि -मुंडन करके,छारेण-भस्म से, सयल-समस्त, वि -ही, संग-परिग्रह, ण -नहीं, परिहरिय-छोड़ा गया, -जिणवर-लिंगधरेण - जिनवर के वेश को धारण करनेवाले के द्वारा
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