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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में लेखक द्वारा सल्लेखनारत पूज्य शान्तिसागर महराज के साधना के अंतिम दिनों में उपदेशों को चिरकाल के लिए संरक्षित किए जाने के लिए, किए जाने वाले प्रयासों का मार्मिक उल्लेख किया है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५७ ? "मंगलमय भाषण की विशेष बात" ८ सितम्बर सन् १९५५ को सल्लेखनारत पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महराज का २६ वें दिन जो मंगलमय भाषण रिकार्ड हो सका, इसकी भी अद्भुत कथा है। नेता बनने वाले लोग कहते थे, अब समय चला गया। महराज इतने अशक्त हो गए हैं कि उनकी वाणी का रिकार्ड तैयार करना असंभव है। मैंने कहा- "सचमुच में उपदेश नहीं मिलेगा, ऐसा ९९ प्रतिशत समझकर भी यंत्र को लाना चाहिए। शायद एक प्रतिशत भी संभावना सत्य हो जाए।" कुछ भाइयों के प्रयत्न से रिकार्ड की मशीन लेकर इंजीनियर आ गया। उस समय महराज के पास पं. मख्खनलालजी मुरैना और मै पहुँचे। उनसे कुछ थोड़े से शब्दों से सारपूर्ण बात कहने की प्रार्थना की। उस समय महराज के थके शरीर से ये शब्द निकले- "अरे ! पहले लाये होते, तो दसों उपदेश दे देते।" इन शब्दों का क्या उत्तर था? मस्तक लज्जा से नत था। सचमुच में ऐसी भूल का क्या इलाज हो सकता है। धर्म प्रभावना के महत्वपूर्ण कार्यों में ऐसी अज्ञानतापूर्ण चेष्टाएँ हुआ करती हैं। मन में आया- 'देखो ! पूज्यश्री की जयंती मनाने में, उनके लिए गजट का विशेषांक निकालने में धार्मिक संस्था जैन महासभा ने पैसे को पानी मानकर खर्च किया, किन्तु इस दिशा में जगाए जाने पर भी समर्थ भक्तों के नेत्र न खुले। यथार्थ में देखा जाए तो इसमें दोष किसी किसी का नहीं है। जब दुर्भाग्य का उदय आता है, तब हितकारी और आवश्यक बातों की तरफ ध्यान नहीं जाता है।' ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५६ ? "हमारी कर्तव्य-विमुखता" आज के राजनैतिक प्रमुखों के क्षण-क्षण की वार्ता किस प्रकार पत्रों में प्रगट होती है, वैसी यदि सूक्ष्मता से इस महामना मुनिराज की वार्ताओं का संग्रह किया होता, तो वास्तव में विश्व विस्मय को प्राप्त हुए बिना नहीं रहता। पाप प्रचुर पंचमकाल में सत्कार्यों के प्रति बड़े-२ धर्मात्माओं की प्रवृत्ति नहीं होती है। वे कर्तव्य पालन में भूल जाते हैं। कई वर्षों से मैं प्रमुख लोगों से, जैन महासभा के कार्यकर्ताओं आदि से, पत्र द्वारा अनुरोध करता था कि आचार्य महराज के उपदेशों को रिकार्ड किया जाना चाहिए, किन्तु आज करते हैं, कल करते हैं, ऐसा करते-करते वह आध्यात्मिक सूर्य हमारे क्षेत्र की अपेक्षा अस्तंगत हो गया, यद्यपि उस सूर्य का उदय स्वर्गलोक में हुआ है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत कथन में लोकोत्तर व्यक्तित्व पूज्य शांतिसागरजी महराज को पुत्र के रूप में जन्म देनी वाली माँ का उल्लेख क्षुल्लिकाश्री पार्श्वमति माताजी ने किया है। निश्चित ही एक परम् तपस्वी निर्ग्रंथराज को जनने वाली माँ के जीवन चरित्र को जानकर भी अद्भुत आनंद अनुभूति होना स्वाभाविक बात है। उनकी माँ की जीवन शैली को जाकर लगता है कि एक चारित्र चक्रवर्ती बनने वाले मनुष्य को जन्म देनी वाली माता का जीवन कैसा रहता होगा। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५५ ? "पार्श्वमती अम्मा" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के लोकोत्तर जीवन-निर्माण में उनके माता-पिता की श्रेष्ठता को भी एक कारण कहना अनुचित नहीं होगा। पश्चिम के विद्वान, व्यक्ति की उच्चता में माता को विशेष कारण मानते हैं। नेपोलियन का जीवन उनकी माता से बहुत प्रभावित था। पूज्य शान्तिसागरजी महाराज की गृहस्थ जीवन में माँ सत्यवती की जीवनी लोकोत्तर थी, जिस जननी ने आचार्य शान्तिसागर और महामुनि वर्धमान सागर सदृश दो दिगंबर श्रेष्ठ तपस्वियों को जन्म दिया। ऐसे मुनियों की माँओं की तुलना योग्य कौन जननी हो सकती है? माता सत्यवती से क्षुल्लिका पार्श्वमती अम्मा का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था। ?