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Abhishek Jain

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  1. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५७ ? "क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विध्न" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज बचपन से ही महान स्वाध्यायशील व्यक्ति थे। वे सर्वदा शास्त्रो का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हे प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश मे परिज्ञान होता था। एक दिन महाराज ने कहा था, "हमने सोचा कि उपाध्याय के द्वारा पूर्व में निश्चित किये घर में जाकर भोजन करना योग्य नहीं है, इसीलिए हमने वैसा आहार नहीं लिया, इससे हमारे मार्ग में अपरिमित कष्ट आये। लोगों को इस बात का पता नहीं था कि बिना पूर्व निश्चय के त्यागी लोग आहार को निकलते हैं, इसलिए दातार गृहस्थ को अपने यहाँ आहार दान के लिए पड़गाहना चाहिए।" उस समय की प्रणाली के अनुसार ही लोग आहार की व्यवस्था करते थे। यह बात महाराज को आगम के विपरीत दिखी अतएव उन्होंने किसी का भी ध्यान ना कर उसी घर में आहार लेने की प्रतिज्ञा की जहाँ शास्त्रानुसार आहार प्राप्त होगा। इसका फल यह हुआ कि इनको कई दिन तक आहार नहीं मिलता था। प्रभात में मंदिर के दर्शन कर चर्या को निकले, उस समय यदि किसी गृहस्थ ने कह दिया, "महाराज ! आज हमारे गृह में आहार कीजिए,तो उसके यहाँ चले गए, अन्यथा दूसरों के घर के समक्ष अपने रूप को दिखते हुए चले। यदि पड़गाहे गए तो आहार किया अन्यथा दूसरों वह दिन निराहार ही व्यतीत होता था। इस प्रकार कभी-कभी चार-चार, पाँच-पाँच दिन तक निराहार रहना पड़ता था। ऐसे अवसर पर उपाध्याय भी प्रतिकूल हो गए थे। कारण इस अनुदिष्ट आहार की पद्धति के कारण उनको गृहस्थ के यहाँ जो अनायास आहार मिल जाता था, उनका वह लाभ बंद हो गया।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५६ ? "दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार" एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था। प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे। आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे। ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों की थी, तब क्षुल्लको की कथा निराली है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५५ ? "गिरिनारजी में ऐलक दीक्षा" जब पूज्य क्षुल्लक शान्तिसागरजी महाराज कुम्भोज बाहुबली में विराजमान थे, तब कुछ समडोली आदि के धर्मात्मा भाई गिरिनारजी की यात्रा के लिए निकले और बाहुबली क्षेत्र के दर्शनार्थ वहाँ आये और महाराज का दर्शन कर अपना जन्म सफल माना। उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि नेमिनाथ भगवान के निर्वाण से पवित्र भूमि गिरिनारजी चलने की कृपा कीजिए। शान्तिसागरजी महाराज की तीर्थभक्ति असाधारण रही आयी है, इसलिए महाराज ने चलने का निश्चय कर लिया। समडोली के श्रावको के साथ महाराज, नेमिनाथ भगवान के पदरज से पुनीत गिरिनार पर्वत पहुँचे। उन्होंने जगतवंध नेमिनाथ प्रभु के चरण चिन्हों को प्रणाम किया और सोचा की इन तीर्थंकरों के चरणों के चिन्ह रूप अपने जीवन में कुछ स्मृति सामग्री ले जाना चाहिए। वहाँ के पवित्र वार्तावरण इनके अंतःकरण को विशेष प्रकाश दिया। भगवान नेमिनाथ के निर्वाण स्थान की स्थायी स्मृतिरूप ऐलक दीक्षा लेने का इन्होंने विचार किया। महापुरुष जो विचारते हैं, तदनुसार आचरण करते हैं, इसलिए अब ये ऐलक बन गए। इनकी आत्मा में विशुद्धता उत्पन्न हुई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. ☀इस प्रसंग को आप जरूर पढ़े। इस प्रसंग को पढ़कर आपको अनुभव होगा कि कैसी विषम स्थितियों मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने दृढ़ता के साथ अपने अत्म कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्ति की, जिसका ही परिणाम था कि मुगल साम्राज्य आदि के समय क्षतिग्रस्त हुई हमारी जैन संस्कृति का समृद्ध रूप अब पुनः निर्ग्रन्थ गुरुओ के दर्शन के रूप मे हमारे सामने है। ? अमृत माँ जिनवाणी से- ५४ ? "अद्भुत युग" मुनिश्री वर्धमान सागरजी जो आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के गृहस्त जीवन में बड़े भाई थे। उन्होंने बताया जब आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की क्षुल्लक दीक्षा हुई थी, वह समय अद्भुत था। क्षुल्लक दीक्षा के उपरांत महाराज को देने योग्य कमंडल भी न था, अतः पास के लौटे में सुतली बांधकर उससे कमण्डलु का कार्य लिया गया था। देवप्पा स्वामी(आचार्य देवेन्द्रकीर्ति महाराज ) ने अपनी पिच्छी में से कुछ पंख निकालकर पिच्छी बनाई थी और महाराज को दी थी। उस समय क्या स्थिति थी विचारक पाठक, यह सोच सकता है। महाराज कापसी ग्राम में ठहरे। कुमगोंडा ने कहा- "मैं कोल्हापुर जाकर कमण्डलु लाता हूँ। आप भोज जाओ।" भुपालप्पा जिरगे ने एक कमण्डलु भेंट किया। कुमगोंडा ने कपसी ग्राम में जाकर महाराज को कमण्डलु दे दिया। "दीक्षा के उपरांत महाराज का प्रथम चातुर्मास क्षुल्लक अवस्था में कोगनोली में हुआ।