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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, अभी तक पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के प्रसंगों का वर्णन चल रहा था। शांति के इन सागर की गुणगाथा जितनी भी गाई जाए उतनी कम है। अब हम उनके जीवन चरित्र के अन्य ज्ञात विशेष प्रसंगों के जानेंगे। आज का प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, इस प्रसंग को जानकर आपका मानस निर्ग्रन्थ साधु की सूक्ष्म अहिंसा पालन की भावना को जानकर उनके प्रति भक्ति की भावना के साथ अत्यंत आनंद का अनुभव करेगा। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३२ ? "मृत्यु से युद्ध की तैयारी" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का जीवन बड़ा व्यवस्थित और नियमित रहा था। यम-समाधि के योग्य अपने मन को बनाने के लिए उन्होंने खूब तैयारी की थी। लोणंद से जब आचार्य महाराज फलटण आये, तब उन्होंने जीवन भर अन्न का परित्याग किया था। कुंथलगिरि पहुँचकर उन्होंने अधिक उपवास शुरू कर दिए थे। श्रावण वदी प्रथमा से उन्होंने अवमौदर्य तप का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया था। महाराज ने एक ग्रास पर्यन्त आहार को घटा दिया था। वे कहने लगे- "यदि प्रतिदिन दो ग्रास भी आहार लें तो यह शरीर बहुत दिन चलेगा। यदि केवल दूध लेंगे तो शरीर वर्षों टिकेगा।" ?धन्य हैं ऐसे मुनिराज ? जब प्राणी संयम नहीं पल सकता है, तब इस शरीर के रक्षण द्वारा असंयम का पोषण क्यों किया जाए? जिस अहिंसा महाव्रत की प्रतिज्ञा ली थी, उसको दूषित क्यों किया जाए ? व्रतभ्रष्ट होकर जीना मृत्यु से भी बुरा है। व्रत रक्षण करते हुए मृत्यु का स्वागत परम उज्जवल जीवन तुल्य है इस धारणा ने, इस पुण्य भावना ने, उन साधुराज को यम समाधि की और उत्साहित किया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३१ ? "देव पर्याय की कथा" लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर के उत्कृष्ट सल्लेखना के उपरांत स्वर्गारोहण के पश्चात् अपनी कल्पना के आधार पर उनके स्वर्ग की अवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया हैं- औदारिक शरीर परित्याग के अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही उनका वैक्रियिक शरीर परिपूर्ण हो गया और वे उपपाद शैय्या से उठ गए। उस समय उन्होंने विचार किया होगा कि यह आनंद और वैभव की सामग्री कहाँ से आ गई? अवधि ज्ञान से उनको ज्ञात हुआ होगा कि मैंने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यम सल्लेखनापूर्वक अपने शरीर का संयम सहित त्याग किया था उससे मुझे यह देव पर्याय प्राप्त हुई है। इस ज्ञान के पश्चात् वे आनंद पूर्ण वाद्ययंत्र तथा जयघोष सुनते हुए सरोवर में स्नान करते हैं और आनंदपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अकृतिम रत्नमय प्रतिमाओं के दर्शन, अभिषेक व् पूजन में मग्न हो जाते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३० ? "भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न" कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७ जुलाई १९५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात को सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि: "१२ वर्ष पूर्व हमे भी ऐसा स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।" कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन्तु उनका स्वयं का जीवन आचरण तथा श्रद्धा सूचित करते हैं कि वह प्रलाप मात्र है। रत्नत्रय के द्वारा पुनीत जीवन वाले श्रमणराज का श्रेष्ठ विकास पूर्णतः सुसंगत लगता है। महाराज में सोलहकारण भावनाओं का अपूर्व समागम था। जिनसे तीर्थंकर रूप श्रेष्ठ फल मिलता है। यह शंका की जा सकती है कि केवली, श्रुतकेवली के चरण-मूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ होता है, तब आज उक्त दोनों विभूतियों के अभाव में किस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकेगा? यथार्थ में शंका उचित है किन्तु इस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध ना करके, लौकान्तिक पदवी को छोड़कर पुनः नर पदवी धारण करके तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। विदेह में तीर्थंकर पंचकल्याणक वाले होते हैं; दीक्षा, ज्ञान तथा मोक्ष तीन कल्याणक वाले भी होते हैं, ज्ञान और मोक्ष दो कल्याणक वाले भी होते हैं। गृहस्थावस्था में यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध किसी चरम शरीरी आत्मा ने किया तो उसके तीन कल्याणक होंगे। यदि निर्ग्रन्थ ने बंध किया, तो ज्ञान और मोक्ष रूप दो ही कल्याणक हो सकेंगे। इस अपेक्षा से सोचा जाए, तो वे सभी भाग्यशाली हो जाते हैं, जिन्होंने ऐसी प्रवर्धमान पुण्यशाली आत्मा के दर्शनादि का लाभ लिया हो। सबसे बड़ा भाग्य तो उनका है जो पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के उपदेशानुसार पुण्य जीवन व्यतीत करते हुए जन्म को सफल कर रहे हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२९ ? "शिष्यों को सन्देश" स्वर्गयात्रा के पूर्व आचार्यश्री ने अपने प्रमुख शिष्यों को यह सन्देश भेजा था, कि हमारे जाने पर शोक मत करना और आर्तध्यान नहीं करना। आचार्य महाराज का यह अमर सन्देश हमे निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक का कर्तव्य-पथ बता गया है। उन्होंने समाज के लिए जो हितकारी बात कही थी वह प्रत्येक भव में काम की वस्तु है। ?