माता सत्यवती का उज्जवल चरित्र? उक्त अम्मा ने हमें कुंथलगिरि में माता सत्यवती आदि के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें सुनाई थीं। वे कहती थी- माता सत्यवती बहुत भोली, मंदकषायी, साध्वी तथा अत्यंत सरल स्वाभाव वाली थी। प्रति दिवस एकासन करती थीं। पति की मृत्यु के पश्चात् केश कटवाकर माता ने वैधव्य दीक्षा ली थी। सफेद वस्त्र पहनती थी। यथार्थ में माता पिच्छीरहित आर्यिका सदृश थी। माता की आदत शास्त्र चर्चा करने की थी। महराज तथा कुमगोडा माता को शास्त्र सुनाते थे। माता बहुत उदार थी। उनके घर में सदा अतिथि सत्कार हुआ करता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५४ ? "संघपति का महत्वपूर्ण अनुभव" संघपति सेठ गेंदनमलजी तथा उनके परिवार का पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के संघ के साथ महत्वपूर्ण सम्बन्ध रहा है। गुरुचरणों की सेवा का चमत्कारिक प्रभाव , अभ्युदय तथा समृद्धि के रूप में उस परिवार ने अनुभव भी किया है। सेठ गेंदनमलजी ने कहा था- "महराज का पुण्य बहुत जोरदार रहा है।हम महराज के साथ हजारों मील फिरे हैं, कभी भी उपद्रव नहीं हुआ है। हम बागड़ प्रान्त में रात भर गाड़ियों से चलते थे, फिर भी विपत्ति नहीं आई। बागड़ प्रान्त के ग्रामीण ऐसे भयंकर रहते हैं कि दस रूपये के लिए भी प्राण लेने में उनको जरा भी हिचकिचाहट या संकोच नहीं होता था। ऐसे अनेक भीषण स्थानों पर हम गए है कि जहाँ से सुख-शांतिपूर्वक जाना असंभव था, किन्तु आचार्य महराज के पुण्य-प्रताप से कभी भी कष्ट नहीं देखा। वर्षा का भी अद्भुत तमाशा बहुत बार देखा। हम लोग महराज के साथ-साथ रहते थे। वर्षा आगे रहती थी, पीछे रहती थी, किन्तु महराज के साथ पानी ने कभी कष्ट नहीं दिया। उनको हर प्रकार की पुण्याई के दर्शन किए थे।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५३ ? "मार्मिक विनोद" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज सदा गंभीर ही नहीं रहते थे। उनमे विनोद भी था, जो आत्मा को उन्नत बनाने की प्रेरणा देता था। कुंथलगिरि में अध्यापक श्री गो. वा. वीडकर ने एक पद्य बनाया और मधुर स्वर में गुरुदेव को सुनाया। उस गीत की पंक्ति थी- "ओ नीद लेने वाले, तुम जल्द जाग जाना।" उसे सुनकर महराज बोले- "तुम स्वयं सोते हो और दूसरों को जगाते हो। 'बगल में बच्चा, गाँव में टेर' -कितनी अद्भुत बात है" यह कहकर वे हसने लगे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५२ ? "दिव्यदृष्टी" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का राजनीति से तनिक भी सम्बन्ध नहीं था। समाचार-पत्रों में जो राष्ट्रकथा आदि का विवरण छपा करता है, उसे वे न पढ़ते थे, न सुनते थे। उन्होंने जगत की ओर पीठ कर दी थी। आज के भौतिकता के फेर में फँसा मनुष्य क्षण-क्षण में जगत के समाचारों को जानने को विहल हो जाता है। लन्दन, अमेरिका आदि में तीन-तीन घंटों की सारे विश्व की घटनाओं को सूचित करने वाले बड़े-बड़े समाचार पत्र छपा करते हैं। आत्मा की सुधि न लेने वाले लोग अपना सारा समय शारीरिक और लौकिक कार्यो में व्यतीत करते हैं। आचार्यश्री के पास ऐसा व्यर्थ का क्षण नहीं था, जिसे वे विकथाओं की बातों में व्यतीत करें। फिर भी उनकी विशुद्ध आत्मा कई विषयों पर ऐसा प्रकाश देती थी, कि विशेषज्ञों को भी उनके निर्णय से हर्ष हुए बिना ना रहेगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५१ ? "एकांतवास से प्रेम" आचार्य महाराज को एकांतवास प्रारम्भ से ही प्रिय लगता रहा है। भीषण स्थल पर भी एकांतवास पसंद करते थे। वे कहते थे- "एकांत भूमि में आत्मचिंतन और ध्यान में चित्त खूब लगता है।" जब महराज बड़वानी पहुँचे थे, तो बावनगजा(आदिनाथ भगवान की मूर्ति) के पास के शांतिनाथ भगवान के चरणों के समीप अकेले रात भर रहे थे। किसी को वहाँ नहीं आने दिया था। साथ के श्रावकों को पहले ही कह दिया था, आज हम अकेले ही ध्यान करेंगे। ?