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५३ ? "क्षुल्लक दीक्षा" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के क्षुल्लक दीक्षा के वर्णन मुनि वर्धमान सागरजी करते हुए लेखक को बताते हैं कि- देवेन्द्र कीर्ति महाराज, सतगोड़ा पाटिल की पाटिल की परिणति से पूर्ण परिचित थे, अतः उनके इशारे पर उत्तूर में दीक्षा मंडप सजाया गया। पाटिल को तालाब पर ले जाकर स्नान कराया गया। पश्चात वैभव के साथ उनका जलूस निकाला गया। उन्होंने स्वच्छ नवीन वस्त्र धारण किए थे। गाजे-बाजे के साथ जुलूस दीक्षा मंडप में आया, जहाँ इनको क्षुल्लक दीक्षा दी गई तथा उनका नाम शान्तिसागर रखा गया। जब महाराज क्षुल्लक हो गए। उन्होंने घर पर कोई समाचार तक नहीं भेजा। भेजते क्यों? जब घर का द्रव्य तथा भाव, दोनो ही रूप से त्याग कर दिया था, तब वहाँ खबर भेजने का क्या प्रयोजन ? किन्तु उत्तूर का समाचार भोज आ ही गया। चिट्ठी में लिखा था कि महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा ले ली है। उनकी दीक्षा ज्येष्ठ शुदि तेरस को हुई थी। वर्धमान स्वामी ने बताया कि हमे समाचार ज्येष्ठ शुदि चौदस को प्राप्त हुआ। पत्र पहले पोस्टमैन ने कुंगोड़ा(छोटे भाई) के हाथ में दिया। उसे पढ़कर कुमगोंडा बहुत रोए। वे अकेले थे। सबेरे उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर अक्का (बहिन) ने पूंछा, "तुम्हारा मुख उदास क्यों है?" कुमगोंडा ने कहा- "अप्पानी दीक्षा घेतली", अर्थात महाराज ने दीक्षा ले ली। जिसको यह समाचार मिले, उसके मोही मन को संताप पहुँचा। हम (वर्धमान सागरजी गृहस्थ जीवन मे ) कुमगोंडा व उपाध्याय के पुत्र को लेकर उत्तूर गए। उत्तूर पहुँचकर महाराज को देखकर ही हमारी आँखों में पानी आ गया। महाराज ने कहा- "यहाँ क्या रोने को आये हो? तुमको भी तो हमारे सरीखी दीक्षा लेना है। रोते क्यों हो?हम चुप रह गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५२ ? "आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवनी के लेखक श्री दिवाकरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई, जो उस समय मुनि श्री वर्धमान सागर जी के रूप विद्यमान थे उनसे आचार्यश्री के जीवन के बारे में जान रहे थे। उन्होंने आचार्यश्री की विरक्ति के बारे में बताया। उन्होंने कहा माघ मास में माता की मृत्यु होने के पश्चात महाराज के ह्रदय में वैराग्य का भाव वृद्धिगत हुआ। भोज से २२ मील दूर स्तवनिधि अतिशय क्षेत्र है। अन्य लोग उसे तेवंदी कहते हैं। महाराज ने प्रत्येक अमावश्या को स्तवनिधि जाने का व्रत ले लिया। वे बहिन कृष्णा बाई को साथ में भोजन बनाने को ले जाते थे। स्तवनिधि की यात्रा का आश्रय ले उन्होंने प्रपंच से छुटने का निमित्त ढूढ निकाला था। वे स्तव निधि में एक दिन ठहरा करते थे। वे ज्येष्ठ मास पर्यन्त स्तवनिधि गए। उन्होंने बहिन से कहा- "अक्का ! अब हम अकेले ही स्तवनिधि जाएँगे।" अतः स्वयं भोजन साथ में रखकर ले गए। महाराज ने कुमगोंडा से कह दिया था कि मेरा भाव व्यापार का नहीं है। स्तवनिधि के निमित्त ये घर से गए थे, किन्तु इनका मन वैराग्य से परिपूर्ण हो चुका था। इससे ये समीपवर्ती उत्तूर ग्राम में गए, जहाँ बालब्रम्हचारी मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज, जिन्हें देवप्पा स्वामी कहते थे, विराजमान थे। सन् १९७० के भाद्रपद में महाराज ने उत्तूर जाकर उनसे क्षुल्लक दीक्षा आदि का वर्णन ज्ञात किया। देवप्पा स्वामी का महाराज पर बड़ा वात्सल्य भाव था, कारण कभी-२ भोज में माह पर्यन्त रहा करते थे। वे सतगोड़ा कि विरक्ति तथा धार्मिक प्रव्रत्ति से सुपरिचित थे। जब महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा धारण करने का विचार व्यक्त किया, तो देवप्पा स्वामी को अपार खुशी हुई। उन्होंने लोगो से कहा था कि भोज से पाटील आया है, इनकी सब व्यवस्था करो। सतगोड़ा पाटील (महाराज) ने देवप्पा स्वामी से प्रार्थना की कि अब हमे क्षुल्लक दीक्षा दीजिए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५१ ? "जाप का क्रम" चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी, पूज्य