अनुमान? पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणों में बहुत समय व्यतीत करने के कारण तथा उनकी सर्व प्रकार की चेष्टाओं का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण करने के फलस्वरूप ऐसा मानना उचित प्रतीत होता है कि वे लौकांतिक देव हुए होंगे। वे अलौकिक पुरुषरत्न थे, यह उनकी जीवनी से ज्ञात होता है। माता के उदर में जब ये पुरुष आये थे तब सत्यवती माता के ह्रदय में १०८ सहस्त्रदल युक्त कमलों से जिनेन्द्र भगवान की वैभव सहित पूजन करने की मनोकामना उत्पन्न हुई थी। आज के जड़वाद तथा विषयलोलुपता के युग में उन्होंने जो रत्नत्रय धर्म की प्रभावना की है और वर्धमान भगवान के शासन को वर्धमान बनाया है उससे तो ये भावी जिनेश्वर के नंदन सदृश लगते रहे हैं। हमारी तो यही धारणा है कि लौकांतिक देवर्षि की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् ये धर्मतीर्थंकर होंगे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२८ ? "जीवन की उज्जवल घटनाओं की स्मृति" आचार्यश्री के शरीर के संस्कार के उपरांत धीरे-धीरे पर्वत से नीचे आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे। तपोग्नि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे। उठने का मन ही नहीं होता था। आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५ ) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप वीताने का मौका ही न आया। अग्नि की लपटें मेरी ओर जोर-जोर से आती थी। मै उनको देखकर विविध विचारों में निमग्न हो जाता था। अब महाराज के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य सदा के लिए समाप्त हो गया, इस कल्पना से अंतःकरण में असह्य पीड़ा होती थी। तो दूसरे क्षण महापुराण का कथन याद आता था, कि आदिनाथ भगवान के मोक्ष होने पर तत्वज्ञानी भरत शोक-विहल हो रहे थे। उनको दुखी देखकर वर्षभसेन गणधर ने सांत्वना देते हुए कहा था, "अरे भरत ! निर्वाण कल्याणक होना आनंद की बात है। उसमे शोक की कल्पना ठीक नहीं है, 'तोषे विषादः कुतः'।" इस प्रकार गुरुदेव की छत्तीस दिन लंबी समाधी श्रेष्ठ रीति से पूर्ण हो गई। यह संतोष की बात मानना चाहिए। शोक की बात सोचना अयोग्य है। ऐसा विचार आने मनोवेदना कम होती थी। आगम में कहा है, 'न हि समाधिमरणंशुचे' समाधिमरण शोक का कारण नहीं है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२७ ? "चरणों में प्रणामांजलि" विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श कर मैंने प्रणाम किया। चरण की लम्बी गज रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। मुझे अन्य लोगों के साथ विमान को कन्धा देने का प्रथम अवसर मिला। ?ॐ सिद्धाय नमः की उच्च ध्वनि? धर्म सूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः का उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में विमान, क्षेत्र के बाहर बनी हुई पाण्डुक शिला के पास लाया गया। पश्चात् पावन पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ विमान पर्वत पर लाया गया। महाराज का शरीर जब देखो ध्यान मुद्रा में ही लीन दिखता था। दो बजे दिन के समय पर्वत पर मानस्तम्भ के समीपवर्ती स्थान पर विमान रखा गया। वहाँ शास्त्रानुसार शरीर के अंतिम संस्कार, लगभग १५ हजार जनता के समक्ष कोल्हापुर जैन मठ के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामी ने कराया। ?प्रदीप्त अग्नि? अभिषेक होते ही चन्दन, नारियल की गारी, कपूर आदि द्रव्यों से पद्मासन बैठे हुए उस शरीर को ढांकने का कार्य शुरू हुआ। देखते-देखते आचार्यश्री का मुखमंडल भर जो दृष्टीगोचर होता था, कुछ क्षण बाद वह भी दाह-द्रव्य में दब गया। विशेष मन्त्र से परिशुद्धि की गई। अग्नि के द्वारा शरीर का चार बजे शाम को दाहसंस्कार प्रारम्भ हुआ। कपूर आदि सामग्री को पाकर अग्नि को वृद्धिंगत होते देर न लगी। अग्नि की बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ पवन का सहयोग पाकर चारों दिशाओं में फैलकर दिग्दिगंत को पवित्र बना रही थी। देह दाह का संस्कार हो गया। ?