बढ़िया ध्यान? पूज्यश्री की यह विशेषता रही है कि जहाँ एकांत रहता था, वहाँ उनका ध्यान बढ़िया होता था, किन्तु जहाँ एकांत नहीं रहता था, वहाँ भी उनका ध्यान सम्यक प्रकार से संपन्न हुआ करता था। उनका अपने मन पर पूर्ण अधिकार हो चुका था। इंद्रियाँ उनकी आज्ञाकारिणी हो गई थी। अतः उनकी आत्मा आदेश देती थी, वैसी ही स्थिति इंद्रिय तथा मन उपस्थित कर देते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५० ? "दीवान श्री लट्ठे की कार्यकुशलता" पिछले दो प्रसंगों से जोड़कर यह आगे पढ़ें। पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के चरणों को प्रणाम कर लट्ठे साहब महराज कोल्हापुर के महल में पहुँचे। महराज साहब उस समय विश्राम कर रहे थे, फिर भी दीवान का आगमन सुनते ही बाहर आ गए। दीवान साहब ने कहा, "गुरु महराज बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून बनाने को कह रहे हैं। राजा ने कहा, तुम कानून बनाओं मै उस पर सही कर दूँगा।" तुरंत लट्ठे ने कानून का मसौदा तैयार किया। कोल्हापुर राज्य का सरकारी विशेष गजट निकाला गया, जिसमें कानून का मसौदा छपा था। प्रातःकाल योग्य समय पर उस मसौदे पर राजा के हस्ताक्षर हो गए। वह कानून बन गया। दोपहर के पश्चात सरकारी घुड़सवार सुसज्जित हो एक कागज लेकर वहाँ पहुँचा, जहाँ आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज विराजमान थे। लोग आश्चर्य में थे कि अशांति और उपद्रव के क्षेत्र में विचरण करने वाले वे शस्त्र सज्जित शाही सवार वहाँ शांति के सागर के पास क्यों आए हैं? महाराज के पास पहुँचकर उन शस्त्रालंकृत घुड़सवारों ने उनको प्रणाम किया और उनके हाथ में एक राजमुद्रा अंकित बंद पत्र दिया गया। लोग आश्चर्य में निमग्न थे कि महराज के पास सरकारी कागज आने का क्या कारण है? क्षण भर में कागज पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि उसमे महराज को प्रणाम पूर्वक यह सूचित किया गया था कि उनके पवित्र आदेश को ध्यान में रखकर कोल्हापुर सरकार ने बाल-विवाह-प्रतिबंधक कानून बना दिया है। महाराज के मुख मंडल पर एक अपूर्व आनंद की आभा अंकित हो गई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४९ ? "बाल विवाह प्रतिबंधक कानून" कल के प्रसंग में हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की पावन प्रेरणा से कोल्हापुर राज्य लागू बाल विवाह प्रतिबंधक कानून के बारे में चर्चा प्रारम्भ की थी। एक बार कोल्हापुर के शहुपुरी के मंदिर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही थी। वहाँ पूज्य शान्तिसागरजी महाराज विराजमान थे। दीवान बहादुर श्री लट्ठे प्रतिदिन सायंकाल के समय महाराज के दर्शनार्थ आया करते थे। एक दिन लट्ठे महाशय ने आकर आचार्यश्री के चरणों को प्रणाम किया। महाराज ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुमने पूर्व में पुण्य किया है, जिससे तुम इस राज्य के दीवान बने हो और दूसरे राज्यों में तुम्हारी बात का मान है। मेरा तुमसे कोई काम नहीं है। एक बात है, जिसके द्वारा तुम लोगों का कल्याण करा सकते हो। कारण, कोल्हापुर के महाराज तुम्हारी बात को नहीं टालते।" दीवान बहादुर लट्ठे ने कहा- महाराज ! मेरे योग्य सेवा सूचित करने की प्रार्थना है। महराज बोले, छोटे-२ बच्चों की शादी की अनीति चल रही है। अबोध बालक, बालिकाओं का विवाह हो जाता है। लड़के के मरने पर बालिका विधवा कहलाने लगती है। उस बालिका का भाग्य फूट जाता है। इससे तुम बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाओ। इससे तुम्हारा जन्म सार्थक हो जाएगा। इस काम में तनिक भी देर नहीं हो।" कानून के श्रेष्ठ पंडित दीवान लट्ठे साहब की आत्मा आचार्य महराज की बात सुनकर अत्यंत हर्षित हुई। मन ही मन उन्होंने महाराज की उज्जवल सूझ की प्रशंसा की। गुरुदेव को उन्होंने यह अभिवचन दिया कि आपकी इच्छानुसार शीघ्र ही कार्य करने का प्रयत्न करूँगा। आगे का वृत्तांत कल के प्रसंग में.... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  10. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के प्रसंग से आपको सामाजिक कुरीति के प्रतिबन्ध की ऐसी नई बात पता चलेगी जो पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पावन आशीर्वाद से महाराष्ट्र प्रान्त कानून के रूप में लागू हुई। मुझे भी यह प्रसंग आप तक पहुचाते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि भारत में सर्वप्रथम बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रेरणा से महाराष्ट्र राज्य के कोल्हापुर प्रान्त में बना। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४८ ? "बाल विवाह प्रतिबंधक कानून के प्रेरक" भारत सरकार के द्वारा बाल-विवाह कानून निर्माण के बहुत समय पहले ही पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दृष्टि उस ओर गई थी। उसके ही प्रताप से कोल्हापुर राज्य में सर्वप्रथम बालविवाह प्रतिबंधक कानून बना था। इसकी मनोरंजक कथा इस प्रकार है। कोल्हापुर के दिवान श्री ए.बी. लट्ठे दिगंबर जैन भाई थे। श्री लट्ठे की बुद्धिमत्ता की प्रतिष्ठा महाराष्ट प्रान्त में व्याप्त थी। कोल्हापुर महाराज उनकी बात को बहुत मानते थे। श्री लट्ठे बम्बई प्रान्त के कुशल वित्त मंत्री बने थे। आगे का वृत्तांत अगले प्रसंग में..... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  11. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी द्वारा, जीवन में अधिक विनोद के परिणाम को बताने के लिए कथानक बताया है। यह प्रसंग हम सभी गृहस्थों के जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४७ ? "कथा द्वारा शिक्षा" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़वानी की तरफ विहार किया था। संघ के साथ में तीन धनिक गुरुभक्त तरुण भी थे। वे बहुत विनोदशील थे। उनका हासपरिहास का कार्यक्रम सदा चलता था। उन तीनों को विनोद में विशेष तत्पर देखकर आचार्यश्री ने एक शिक्षाप्रद कथा कही: "एक बड़ी नदी थी। उसमें नाव चलती थी। उस नौका में एक ऊँट सवार हो गया। एक तमाशे वाले का बन्दर भी उसमें बैठा था। इतने में एक बनिया अपने पुत्र सहित नाव में बैठने को आया। चतुर धीवर ने कहा- "इस समय नौका में तुम्हारे लड़के को स्थान नहीं दे सकते। वह बालक उपद्रव कर बैठेगा, तो गड़बड़ी हो जाएगी।" चालक व्यापारी ने मल्हार को समझा-बुझाकर नाव में स्थान जमा ही लिया। पैसा क्या नहीं करता। नौका चलने लगी। थोड़े देर के बाद बालक का विनोदी मन नहीं माना। बालक तो बालक ही था। उसने बन्दर को एक लकड़ी से छेड़ दिया। चंचल बन्दर उछला और ऊँठ की गर्दन पर चढ़ गया। ऊँठ घबरा उठा। ऊँठ के घबड़ाने से नौका उलट पडी और सबके सब नदी में गिर पड़े। ऐसी ही दशा बिना विचारकर प्रवृत्ति करने वालों की होती है। बच्चे के विनोद ने संकट उत्पन्न कर दिया। इसी प्रकार यदि अधिक गप्पों में और विनोद में लगोगे, तो उक्त कथा के समान कष्ट होगा। गुरुदेव का भाव यह था, कि जीवन को विनोद में ही व्यतीत मत करो। जीवन का लक्ष्य उच्च और उज्जवल कार्य करना है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४६ ? "सुख का रहस्य" एक व्यक्ति ने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के समक्ष प्रश्न किया- "महाराज ! आपके बराबर कोई दुखी नहीं है। कारण आपके पास सुख के सभी साधनों का अभाव है।" महराज ने कहा, "वास्तव