मुनिश्री वर्धमान सागर के पास उनके दर्शनों के लिए जाया करते थे। जो गृहस्थ जीवन में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के बड़े भाई थे। वह ९४ वर्ष की उम्र में भी अपनी मुनि चर्या का पालन भली भांति कर रहे थे। वर्धमान सागरजी महाराज बिना किसी की सहायता के ही इस उम्र मे अपने केशलौंच भी शीघ्रता से कर लेते थे। उनसे प्रश्न किया गया- "महाराज ! आपके जाप का क्या क्रम रहता है?" उत्तर- "प्रभात में १८ माला, मध्यान्ह में ५ माला, संध्या के समय ३६ माला, मध्य रात्रि में पाँच माला फेरता हूँ और अन्य समय में मै अपनी आत्मा का ध्यान करता हूँ।" प्रश्न- "उनके पास समय ज्ञात करने की घड़ी रखी थी। लेखक ने पूंछा- "महाराज महाराज यह घड़ी आपकी नही है, हम तो आपके हैं न?" उत्तर (सस्मित वदन से बोल उठे)- "आप भी हमारे हो तो हमारे साथ चलो। हमारे साथ क्यों नही रहते ? इस जगत के मध्य में यह शरीर भी मांझा नाहीं है। कोई भी पदार्थ मेरा नही है। 'अंतकाले कोणी नहीं, जासी एकला' (अंतकाल में जीव का कोई सांथी नही है, यह अकेला जायेगा)।" मुनिश्री वर्धमान सागर जी महाराज की इतनी अधिक उम्र में, उनकी आत्मसाधना व भाव विशुद्धि को देखकर हम सभी अनुभव करते है कि आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बड़े भाई के रूप में जन्म लेने वाला जीव अवश्य ही उनकी भांति एक महान साधक होगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५० ? "असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग" एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जंगल के मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे वहाँ पुजारी दीपक जलाने आया दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर आ गया था। आचार्य महाराज ने बताया उस समय हम निंद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे उस रात्रि को जाग्रत रहकर हमने ध्यान में काल व्यतीत करने का नियम कर लिया था। पुजारी के जाने के कुछ काल पश्चात चींटियों ने आना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-२ असंख्य चींटियों का समुदाय इकठ्ठा हो गया और हमारे शरीर पर आकर फिरने लगी। कुछ काल के अनंतर उन्होंने हमारे शरीर के अधोभाग नितम्ब आदि को काटना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जब शरीर को खाना प्रारम्भ किया, तो अधोभाग से खून बहने लगा। उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे। रात्रि भर यही अवस्था रही। चीटियाँ नोच-नोच कर खाती जाती थी।" कभी एकाध चींटी शरीर से चिपक जाती है, तब उसके काटने से जो पीढ़ा होती है,उससे सारी देह व्यथित हो जाती है। जब शरीर मे असंख्य चीटियाँ चिपकी हों और देह के अत्यंत कोमल अंग गुप्तांग को सारी रात लगातार खाती रहें और नरदेह स्थित आत्माराम बिना प्रतिकार किये एक दो मिनिट नहीं, घंटे दो घंटे नहीं, लगातार सारी रात इस दृश्य को ऐसे अलिप्त होकर देख रहे थे, मानो सांख्य दर्शन का पुष्कर पलाशवत निर्लिप्त पुरुष प्रकृति की लीला देख रहा हो। यदि कोई इस भीषण स्थिति का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से गहरे रूप मे विचार करे, तो ज्ञात होगा कि इस नरक तुल्य व्यथा को स्वाधीन वृत्ति वाले योगीराज शान्तिसागरजी निर्ग्रन्थ एकांत स्थल में सहन करते रहे, तो उनकी आत्मा कितनी परिष्कृत, सुसंस्कृत वैराग्य तथा भेद विज्ञान के भाव से परिपूर्ण होगी। एक समय सर्पराज शरीर से लिपटा था। वह मृत्युराज का बंधु था, यही भय था किन्तु जिस असहनीय और अवर्णनीय वेदना को महाराज ने समता पूर्वक सहन किया था, उसे कहा नहीं जा सकता। जब यह उपसर्ग हो रहा था तब रात्रि के उत्तरार्ध में उस मंदिर के पुजारी को स्वप्न आया कि महाराज को बड़ा भारी कष्ट हो रहा है। वह एकदम घबरा कर उठा, किन्तु उस भयंकर स्थान में रात्रि को जाने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी। कारण वहाँ शेर का विशेष भय था। उसने अपने साथी दूसरे जैन बंधु को स्वप्न की बात सुनाकर वहाँ चलने को कहा, किन्तु भय व प्रमादवश उसने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। रात्रिभर निर्ग्रन्थराज की देह पर निर्मम हो छोटी-सी चींटियों ने जो धोर उपद्रव किया था। उसको प्रकाश में लाने हेतु ही मानो सूर्य ने उदित हो प्रकाश पहुंचाया। लोग वहाँ आकर देखते हैं, तो उनके नेत्रो से अश्रुधारा बहने लगी, कारण महाराज के शरीर के गुह्य भाग से रक्तधारा निकल रही थी और शरीर सूजा हुआ था तथा फिर भी चीटियाँ शरीर को खाने के उद्योग मे पराक्रम दिखा रहीं थी। लोगों ने दूसरी जगह शक्कर डालकर धीरे-२ उनको अलग किया, पश्चात गुरुदेव की योग्य वैययावृत्ति की। उस उपसर्ग का जिसने प्रत्यक्ष हाल देखा, उनकी आँखो में अश्रु आये बिना न रहे। सर्वत्र इस उपसर्ग की चर्चा पहुँची। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४९ ? "तपश्चरण का प्रभाव" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कटनी के चातुर्मास के पश्चात जबलपुर जाते समय जब बिलहरी ग्राम पहुँचे, तो वहाँ के लोग पूज्यश्री की महिमा से प्रभावित हुए। वहाँ के सभी कुँए खारे पानी के थे। एक स्थान पर आचार्य महाराज बैठे थे। भक्त लोगो ने उसी जगह कुआँ खोदा। वहाँ बढ़िया और अगाध जल की उपलबब्धि हुई। आज भी इस गाँव के लोग इन साधुराज की तपस्या को याद करते हैं। एक बार कटनी की जैन शिक्षण संस्था के २० फुट ऊंचे मंजले पर एक तीन वर्ष का बालक बैठा था। एक समय और बालको ने आचार्य महाराज का जयघोष किया। वह बालक भी मस्त हो महाराज की जय कहकर उछला और नीचे ईट, पत्थर के ढेर पर गिरा किन्तु कोई चोट नही आयी। सुयोग की बात थी जिस कोने पर वह गिरा, उस जगह पत्थर आदि का अभाव था। सब कहते थे- "यह आचार्य महाराज के पुण्य नाम का प्रभाव है। कटनी में एक प्राणहीन सरीखा आम का वृक्ष था। वह फल नही देता था। एक बार उस वृक्ष के नीचे आचार्यश्री का पूजन हुआ। तब से वह डाल फल गई, जिसके नीचे वह साधुराज विराजमान थे।उस समय सभी कटनी वाशी परिचित थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४८ ? "बालक का समाधान" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज सन् १९५३ में बारसी में विराजमान थे। उत्तर भारत का एक बालक अपने कुटुम्बियों के साथ गुरुदेव के दर्शन को आया। वह बच्चा लगभग चार वर्ष का था। दर्शन के पूर्व कभी उसने महाराज के साँपयुक्त चित्र देखा था। इससे वह महाराज से बोला- "तुम्हारा साँप कहाँ है?" महाराज बच्चे के आश्रय को समझ गए। वे मुस्कराते हुए बोले, "वह साँप अब यहाँ नहीं है। वह तो चला गया।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४७ ? "दिव्यदृष्टि" महिसाल ग्राम के पाटील श्री मलगोंड़ा केसगोंडा आचार्य महाराज ने निकट परिचय में रहे हैं। वृद्ध पाटील महोदय ने बताया, "आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज १९२२ के लगभग हमारे यहाँ पधारे थे। उस समय उनका अपूर्व प्रभाव दिखाई पड़ता था। उनकी शांत व तपोमय मूर्ति प्रत्येक के मन को प्रभावित करती थी। उस समय की एक बात मुझे याद है। एक दिन आचार्य ने अपने साथ में रहने वाले ब्रम्हचारी जिनगोड़ा को अकस्मात आदेश दिया कि तुम तुरंत यहाँ से समडोली चले जाओ। वे ब्रम्हचारी गुरुदेव का आदेश सुनकर ही चकित हो गए। उनका मन गुरुचरणों के निकट रहने को लालायित था। फिर भी उन्हें यही आदेश मिला कि यहाँ एक मिनिट भी बिना रुके अपने घर चले जाओ। इस आदेश का कारण अज्ञात था। नेत्रो से अश्रुधारा बहाते हुए युक्त ब्रम्हचारी जी ने प्रस्थान किया। जब वे समडोली पहुँचे, तो उन्हें ज्ञात हुआ कि कुछ बदमाशो के उनकी भनेजन के पति का खेत में कत्ल कर दिया है। उस समय यह बात ज्ञात हुई की महाराज के दिव्य ज्ञान में इस भविष्यत कालीन घटना का कुछ संकेत आ गया था। ऐसे योगियो का वर्णन कौन कर सकता है? उनके दर्शन से आत्मा पवित्र होती थी।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४६ ? "दुष्ट का प्रसंग" कोगनोली चातुर्मास के समय आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कोगनोली की गुफा मे रहा करते थे। आहार के लिए वे सवेरे योग्य काल में जाते थे। मार्ग में एक विप्रराज का ग्रह पड़ता था। उनका दिगम्बर रूप देखते हुए एक दिन उसका दिमाग कुछ गरम हो गया। उसने आकर दुष्ट की भाषा में इसने अपने घर के सामने से जाने की आपत्ति की। उसके ह्रदय को पीड़ा देने मे क्या लाभ यह सोचकर इन्होंने आने-जाने का मार्ग बदल दिया। लगभग दो सप्ताह के बाद उस ब्राम्हाण के चित्त में इनकी शांति ने असाधारण परिवर्तन किया। उसे अपनी मूर्खता व दुष्टता पर बड़ा दुख हुआ। उसने इनके पास आकर अपनी भूल के लिए माफी मांगी और प्रार्थना की कि महाराज पुनः उसी मार्ग से गमनागमन किया करें,मुझे कोई भी आपत्ति नही है। महाराज के मन में कषाय भाव तो था नही। यहाँ ह्रदय स्फटिक तुल्य निर्मल था, अतः विप्रराज की विनय पर ध्यान दे,इन्होंने उसी मार्ग से पुनः आना जाना प्रारम्भ कर दिया। मुनिजीवन में दुष्ट जीवकृत उपद्रव सदा आया करते हैं। यही कारण था कि निर्ग्रन्थ दीक्षा देने के पूर्व गुरु ने पहले ही सचेत किया था किस प्रकार का उपद्रव आया करते हैं, जिनको जितने के लिए कषाय को पूर्णतः कषाय विमुक्त बनाना पड़ता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४५ ? "दिव्यदृष्टि" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की चित्तवृत्ति में अनेक बातें स्वयमेव प्रतिबिम्बित हुआ करती थी। एक समय की बात है कि पूज्यश्री का वर्षायोग जयपुर में व्यतीत हो रहा था। कुचड़ी (दक्षिण) के मंदिर के लिए ब्रम्हचारी पंचो की ओर से मूर्ति लेने जयपुर आए। महाराज के दर्शन कर कहा- "स्वामिन् ! पंचो ने कहा है कि पूज्य गुरुदेव की इच्छानुसार मूर्ति लेना। उनका कथन हमे शिरोधार्य होगा।" महाराज ने कहा- "वहाँ महावीर भगवान की मूर्ति स्थापित होगी, ऐसा हमे लगता है, किन्तु तार देकर पंचो से पुनः पूंछ लो।" महाराज के कहने पर तार दिया। वहाँ से उत्तर आया- "भगवान पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमाजी लाना। महाराज ने कहा- "क्यो हम कहते थे पंचो का मन स्थिर नहीं है। अच्छा हुआ, खुलासा हो गया। हमने हमसे महावीर भगवान की मूर्ति के विषय मे कहा था। कारण, हमे वहाँ के मंदिर में महावीर भगवान की प्रतिमा दिखती थीं।" शिल्पी ने कुछ समय बाद पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा बना दी, किन्तु मूर्ति का फणा खंडित हो गया। यह समाचार जब कुचड़ी के पंचो को मिला, तब उन्होंने तार भेजकर लिखा कि जो मूर्ति तैयार मिले, उसे ही भेज दो। तदनुसार मूर्ति रवाना की गई। वह मूर्ति महावीर भगवान की ही थी, जिसमे सिंह का चिन्ह था। मूर्ति को देखते ही सबको आश्चर्य हुआ कि आचार्य महाराज ने पहले ही कह दिया था कि हमे तो महावीर भगवान की मूर्ति दिखती है। ऐसे ही ज्ञान को दिव्य ज्ञान कहते हैं।सधनसंपन्न तपस्वियों में ऐसी असाधारण बातें देखी जाती हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४४ ? "तृषा-परीषय जय" एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था। महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरुवर पूर्ववत मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदय वश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण जल की प्रतीक्षा के पश्चात महाराज चुप बैठ गए। मुख शुद्धि मात्र की। जल नही पिया। चुपचाप वापिस आकर सामायिक मे निमग्न हो गए। पिपासा के कष्ट की क्या सीमा है? क्षणभर देर से यदि प्यासे को पानी मिलता है, तो आत्मा व्याकुल हो जाती है, यहाँ तो दो दिन हो गए, किन्तु वे उस परीषह को सहन कर रहे थे। तीसरा दिन आया, उस दिन भी दातार की बुद्धि जल देने की बात को विस्मरण कर गई। इस प्रकार आठ दिन बीत गए। नवें दिन महाराज के शरीर मे छाती पर बहुत से फोड़े उष्णता के कारण आ गए। शरीर के भीतर की स्थिति को कौन बतावे? शरीर की ऐसी परिस्थिती में भी में वे सागर की भाँति गंभीर रहे आए। दशवें दिन अंतराय कर्म का उदय कुछ मंद पड़ा। उस दिन दातार गृहस्थ ने महाराज को जल दिया। कारण अन्य आहार योग्य शरीर नहीं था। महाराज ने जल ही जल ग्रहण किया और बैठ गए। पश्चात गंभीर मुद्रा में उन सधुराज ने कहा था, "शरीर को पानी की जरूरत थी और तुम लोग दूध ही डालते थे। चलो ! अच्छा हुआ। कर्मो की निर्जरा हो गई।" साधुओ का मूल्य आकने वाले सोचें, ऐसी तपश्या कहाँ है? ऐसी स्थिति में भी वे अशांत ना हुए। शांति के सागर रहे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४३ ? "शरीर निस्पृह साधुराज" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ज्ञान-ज्योति के धनी थे। वे शरीर को पर वस्तु मानते थे। उसके प्रति उनकी तनिक भी आशक्ति नही थी। एक दिन पूज्य गुरुदेव से प्रश्न पूंछा गया- "महाराज ! आपके स्वर्गारोहण के पश्चात आपके शरीर का क्या करें?" उत्तर- "मेरी बात मानोगे क्या?" प्रश्नकर्ता- "हां महाराज ! आपकी बात क्यों नही मानेंगे?" महाराज- "मेरी बात मानते हो, तो शरीर को नदी, नाला, टेकड़ी आदि पर फेक देना। चैतन्य के जाने के पश्चात इसकी क्या चिंता करना?" यह बात सुनते ही विनय प्रश्नकर्ता ने विनय पूर्वक कहा- "महाराज ! क्षमा कीजिए। ऐसा तो हम नही कर सकते, शास्त्र की विधि क्या है?" तब उनको दूसरी विधि कही थी कि- "मृत शरीर को विमान पर पद्मासन से बिठाकर देह का दहन कार्य किया जाता है। फिर बोले- "हमारे पीछे जैसा दिखे वैसा करो।