हमे भी समाधि लाभ हो? उसे देखकर ज्ञानी जन सोचते थे। हे सधुराज ! जैसी आपकी सफल संयम पूर्ण जीवन यात्रा हुई है। श्रेष्ठ स्माधि रूपी अमृत आपने प्राप्त किया ऐसा ही जिनेन्द्र देव के प्रसाद से हमे भी हो और अपना जन्म कृतार्थ करने का अवसर प्राप्त हो। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२६ ? "निधि लुट गई" समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विहल हो गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लूट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस समय दर्शकों को यही लगता था कि महाराज तो हमारे नेत्रों के समक्ष साक्षात् बैठे हैं और पुण्य दर्शन दे रहे हैं। पर्वत पर साधुओं आदि ने भक्ति का पाठ पढ़ा, कुछ संस्कार हुए। बाद में विमान में उनकी तपोमयी देह को विराजमान गया। यहाँ उनका शरीर काष्ट के विमान विराजमान किया गया था। परमार्थतः महाराज की आत्मा संयम साधना के प्रसाद से स्वर्ग के श्रेष्ठ विमान में विराजमान हुई होगी। यह विमान दिव्य विमान का प्रतीक दिखता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२५ ? "स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन" आचार्य महाराज का स्वर्गारोहण भादों सुदी दूज को सल्लेखना ग्रहण के ३६ वें दिन प्रभात में ६ बजकर ५० मिनिट पर हुआ था। उस दिन वैधराज महाराज की कुटि में रात्रि भर रहे थे। उन्होंने महाराज के विषय में बताया था कि- "दो बजे रात को हमने जब महाराज की नाडी देखी, तो नाड़ी की गति बिगड़ी हुई अनियमित थी। तीन, चार ठोके के बाद रूकती थी, फिर चलती थी। हाथ-पैर ठन्डे हो रहे थे। रुधिर का संचार कम होता जा रहा था। चार बजे सबेरे श्वास कुछ जोर का चलने लगा, तब हमने कहा- "अब सावधानी की जरुरत है। अन्त अत्यंत समीप है।" सबेरे ६ बजे महाराज का संस्तर से उठाने का विचार क्षुल्लक सिद्धिसागर ने व्यक्त किया। महाराज ने शिर हिलाकर निषेध किया। उस समय वे सावधान थे। उस समय श्वास जोर-जोर से चलती थी। बीच में धीरे-२ रूककर फिर चलने लगती थी। उस समय महाराज के कर्ण में भट्टारक लक्ष्मीसेनजी 'ऊँ नमः सिद्धेभ्यः' तथा 'णमोकार मन्त्र' सुनाते थे। ६ बजकर ४० मिनिट पर मेरे कहने पर महाराज को बैठाया, पद्मासन लगवाया, कारण कि अब देर नहीं थी। अब श्वास मंद हो गई। ओष्ठ अतिमंद रूप से हिलते हुए सूचित होते थे मानो वे जाप कर रहे हों। एक दीर्ध श्वास आया और हमारा सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया। उस समय उनके मुख से अंत में "ॐ सिद्धाय" शब्द ध्वनि में निकले थे।" वैद्यराज ने कहा- "हमारी धारणा है कि महाराज का प्रणोत्क्रमण नेत्रों द्वारा हुआ। मुख पर जीवित सदृश तेज रहा आया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२४ ? ?आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण? आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सल्लेखनारत अब तक ३५ दिन निकल गए थे, रात्री भी व्यतीत हो गई। नभोमंडल में सूर्य का आगमन हुआ। घडी में ६ बजकर ५० मिनिट हुए थे जब चारित्र चक्रवर्ती साधु शिरोमणी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने स्वर्ग को प्रयाण किया। वह दिन रविवार था। अमृतसिद्धि योग था। १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन था। उस समय हस्त नक्षत्र था। ?धर्मसूर्य का अस्तंगत? मै तुरंत पर्वत पर पहुँचा। कुटी में जाकर देखा। वहाँ आचार्य महाराज नहीं थे। चारित्र चक्रवर्ती गुरुदेव नहीं थे। आध्यात्मिकों के चूड़ामणि क्षपकराज नहीं थे। धर्म के सूर्य नहीं थे। उनकी पावन आत्मा ने जिस शरीर में ८४ वर्ष निवास किया था, केवल वह पौद्गलिक शरीर था। वही कुटी थी किन्तु अमरज्योति नहीं थी। ह्रदय में बड़ी वेदना हुई। ?गहरी मनोवेदना? प्रत्येक के ह्रदय में गहरी पीडा उत्पन्न हो गई। बंध के मूल कारण बंधु का यह वियोग नहीं था। अकारण बंधु, विश्व के हितैषी आचार्य परमेष्ठी का यह चिर वियोग था। मनोव्यथा को कौन लिख सकता है, कह सकता है, बता सकता है। कंठ रुंध गया था। वाणी-विहीन ह्रदय फूट-फूट कर रोता था। आसपास की प्रकृति रोती सी लगती थी। पर्वत का पाषाण भी रोता-सा दिखता था। आज कुंथलगिरी ही नहीं सारा भारतवर्ष सचमुच अनाथ हो गया, उसके नाथ चले गए। हमारे स्वछन्द जीवन पर संयम की नाथ लगाने वाले चले गए। आँखों से अश्रु का प्रवाह बह चला। आज हमारी आत्मा के गुरु सचमुच में यहाँ से प्रयाण कर गए। शरीर की आकृति अत्यंत सौम्य थी, शांत थी। देखने पर ऐसा लगता था कि आचार्य शान्तिसागर महाराज गहरी समाधि में लीन हैं, किन्तु वहाँ शान्तिसागर महाराज नहीं थे। वे राजहंस उड़कर सुरेन्द्रों के साथी बन गए थे। ?