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४२ ? "बंध तथा मुक्ति" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज किसी उदाहरण को समझाने के लिए बड़े सुंदर दृष्टान्त देते थे। एक समय वे कहने लगे- "यह जीव अपने हाथ से संकटमय संसार का निर्माण करता है। यदि यह समझदारी से काम लें तो संसार को शीघ्र समाप्त स्वयं कर सकता है।" उन्होंने कहा- "एक बार चार मित्र देशाटन को निकले। रात्रि का समय जंगल मे व्यतीत करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति को तीन-तीन घंटे पहरे देनो को बाँट दिए गए। प्रारम्भ के तीन घंटे उसके भाग मे आया, जो बढ़ई का काम करने मे प्रवीण था। समय व्यतीत करने के लिए बड़ई ने लकड़ी का टुकड़ा लिया और एक शेर की मूर्ति बना दी। दूसरा व्यक्ति चित्र कला मे निपुढ़ था। उसने उस मूर्ति को सुंदरता पूर्वक रंग दिया, जिससे वह असली शेर सरीखा जचने लगा। तीसरा साथी मंत्र वेत्ता था। उसने उस शेर मे मंत्र द्वारा प्राण संचार का उद्योग किया। शेर के शरीर मे हलन-चलन होते देख मंत्रिक झाड़ पर चढ़ गया। उसके पश्चात तीनो साथी भी वृक्ष पर चढ़ गए। शेर ने अपना रौद्ररूप दिखाना प्रारम्भ किया। चौथा साथी बड़ा बुद्धिमान तथा मांत्रिक था। उसने अपने मित्रो से सारी संकट की कथा का रहस्य जान लिया। उसने मांत्रिक मित्र से कहा- "डरने की कोई बात नही है। तुमने ही तो काष्ट के शरीर में मंत्र द्वारा प्राण प्रतिष्ठा की थी। तुम अपनी शक्ति को वापिस खीच लो, तब जड़रूप व्याघ्र क्या करेगा?' मांत्रिक ने वैसा ही किया। व्याघ्र पुनः जड़ रूप हो गया।" इस द्रष्टान्त का भाव यह है कि स्वयं राग द्वेष द्वारा संकट रूप शेर के शरीर में प्राण प्रतिष्ठा करता है। यह चाहे तो राग द्वेष को दूर करके कर्मरूपी शेर को समाप्त भी कर सकता है। राग द्वेष के नष्ट होने पर क्या कर सकते हैं? राग-द्वेष के नष्ट होते हुए ही शीघ्र संसार भ्रमण दूर होकर जीव मुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करता है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४१ ? "सुलझी हुई मनोवृत्ति" एक समय एक महिला ने भूल से आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज को आहार में वह वस्तु दे दी, जिसका उन्होंने त्याग कर दिया था। उस पदार्थ का स्वाद आते ही वे अंतराय मानकर आहार लेना बंद कर चुपचाप बैठ गए। उसके पश्चात उन्होंने पाँच दिन का उपवास किया और कठोर प्राश्चित भी लिया।यह देखकर वह महिला महाराज के पास आकर रोने लगी कि मेरी भूल के कारण आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा। महाराज ने उस वृद्धा को बड़े शांत भाव से समझाते हुए कहा- "तू क्यो खेद करती है। मेरे अंतराय का उदय आने से ऐसा हुआ है। तूने यदि यथार्थ में देखा जाय, तो मेरा उपकार किया है। तेरे कारण ही मुझे इस शांति तथा आनंद प्रदाता व्रत लेने का शुभ अवसर मिला। व्रत में कष्ट नही होता, आत्मा को अपूर्व शांति मिलती है।" यथार्थ मे आचार्य महाराज निसर्ग सिद्ध(जन्मजात) साधु रहे हैं। जिस तपस्या को देखकर लोग घबराते हैं, उससे उनके मन मे शांति और आत्मा को बल प्राप्त होता है। आचार्यश्री अपनी शक्ति को देखकर ही तप करते थे, जिससे संकलेश-भाव की प्राप्ति ना हो। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४० ? "जीर्णोद्धार की प्रशंसा" एक धार्मिक व्यक्ति ने पाँच मंदिरो का जीर्णोद्धार कराया था। उसके बारे में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे- "जिन मंदिर का काम करके इसने अपने भव के लिए अपना सुंदर भवन अभी से बना लिया है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३९ ? "जन्मान्तर का अभ्यास" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संधपति गेंदंमल जी के समक्ष दिवाकरजी कहा था कि हमे लगता है, "इस भव के पूर्व में भी हमने जिन मुद्रा धारण की होगी।" उन्होंने पूछा- "आपके इस कथन का क्या आधार है? उत्तर में उन्होंने कहा - "हमारे पास दीक्षा लेने पर पहले मूलाचार ग्रंथ नहीं था, किन्तु फिर भी अपने अनुभव से जिस प्रकार प्रवृति करते थे, उसका समर्थन हमे शास्त्र मे मिलता था- ऐसा ही अनेक बातों में होता था। इससे हमे ऐसा लगता है कि हम दो तीन भव पूर्व अवश्य मुनि रहे होंगे।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३८ ? "कोरा उपदेश धोबी तुल्य है" अपने स्वरूप को बिना जाने जो जगत को चिल्लाकर उपदेश दिया जाता है, उसके विषय मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़े अनुभव की बात कही थी, "जब तुम्हारे पास कुछ नही है, तब जग को तुम क्या दोगे? भव-२ में तुमने धोबी का काम किया। दूसरों के कपड़े धोते रहे और अपने को निर्मल बनाने की और तनिक भी विचार नहीं किया। अरे भाई ! पहले अपनी आत्मा को उपदेश दो, नाना प्रकार की मिथ्या तरंगो को अपने मन से हटाओ, फिर उपदेश दो। केवल जगत को धोते बैठने से शुध्दि नहीं होगी। थोड़ा भी आत्मा का कल्याण कर लिया तो बहुत है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३७ ? "जीवनरक्षा व एकीभाव स्त्रोत का प्रभाव" ब्रम्हचारी जिनदास समडोली वालों ने बताया कि आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की अपार समर्थ को मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। उन्होंने मेरे प्राण बचाये, मुझे जीवनदान दिया, अन्यथा मैं आत्महत्या के दुष्परिणाम स्वरूप ना जाने किस योनी मे जाकर कष्ट भोगता। बात इस प्रकार है कि मेरे पापोदय से मेरे मस्तक के मध्य भाग में कुष्ट का चिन्ह दिखाई पड़ने लगा। धीरे-२ उसने मेरे मस्तक को घेरना शुरू किया। मेरी चिन्ता की सीमा ना थी, मेरी मनोवेदना का पार ना था। लोगो के सामने आने मे मुझे बड़ा संकोच होता था। अवर्णनीय लज्जा आती थी। निर्दोष होते हुए भी लोग मुझे हीनाचरणवाला सोचेगें, इससे मैं मन ही मन दुखी हो रहा था। एक दिन मैं आचार्य महाराज के चरणों में पहुँचा। आँखो से अश्रुधारा बहाते हुए मैंने अपने अंतःकरण की सारी वेदना व्यक्त कर दी। उन्होंने मुझे बड़ी हिम्मत दी और आत्मघात करने को महान पातक बता उससे मुझे रोका। उन्होंने मुझसे कहा- "घबराओ मत तुम्हारा रोग जल्दी दूर ही जावेगा। तुम प्रभात,मध्यान्ह तथा सायंकाल के समय शुद्धतापूर्वक एकीभाव स्त्रोत का पाठ करो। तीन चार सप्ताह के बाद वह रोग दूर हो गया। एक विशेष उल्लेखनीय बात यह थी कि मेरे मस्तक में एक छोटा सफेद दाग शेष बचा था। मैंने कहा - "महाराज, यह दाग अभी बाकी है।" सुनकर पूज्यश्री ने अपना हाथ मस्तक पर लगाया, तत्काल ही वह सफेद दाग दूर हो गया। मैं गुरुप्रसाद से ना केवल उस रोग से मुक्त हुआ बल्कि आत्मघात की विपत्ति से बचा। यह हाल बहुत से लोगों को मालूम हुआ। स्तवनिधि क्षेत्र मे पायसागर महाराज ने आचार्य महाराज की महत्वता पर प्रकाश डालते बताया था कि गुरुप्रसाद से ब्रम्हचारी जिनदास का यह रोग दूर हुआ था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३६ ? "अन्य साधुओ व जनता पर अपूर्व प्रभाव" अन्य सम्प्रदाय के बड़े-२ साधू और मठाधीश आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरित्र और तपस्या के वैभव के आगे सदा झुकते रहे हैं। एक बार जब महाराज हुबली पधारे, उस समय लिंगायत सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य सिद्धारूढ़ स्वामी ने इनके दर्शन किए और इनके भक्त बन गए। उन्होंने अपने शिष्यो से कहा था कि जीवन में ऐसे महापुरुष को अपना गुरु बनाना चाहिए। एक समय कोल्हापुर के समीपवर्ती इस्लामपुर में मुस्लिम अधिकारी ने महाराज के आम सड़क के विषय मे आपत्ति उपस्थित की थी। क्षणभर में आस-पास के ग्रामो में यह समाचार पहुँच गया कि इस्लामपुर के मुस्लिम आचार्य महाराज के प्रति दुष्ट व्यवहार करना चाहते हैं। थोड़े समय में दस हजार से अधिक ग्रामीण जैनी चारो ओर से लाठी आदि लेकर आ गए।उस समय वह इस्लामपुर जैनपुर सा दिखता था। मुस्लिम लोग अपने घरो में घुस गए। उन्हें अपनी जान बचाना कठिन हो गया। तत्काल मुस्लिम अधिकारी ने अपना नादिरशाही आर्डर को वापिस लिया। आचार्य शान्तिसागरजी की जय जयकार करते हुए उस स्थान से विहार हुआ। महाराज का पुण्य प्रताप ऐसा है कि बड़ी से बड़ी विपत्ति शीघ्र ही दूर होकर गौरव को वृध्दि करने वाली बन जाती थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी - ३५ ? "जैनवाड़ी में सम्यक्त्व धारा" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का क्षुल्लक अवस्था मे तृतीय चातुर्मास कोगनोली के उपरांत उन्होंने कर्नाटक की और विहार किया। जैनवाड़ी में आकर उन्होंने वर्षायोग का निश्चय किया। इस जैनवाड़ी को जैनियो की बस्ती ही समझना चाहिए। वहाँ प्रायः सभी जैनी ही थे। किन्तु वे प्रायः अज्ञान मे डूबे हुए थे। सभी कुदेवो की पूजा करते थे। महाराज की पुण्य देशना से सभी श्रावको ने मिथ्यात्व का त्याग किया और घर से कुदेवो को अलग कर कई गाडियो मे भरकर उन्हें नदी मे सिरा दिया। उस समय वहाँ के जो राजा थे, यह जानकर आश्चर्य मे पड़े कि क्षुल्लक महाराज (आचार्य महाराज) तो बड़े पुण्य चरित्र महापुरुष हैं, वे भला क्यों हम लोगो के द्वारा पूज्य माने गए देवो को गाड़ी मे भरकर नदी मे डुबाने का कार्य क्यों कराते हैं?