३६वाँ अंतिमदिन - १८ सितम्बर ५५? आज आचार्यश्री की सल्लेखना का ३६ वाँ दिन था और आचार्यश्री की इस लोक की जीवनलीला का अंतिम दिन। आचार्यश्री जाग्रत अवस्था में सिद्धोहम का ध्यान करते रहे। साढ़े ६ बजे गंधोदक ले जाकर क्षुल्लक सिद्धसागरजी ने कहा, महाराज अभिषेक का जल है, महाराज ने हूँ में उत्तर दिया और गंधोदक लगा दिया गया। महाराज की आत्मा सिद्धोहम का ध्यान करते हुए ६ बजकर ५० मिनिट पर स्वर्गारोहण कर गई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२३ ? "सल्लेखना का ३५ वाँ दिन" युग के अनुसार हीन सहनन को धारण करने वाले किसी मनुष्य का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-२ तक अद्वितीय माना जायेगा। आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान के चरणों का विशेष रूप से अनुगामी था। वह सिद्धालय में जाकर अनंतसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था। आचार्य महाराज के समीप अखंड शांति थी। जो संभवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुशरण करती थी। उनके पास कोई शब्दोच्चार नहीं हो रहा था। शरीर चेष्टारहित था। श्वासोच्छ्वास के गमनागमन-कृत देह में परिवर्तन दिख रहा था। यदि वह चिन्ह शेष न रहता, तो देह को चेतना शून्य भी कहा जा सकता था। "प्रतीत होता था कि वे म्यान से जैसे तलवार भिन्न रहती है, उस प्रकार शरीर से पृथक अपनी आत्मा का चिंतवन में निमग्न थे।" उस आत्मा-समाधि में जो उनको आनंद की उपलब्धि हो रही थी, उसकी कल्पना आर्तध्यान, रौद्रध्यान के जाल में फसा हुआ गृहस्थ क्या कर सकता है? महान कुशल वीतराग योगीजन ही उस परमामृत की मधुरता को समझते हैं। जिस प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकते। बाह्य सामग्री से यह अनुमान होता था कि महाराज उत्कृष्ट योग साधना में संलग्न हैं। घबराहट, वेदना आदि का लेश नहीं था। ? ३५ वाँ दिन - १७ अगस्त १९५५ ? आज सल्लेखना का ३५ वाँ दिन था। आज गुफा की दालान में आचार्यश्री को लिटा दिया गया। फलतः उपस्थित हजारों की जनता ने देषभूषण कुलभूषण मंदिर तथा आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों का लाभ लिया। शाम को श्री भवरीलालजी सेठी श्री मिश्रीलालजी गंगवाल का भाषण हुआ। आचार्यश्री ने अपना समय आत्मध्यान में व्यतीत किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२२ ? "परलोक यात्रा के पूर्व" आज का प्रसंग पिछले प्रसंग के आगे का ही कथन है। उससे जोड़कर ही आगे पढ़ें। मुझे (लेखक को) आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मै तो किसी-किसी भाई से कहता था, "गुरुदेव तो ह्रदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।" कुछ समय के पश्चात् मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा कि पर्वत पर आपको बुलाया है। मै पर्वत पर लगभग तीन बजे पहुँचा और महाराज की कुटी में गया। वहाँ मुझे उन क्षपकराज के अत्यंत निकट लगभग दो घंटे रहने का अपूर्व अवसर मिला। वे चुपचाप लेते थे, कभी-कभी हांथों का सञ्चालन हो जाता था। अखंड सन्नाटा कुटी में रहता था। महाराज की श्रेष्ठ समाधि निर्विध्न हो, इस उद्देश्य से मैं भगवान का जाप करता हुआ तेजःपुंज शरीर को देखता था। ?३४ वाँ दिन - १६ सितम्बर १९५५ ? आज सल्लेखना का ३४ वाँ दिन था। जल ग्रहण ना करने का आज १२ वाँ दिन था। शरीर की हालात बहुत नाजुक थी, फिर भी गुफा में आत्मध्यान में समय व्यतीत किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२१ ? "पीठ का दर्शन" एक-एक व्यक्ति ने पंक्ति बनाकर बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक क्षपकराज पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था कि मानो वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी। जब मै (लेखक) पर्वत पर पहुँचा, तब महाराज करवट बदल चुके थे, इससे उनकी पीठ ही दिखाई पड़ी। मैंने सोचा- "सचमुच में अब हमे महाराज की पीठ ही तो दिखेगी। उनकी दृष्टी आत्मा की ओर हो गई है। इस जगत की ओर उन्होंने पीठ कर ली है।" पर्वत से लौटकर नीचे आए। लोगो को बड़ा संतोष हुआ कि जिस दर्शन के लिए हजारों मील से आए, वह कामना पूर्ण हो गई। कई लोग दूर दूर से पैदल भी आए। आने वालों में अजैनी भी थे। सब को दर्शन मिल गए, इससे लोगों के मन में संतोष था; किन्तु रह-रह कर याद आती थी कि यदि ऐसी व्यवस्था पहले हो जाती, तो निराश लौटे लोगों की कामना पूर्ण हो सकती थी। वास्तव में अंतराय कर्म का उदय आने पर समझदार व्यक्तियों का विवेक भी साथ नहीं देता है और अनुकूल सामग्री भी प्रतिकूलता धारण करने लगती है। ?३३ वाँ दिन - १५ सितम्बर १९५५? सल्लेखना का आज ३३ वाँ दिन था। आचार्यश्री के शरीर को आज अशक्तता तो थी ही, नाड़ी की गति भी धीमी रफ्तार से चल रही थी। दर्शनार्थियों के अति आग्रह होने पर भी आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गए। ऐसे नाजुक हालात पर भी महाराज आत्मसाधना में लीन रहे। जनता को आचार्यश्री की पूर्व में उपयोग में लाई गई पिच्छी व् कमंडल के दर्शन कराये गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२० ? "अंतिम दर्शन" पिछले प्रसंग में देखा दूर-२ से लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आ रहे थे। उस समय जनता में अपार क्षोभ बढ़ रहा था। कुछ बेचारे दुखी ह्रदय से लौट गए और कुछ इस आशा से कि शायद आगे दर्शन मिल जाएँ ठहरे रहे। अंत में सत्रह सितम्बर को सुबह महाराज के दर्शन सब को मिलेंगे, ऐसी सूचना तारीख १६ की रात्री को लोगों को मिली। बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक एक-एक व्यक्ति की पंक्ति बनाकर लोगों ने आचार्यश्री के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था मानों वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी। ?३२ वाँ दिन - १४ सितम्बर १९५५? आज सल्लेखना का ३२ वाँ दिन और जल न ग्रहण करने को १० वाँ दिन हो जाने पर भी आचार्यश्री की आत्मसाधना और ध्यान बराबर जारी रहा। आज के दिन उस्मानावाद के कलेक्टर मय पुलिस अफसरान के आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे थे। शरीर की कमजोरी अधिक बढ़ जाने के कारण जनता को आज आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  14. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११९ ? "चिंतापूर्ण शरीर स्थिति" तारीख १३ सितम्बर को सल्लेखना का ३१ वां दिन था। उस दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शरीर की स्थिति बहुत ही चिंताजनक हो गई और ऐसा लगने लगा कि अब इस आध्यात्मिक सूर्य के अस्तंगत होने में तनिक भी देर नहीं है। यह सूर्य अब क्षितिज को स्पर्श कर चूका है। भूतल पर से आपका दर्शन लोगों को नहीं होता; हाँ शैल शिखर से उस सूर्य की कुछ-२ ज्योति दिखाई पड़ रही है। उस समय महाराज की स्थिति अद्भुत थी। उनकी सारी ही बातें अद्भुत रहीं हैं। जितने काम उस विभूति के द्वारा हुए वे विश्व को चकित ही करते थे। तारीख १३ को महाराज का दर्शन दुर्लभ बन गया। हजारों यात्री आए थे, किन्तु उनकी शरीर स्थिति को देखकर जन साधारण को दर्शन लाभ मिलना अक्षम्य दिखने लगा। उस दिन बाहर से आगत टेलिफोनो के उत्तर में हमने यह समाचार भेजा था- "महाराज के शरीर की प्राकृति अत्यंत क्षीण है दर्शन असंभव है। नाड़ी कमजोर है। भविष्य अनिश्चित है। आसपास की पंचायतों को तार या फोन से सुचना दे दीजिये, इससे दर्शनार्थी लोग यहाँ आकर निराश ना हों।" अन्य लोगों ने भी आसपास समाचार भेज दिए कि अब यह धर्म सूर्य शीध्र ही लोकान्तर को प्रयाण करने को है। जैसे-२ समय बीतता था, वैसे-२ दूर-दूर के लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आ रहे थे। बहुभाग तो ऐसे लोगों का था, जिनके मन में दर्शन के प्रति अवनर्णीय ममता थी। कारण, उन्होंने जीवन में एक बार भी इन लोकोत्तर सधुराज की प्रत्यक्ष वंदना न की थी। उस समय जनता में अपार क्षोभ बड़ रहा था। ?३१ वां दिन - १३ सितम्बर १९५५? कल बाहर के कमरे में आचार्यश्री ४-५ घंटे लेटे रहे, जिसके कारण आज काफी कष्ट रहा। नाडी की गति अत्यंत मंद होने पर भी सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत किया। आचार्यश्री की साधना में कोई विघ्न ना हो, इसलिए देशभूषण-कुलभूषण मंदिर भी दर्शनों के लिए बंद रहा। आचार्यश्री गुफा से बाहर नहीं आये, अतः जनता दर्शन लाभ न कर सकी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११८ ? "तेजपुञ्ज शरीर" पूज्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर आत्मतेज का अद्भुत पुञ्ज दिखता था। ३० से भी अधिक उपवास होने पर देखने वालों को ऐसा लगता था, मानों महाराज ने ५ - १० उपवास किये हों। उनके दर्शन से जड़वादी मानव के मन में आत्मबल की प्रतिष्ठा अंकित हुए बिना नहीं रहती थी। देशभूषण-कुलभूषण भगवान के अभिषेक का जब उन्होंने अंतिम बार दर्शन किया था, उस दिन शुभोदय से महाराज के ठीक पीछे मुझे (लेखक को) खड़े होने का सौभाग्य मिला था। मै महाराज के सम्पूर्ण शरीर को ध्यान से देख रहा था।उनके शरीर के तेज की दूसरों के शरीर से तुलना करता था। तब उनकी देह विशेष दीप्तियुक्त लगती थी। मुखमंडल पर तो आत्मतेज की ऐसी ही आभा दिखती थी, जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व प्राची दिशा में विशेष प्रकाश दिखता है। उनके हाथ, पैर, वक्षःस्थल उस लंबे उपवास के अनुरूप क्षीण लगते थे, फिर भी दो माह से महान तपस्या के कारण क्षीणतायुक्त शरीर और उस पर यह महान सल्लेखना का भार, ये तब अद्भुत सामग्री का विचार, आत्म-शक्ति और उस तेज को स्पष्ट करते थे। ? ३० वां दिन - १२सितम्बर ५५ ? आज सल्लेखना के ३० वें और जल न ग्रहण करने के ८ वें दिन आचार्यश्री के शरीर की हालत चिंताजनक रही। फिर भी जनता के विशेष आग्रह से आचार्य महाराज के दर्शन की छूट दे दी गई। आचार्य महाराज बाहर कमरे में दिन के १ बजे से ५ बजे तक लेटे हुए आत्मचिंतन करते रहे और ५ - ६ हजार जनता ने आचार्यश्री के पुनीत