राजा और रानी, दोनो ही महाराज की तपश्चर्या से पहले ही खूब प्रभावित थे। उनके प्रति बहुत आदर भी रखते थे। एक दिन राजा पूज्यश्री की सेवा मे स्वयं उपस्थित हुए और बोले- "महाराज ! आप यह क्या करवातें हैं, जो गाडियो में भरकर देवो को पहुचा देते हैं?" महाराज ने कहाँ- "राजन ! आप एक प्रश्न का उत्तर दो कि आप के यहाँ गण्पति की स्थापना होती है कि नहीं ?" राजा ने कहा- "हां महाराज ! हम लोग गणपति को विराजमान करते हैं। महाराज ने कहाँ- "उनकी स्थापना के बाद क्या करते हैं?" राजा ने कहाँ- "महाराज हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं।" महाराज ने पूंछा- "उस उत्सव के बाद क्या करते हैं?" राजा ने कहा- "महाराज बाद मे हम उनको पानी मे सिरा देते हैं।" महाराज ने पूछा- "जिनकी आपने भक्ति से पूजा की, आराधना की उनको पानी मे क्यों डूबो दिया?" राजा ने कहा- "महाराज, पर्व पर्यन्त ही गणपति की पूजा का काल था। उसका काल पूर्ण होने पर उनको सिराना ही कर्तव्य है।" महाराज ने पूंछा- "उनके सिराने के बाद आप फिर किनकी पूजन करतें हैं?" राजा ने कहा- "महाराज हम उसके पश्चात राम, हनुमान आदि की मूर्तियो की पूजा करते हैं।" महाराज ने कहा- "राजन ! जैसे पर्व पूर्ण होने के पश्चात गणपति को आप सिरा देते हैं और रामचंद्रजी आदि की पूजा करते हैं, उसी प्रकार इन देवो की पूजा का पर्व समाप्त हो गया। जब तक हमारा आना नही हुआ था, इनकी पूजा का काल था। अब जैन गुरु के आने से उनका कार्य पूर्ण हो गया, इससे उनको सिरा देना ही कर्तव्य है। जिस प्रकार आप राम,हनुमान आदि की पूजा करते हैं, इसी प्रकार हमारे मंदिर में स्थायी मूर्ति तीर्थंकरों की, अरहंतो की रहती है, उनकी पूजा करते हैं।" पूज्यश्री के युक्ति पूर्ण विवेचन से राजा का संदेह दूर हो गया। वे महाराज को प्रणाम कर संतुष्ट होकर राजभवन को लौट गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी का - ३४ ? "सतगौड़ा के पिता" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने गृहस्थ जीवन मे जो उनके पिता थे उनके बारे में बताया था।कि उनके पिता प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली, ऊंचे पूरे थे। वे शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे। उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन मे एक बार ही भोजन पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था, १६ वर्ष पर्यन्त ब्रम्हचर्य व्रत रखा था। उन जैसा धर्माराधना पूर्वक सावधानी सहित समाधिमरण मुनियो के लिए भी कठिन है। एक दिन पिताजी ने हमसे कहा, "उपाध्याय को बुलाओ, उसे दान देकर अब हम यम समाधि लेना चाहते हैं।" हमने पूंछा, "आप मर्यादित काल वाली नियम समाधि क्यो नही लेते ?" पिताजी ने उत्तर दिया, "हमे अधिक समय तक नही रहना है, इसीलिए हम यम समाधि लेते हैं।" उस समय हम लोगो ने उनको धर्म की बात सुनाने का कार्य लगातार किया, दिन के समान सारी रात भी धर्माराधना का क्रम चलता रहा। प्रातः काल मे पिताजी के प्राण सूर्य उदय के पूर्व ही पंच परमेष्ठी का नाम स्मरण करते करते निकल गए। उस समय वे ६५ वर्ष के थे । अपनी माता के विषय मे आचार्यश्री ने बताया था कि हमारी माता का समाधिमरण १२ घंटे मे हो गया था। ऐसे धार्मिक परिवार में ऐसे विश्व दीपक, अनुपम नररत्न का जन्म, संवर्धन तथा पोषण हुआ था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३ ? "गुफा मे ध्यान व सर्प उपद्रव में स्थिरता" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पास दूर-दूर के प्रमुख धर्मात्मा श्रावक धर्म लाभ के लिए आते थे। धर्मिको के आगमन से किस धर्मात्मा को परितोष ना होगा, किन्तु अपनी कीर्ति के विस्तार से महाराज की पवित्र आत्मा को तनिक भी हर्ष नही होता था।वे बाल्य जीवन से ही ध्यान और अध्यन के अनुरागी थे। अब प्रसिद्धिवश बहुत लोगो के आते रहने से ध्यान करने मे बाधा सहज ही आ जाती थी।इससे महाराज ने पहाड़ी की एक अपरिचित गुफा मे मध्यान की सामयिक के लिए गए और सामयिक करने लगे। गुफा के पास मे झाड़ी थी और उसमे सर्पादिक जीवो का भी निवास था। गुरुभक्त मंडली ने देखा आज महाराज ध्यान के लिए दूसरे स्थान पर गए हैं। अब उन्होंने उनको ढूढ़ना प्रारम्भ किया और कुछ समय के पश्चात वे गुफा के समीप आ गए, जिसमें महाराज तल्लीन थे। उस समय एक सर्प झाड़ी में से निकला और गुफा के भीतर जाते लोगो को दिखा।कुछ समय वह भीतर फिरकर बाहर निकालना चाहता था कि एक श्रावक ने गुफा के द्वार पर एक नारियल चढ़ा दिया। उसकी आहट से सर्प पुनः भीतर घुस गया। वहाँ वह महाराज के पास गया और उनके शरीर पर चढ़कर उसने उनके ध्यान मे विघ्न डालने का प्रयत्न किया। किन्तु उसका उन पर कोई भी असर नही हुआ। वे भेद विज्ञान की विमल ज्योति द्वारा शरीर और आत्मा को भिन्न-२ देखते हुए अपने को चैतन्य का पुंज सोचते थे, अतः शरीर पर सर्प आया है, वह यदि दंश कर देगा, तो मेरे प्राण ना रहेंगे, यह बात उन्हें भय विहल ना बना सकी। वे वज्रमूर्ति की तरह स्थिर रहे आए। शरीर मे अचलता थी, भावो मे मेरु की भांति स्थिरता थी। आत्मचिंतन से प्राप्त आनंद में अपकर्ष के स्थान पर उत्कर्ष ही हो रहा था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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