दर्शनों का लाभ लिया। आचार्यश्री के शरीर की हालत अत्यंत नाजुक तथा नाडी की गति अत्यंत मंद रही। आँखों की ज्योति क्षीण होने के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना न होने के कारण आत्म ध्यान में लीन रहे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११७ ? "जिनेश्वर के लघुनंदन" संसार मृत्यु के नाम से घबड़ाता है और उसके भय से नीच से नीच कार्य करने को तत्पर हो जाता है, किन्तु शान्तिसागरजी महाराज मृत्यु को चुनौती दे, उससे युद्ध करते हुए जिनेश्वर के नंदन के समान शोभायमान होते थे। जैन शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु विजेता बनने के लिए मुमुक्षु को मृत्यु के भय का परित्याग कर उसे मित्र सदृश मानना चाहिए। इसी मर्म को हृदयस्थ करने के कारण आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की संध्या बेला पर समाधिपूर्वक-शान्त भाव सहित प्राणों का परित्याग करके रत्नत्रय धर्म की रक्षा का सुदृढ़ संकल्प किया था। ? २९ वां दिन - ११ सितम्बर १९५५ ? सल्लेखना का आज २९ वां दिन था। आज प्रातः और दोपहर दोनों ही समय आचार्यश्री के शरीर की अशक्तता बहुत ज्यादा बढ़ जाने के कारण बाहर नहीं आये, अतः जनता दर्शन ना कर सकी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११६ ? "आत्मबल का प्रभाव" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की शरीर रूपी गाड़ी तो पूर्णतः शक्तिशून्य हो चुकी थी, केवल आत्मा का बल शरीर को खीच रहा था। यह आत्मा का ही बल था, जो सल्लेखना के २६ वें दिन ८ सितम्बर को सायंकाल के समय उन सधुराज ने २२ मिनिट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर सन्देश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांतिप्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है। ? २८ वां दिन - १० सितम्बर १९५५ ? आज सल्लेखना का २८ वां दिन था। अशक्तता बहुत ज्यादा थी, फिर भी प्रातः अभिषेक के समय आचार्यश्री पधारे और आधे घंटे ठहरे थे। प्रातः अभिषेक के समय पधारने का यह अंतिम दिन था। इसके बाद अभिषेक के समय आचार्यश्री नहीं पधारे। दोपहर में आचार्यश्री के दर्शनों का लाभ जनता को नहीं मिला। हालत बहुत ही चिंता जनक रही। आज शीत का असर भी मालूम हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११५ ? "शरीर के प्रति धारणा" अन्न के द्वारा जिस देह का पोषण होता है, वह अनात्मा (आत्मा रहित) रूप है। इस बात को सभी लोग जानते हैं। परंतु इस पर विश्वास नहीं है। पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "अनंत काला पासून जीव पुद्गल दोन्ही भिन्न आहे। हे सर्व जग जाणतो, परंतु विश्वास नहीं।" उनका यह कथन भी था तथा तदनुसार उनकी दृढ़ धारणा थी कि- "जीव का पक्ष लेने पर पुद्गल का घात होता है और पुद्गल का पक्ष लेने पर जीव का घात होता है। इसे वे मराठी में इस प्रकार कहते थे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो, पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो।" इस कारण आहार त्याग करने की उनकी प्रवृत्ति हुई। ?२७ वां दिन - ९ सितम्बर १९५५? आज सल्लेखना का २७ वां व् जल ग्रहण नहीं करने का ५ वां दिन था। दोनों समय आचार्यश्री ने जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया। मध्यान्ह में सिर्फ ७-८ मिनिट ही ठहरे और शुभाशीर्वाद देकर गुफा में चले गए। आज के दिन सूरत से जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद किसनचंदजी कपाड़िया भी दर्शनार्थ पधारे। जनता में आचार्यश्री का रिकार्डिंग भाषण सुनाया गया। विशेष बात यह हुई कि परम पूज्यश्री १०८ आचार्यश्री वीरसागरजी का आया हुआ पत्र आचार्यश्री को पढ़कर सुनाया गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११४ ? "आगम का सार" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना के२६ वे दिन के अमर सन्देश में कहा था- "जीव एकला आहे, एकला आहे ! जीवाचा कोणी नांही रे बाबा ! कोणी नाही.(जीव अकेला है,अकेला है। जीव का कोई नहीं बाबा, कोई नहीं है।)" इसके सिवाय गुरुदेव के ये बोल अनमोल रहे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो। पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो। परंतु मोक्षचा जाणारा जीव हा एकलाच आहे पुद्गल नहीं( जीव का पक्ष ग्रहण करने पर पुद्गल का घात होता है, पुद्गल का पक्ष ग्रहण करो, तो आत्मा का घात होता है, परंतु मोक्ष को जाने वाला जीव अकेला ही है, पुद्गल के साथ मोक्ष नहीं जाता है।)" अग्नि में तपाया गया सुवर्ण जिस प्रकार परिशुद्ध होता है, उसी प्रकार सल्लेखना की तपोग्नि द्वारा आचार्य महाराज का जीवन सर्व प्रकार से लोकोत्तर बनता जा रहा था। दूरवर्ती लोग उस विशुद्ध जीवन की क्या कल्पना कर सकते हैं? सल्लेखना की बेला में महराज केवल प्रशांत मूर्ति दिखते थे। उस समय वे नाम निक्षेप की दृष्टि से नहीं, अनवर्थता की अपेक्षा शांति के सिंधु शान्तिसागर थे। वे पूर्णतः अलौकिक थे। ?छब्बीसवां दिन - ८ सितम्बर१९५५? आचार्यश्री की सल्लेखना का २६ वां दिन था। कमजोरी बहुत बड़ गई थी। आज के दिन अकिवाट से श्री १०८ मुनि पिहितस्त्रव जी भी आ गए। आचार्यश्री को कमजोरी के कारण बिना सहारा दिए चलना भी मुश्किल हो गया। बम्बई से निरंजनलाल जी रिकार्डिंग मशीन लेकर आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे। आज आचार्यश्री का २२ मिनिट मराठी मे अंतिम उपदेश हुआ जी रिकार्ड किया गया। ? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११३ ? "सबकी शुभकामना" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज वास्तव में लोकोत्तर महात्मा थे। विरोधी व विपक्षी के प्रति भी उनके मन मे सद्भावना रहती थी। एक दिन मैंने कहा- "महाराज ! मुझे आशीर्वाद दीजिये, ऐसी प्रार्थना है। महाराज ने कहा था- "तुम ही क्यों जो भी धर्म पर चलता है, उसके लिए हमारा आशीर्वाद है कि वह सद्बुद्धि प्राप्त कर आत्मकल्याण करे।" ?पच्चीसवाँ दिन - ७ सितम्बर११५५? सल्लेखना का आज २५ वां दिन था। ४ सितम्बर के बाद जल ग्रहण ना करने का तीसरा दिन। कमजोरी बहुत बड़ गई थी, फलतः चक्कर भी आने लगे। बिना लोगों के सहारे के खड़े होना मुश्किल हो गया था, फिर भी जनता को दोनो समय दर्शन दिए। आज जब लोगों ने आचार्यश्री से चर्चा के समय जल ग्रहण करने के लिए निवेदन किया तो आचार्यश्री ने यही उत्तर दिया कि चूंकि बिना सहारे शरीर खड़ा भी नही हो सकता, अतः पवित्र दिगम्बर साधु चर्या को सदोष नही बनाया जा सकता, जैसी कि शास्त्र आज्ञा है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११२ ? "लोककल्याण की उमंग" कुंभोज बाहुबली क्षेत्र पर आचार्यश्री पहुँचे। उनके पवित्र ह्रदय में सहसा एक उमंग आई, कि इस क्षेत्र पर यदि बाहुबली भगवान की एक विशाल मूर्ति मिराजमान हो जाए, तो उससे आसपास के लाखों की संख्या वाले ग्रामीण जैन कृषक-वर्ग का बड़ा हित होगा। महाराज ने अपना मनोगत व्यक्त किया ही था, कि शीघ्र ही अर्थ का प्रबंध हो गया। उस प्रसंग पर आचार्य महाराज ने ये मार्मिक उद्गार व्यक्त किये थे- "दक्षिण में श्रवणबेलगोला को साधारण लोग कठिनता से पहुँचते हैं, इससे सर्वसाधारण के हितार्थ बाहुबली क्षेत्र पर २८ फुट ऊँची बाहुबली भगवान की मूर्ति विराजमान हो। मेरी यह हार्दिक भावना थी। अब उसकी पूर्ति हो जायेगी, यह संतोष की बात है।" महाराज की इस भावना का विशेष कारण है। महाराज मिथ्यात्व त्याग को धर्म का मूल मानते रहे हैं। भोले गरीब जैन अज्ञान के कारण लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता के फंदे में फस जाते हैं। महराज लोगों से कहते थे- "कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र का आश्रय कभी मत ग्रहण करो। कुगुरु की वंदना मत करो। उनकी बात भी मत सुनो। यह संसार बढ़ाने का कारण है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। मिथ्यात्व से बड़ा पाप दूसरा नहीं है। इस विशाल मूर्ति की भक्ति द्वारा साधारण जनता का अपार कल्याण होगा। सचमुच में मूर्ति कल्पवृक्ष होगी।" आज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की भविष्यवाणी अक्षरतः चरितार्थ हो रही है। ?चौबीसवाँ दिन - ६ सितम्बर१९५५? आचार्यश्री की स्थिति से उपस्थित जनसमूह को अवगत कराने हेतु जनसभा रखी गई। पूज्यश्री ने दोनों समय जनता को दर्शन देकर जतना को तृप्त किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १११ ? "अभिषेक दर्शन" मैंने देखा, कि महाराज एकाग्र चित्त हो जिनेन्द्र भगवान की छवि को ही देखते थे। इधर-उधर उनकी निगाह नहीं पड़ती थी। मुख से थके मादे व्यक्ति के सामान शब्द नहीं निकलता था। तत्वदृष्टि से विचार किया जाय, तो कहना होगा कि शरीर तो पोषक सामग्री के आभाव में शक्ति तथा सामर्थ्य रहित हो चुका था, किन्तु अनन्तशक्ति पुञ्ज आत्मा की सहायता उस शरीर को मिलती थी, इससे ही वह टिका हुआ था। और आत्मदेव की आराधना में सहायता करता था। सल्लेखना के ३० वें उपवास के लगभग महाराज ने मंदिर जाकर भगवान के दर्शन कर अभिषेक देखा। अंतिम क्षण के पूर्व जिनेन्द्र देव के अभिषेक के गंधोदक को भक्तिपूर्वक ग्रहण किया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन आगमप्राण साधुराज की दृष्टि में अभिषेक का अवर्णनीय मूल्य था। इधर श्रेष्ठ समाधि धारणरूप निश्चय दृष्टि और इधर जिनेन्द्र भक्ति आदि रूप व्यवहार दृष्टि द्वारा आचार्य महाराज की जीवनी अनेकांत भाव को धोषित करती थी। ?तेईसवां दिन - ५ सितम्बर १९५५? आज सल्लेखना का तेईसवां दिन है। आशक्ति बढ़ती जाती है। फलतः खड़े होने और बैठने में भी सहारा लेना पड़ता था। फिर भी दोपहर में दो मिनिट के लिए बाहर आये, और जनता को शुभाशीर्वाद देकर तृप्त किया। सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११० ? "जल का भी त्याग" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दो-तीन माह से शरीर से अत्यंत विमुख वृत्ति हो गई थी। दूरदर्शी तथा विवेकी साधु होने के कारण उन्होंने जल ग्रहण की छूट रखी थी, "किन्तु चार सितम्बर को अंतिम बार जल लेकर उससे भी सम्बन्ध छोड़ दिया था। जगत में बहुत से लोग उपवास करते हैं। वे कभी तो फलाहार करते है कभी रस ग्रहण करते हैं, कभी औषधि लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी प्रकार से शरीर को पोषण प्रदान करते हैं। यहाँ इन आत्मयोगी का उपवास जगत के लोगों से निराला था। शरीर को स्फूर्ति देने के लिए घी, तेल आदि की मालिश का पूर्ण परित्याग था। सभी प्रकार की भोज्य वस्तुएं छूट गयी थी। उन्होंने जब भी जल लिया था, तब दिगंबर मुनि की आहार ग्रहण करने की विधि पूर्वक ही उसे ग्रहण किया था। खड़े होकर, दूसरे का आश्रय ना ले, अपने हाथ की अंजुलियों द्वारा थोडा सा जल मात्र लिया था चार सितम्बर को उक्त स्थिति में इन्होंने चार-छह अंजुली जल लिया था, परन्तु तीस दिन के अनाहार शरीर को खडे रखकर जल लेने की क्षमता भी उस देह में नहीं रही थी। वास्तव में ८४ वर्ष के वृद्ध तपस्वी के शरीर द्वारा ऐसी साधना इतिहास की दृष्टि से भी लोकोत्तर मानी जायेगी। ? बाइससवाँ दिन - ४ सितम्बर१९५५? आज पूज्यश्री ने अंतिम जल ग्रहण किया, लेकिन अशक्ति बढ़ जाने के कारण बहुत थोडा जल लिया और बैठ गए। दोपहर में २|| बजे बहुत जोरों की वर्षा हुई, फिर भी आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों के लिए जनता पानी में बराबर बैठी रही, फिर भी आचार्यश्री ने २ मिनिट के लिए उपस्थित जनता को दर्शन दिए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १०९ ? "मुनिबन्धु को सन्देश" उस समय ९२ वर्ष की वय वाले मुनिबन्धु चरित्र चूड़ामणि श्री १०८ वर्धमान सागर महाराज के लिए पूज्यश्री ने सन्देश भेजा था कि- "अभी १२ वर्ष की सल्लेखना के ६-७ वर्ष तुम्हारे शेष हैं। अतः कोई गड़बड़ मत करना। जब तक शक्ति है तब तक आहार लेना। धीरज रखकर ध्यान किया करना। हमारे अंत पर दुखी नहीं होना और परिणामों में विगाड मत लाना। शक्ति हो तो समीप में विहार करना। नहीं तो थोड़े दिन शेडवाल बस्ती में और थोड़े दिन शेडवाल के आश्रम में समय व्यतीत करना। अपने घराने में पिता, पितामह आदि सभी सल्लेखना करते आये हैं, इसी प्रकार तुम भी उस परम्परा का रक्षण करना। इससे स्वर्ग-मोक्ष मिलता है। अच्छे भाव से ध्यान करते गए, तो स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, इसमे संदेह नहीं है।" ?इक्कीसवाँ दिन - ३ सितम्बर १९५५ ? आज पूज्यश्री ने जल लिया। दोपहर में पाँच मिनिट को आचार्यश्री बाहर आये और जनता को दर्शनों का पुण्यलाभ कराया। दोपहर में पं. जगमोहनजी शास्त्री कटनी, पं. मख्खनलालजी शास्त्री मोरेना, ब. राजकुमारसिंहजी इंदौर, पं. सुमेरचंद जी दिवाकर आदि ने उपस्थित जनता को संबोधा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  25. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १०८ ? "आध्यात्मिक सूत्र" एक दिन दिवाकरजी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी के सम्मुख आचार्य माघनन्दी रचित आध्यात्मिक सूत्रो को पढ़ने लगा। उन्होंने कहा- "महाराज देखिये ! जिस आत्मस्वरुप के चिन्तवन में आप संलग्न हैं और जिसका स्वाद आप ले रहे हैं उसके विषय में आचार्य के सूत्र बड़े मधुर लगते है, चिदानंद स्वरूपोहम (मै चिदानंद स्वरुप हूँ), ज्ञानज्योति-स्वरूपोहम (मै ज्ञान ज्योति स्वरुप हूँ), शुद्धआत्मानुभूति-स्वरूपोहम (मै शुद्ध आत्मानुभूति स्वरुप हूँ), अनंतशक्ति-स्वरूपोहम (मैं अनंत स्वरुप हूँ), कृत्कृत्योंहम (मै कृत-कृत्य हूँ), सिद्धम स्वरूपोहम (मै सिद्ध स्वरुप हूँ), चैतन्यपुंज-स्वरूपोहम (मै चैतन्यपुंज रूप हूँ)......... इसे सुनकर महाराज ने कहा- "यह कथन भी आत्मा का यथार्थ रूप नहीं बताता है। अनुभव की अवस्था दूसरे प्रकार की होती है। जब आत्मा ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण है, तब बार-बार 'अहं' क्या कहते हो। मै जो हूँ सो हूँ। बार-बार 'मैं', 'मैं' क्यों कहते हो।" यह कहकर गुरुदेव चुप हो गए। उक्त कथन महायोगी के अनुभव पर आश्रित था। उनकी गंभीरता मनीषियों के मनन योग्य है। ? बीसवाँ दिन - २ सितम्बर १९५५ ? आज चार दिन के बाद जल ग्रहण किया। साढ़े तीन बजे दिन में आचार्यश्री १० मिनिट को गुफा से बाहर आये थे और जनता को दर्शनों का पुण्यलाभ कराया था। आज के दिन पंडित जगमोहनलालजी शास्त्री दर्शनार्थ पधारे। आपका दोपहर में सम्बोधन वा रात्रि में शास्त्र प्रवचन हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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