में जो पराधीन है वह दुखी हैं। जो स्वाधीन हैं वह सुखी है। इंद्रियों का दास दुखी है। हम इंद्रियों के दास नहीं हैं। हमारे सुख की तुम क्या कल्पना कर सकते हो? इंद्रियों से उत्पन्न सुख मिथ्या है। आत्मा के अनुभव द्वारा प्राप्त सुख की तुलना में वह नगण्य है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४५ ? "गृहस्थ जीवन पर चर्चा" अपने विषय में पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा- "हम अपनी दुकान में ५ वर्ष बैठे। हम तो घर के स्वामी के बदले में बाहरी आदमी की तरह रहते थे।" ?उदास परिणाम? उनके ये शब्द बड़े अलौकिक हैं- "जीवन में हमारे कभी भी आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं हुए। घर में रहते हुए हम सदा उदास भाव में रहते थे। हानि-लाभ, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि के प्रसंग आने पर भी हमारे परिणामों में कभी भी क्लेश नहीं हुआ।" "हमने घर में ५ वर्ष पर्यन्त एकासन की और ५ वर्ष पर्यन्त धारणा-पारणा अर्थात एक उपवास, एक आहार करते रहे"। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  14. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग से पूज्यश्री के कथन से जीवन में निमित्त का महत्व बहुत आसानी से समझ में आता है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४४ ? "निमित्त कारण का महत्व" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "निमित्त कारण भी बलवान है। सूर्य का प्रकाश मोक्ष मार्ग में निमित्त है। यदि सूर्य का प्रकाश न हो तो मोक्षमार्ग ही न रहे। प्रकाश के अभाव में मुनियों का विहार-आहार आदि कैसे होंगे?" उन्होंने कहा- "कुम्भकार के बिना केवल मिट्टी से घट नहीं बनता। इसके पश्चात उसका अग्निपाक भी आवश्यक है।" जो निमित्त कारण को अकिंचित्कर मानते हैं, वे आगम और अनुभव तथा युक्तिविरुद्ध कथन करते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग उपवास के सम्बन्ध में श्रेष्टचर्या के धारक परम तपस्वी महान आचार्य निग्रंथराज पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के श्रेष्ठ अनुभव को व्यक्त करता है। इस प्रसंग को पढ़कर, निरंतर अपने कल्याण की भावना से उपवास करने वाले श्रावकों को अत्यंत हर्ष होगा एवं रूचि पूर्वक पढ़ने वाले अन्य सभी श्रावकों के लिए उपवास के महत्व को समझने के साथ आत्मकल्याण हेतु दिशा प्राप्त होगी। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४३ ? "महाराज का अनुभव" प्रश्न - "उपवास से क्या लाभ होता है? क्या उससे शरीर को त्रास नहीं होता है?" उत्तर - "आहार का त्याग करने से शरीर को कष्ट क्यों नहीं होगा? लंबे उपवासों के होने पर शरीर में स्थिलता आना स्वाभाविक बात है। फिर उपवास क्यों किया जाता है, यह पूंछो, तो उसका उत्तर यह होता है कि उपवास द्वारा मोह की मंदता होती है। उपवास करने से शरीर नहीं चलता। जब शरीर की सुधि नहीं रहती है, तो रुपया-पैसा, बाल-बच्चों की भी चिंता नहीं सताती है। उस समय मोह भाव मंद होता है, आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। अपने शरीर की चिंता छूटती है, तब दूसरों की क्या चिंता रहेगी?" इस विषय के स्पष्टीकरनार्थ महराज ने एक घटना बताई - "एक समय एक हौज में पानी भरा जा रहा था, एक बंदरिया अपने बच्चे को कंधे पर रखकर उस हौज में थी। जैसे-जैसे पानी बढ़ता जाता था, वह गर्दन तक पानी आने के पूर्व बच्चे को कंधे पर रखकर बचाती रही, किन्तु जब जल की मात्रा बड़ गई और स्वयं बदरिया डूबने लगी, तो उसने बच्चे को पैर के नीचे दबाया और उस पर खड़ी हो गई, जिससे वह स्वयं ना डूब पावे। इतना अधिक ममत्व स्वयं के जीवन पर होता है। उस शरीर के प्रति मोह भाव उपवास में छूटता है। यह क्या कम लाभ है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४२ ? "शासन का दोष" वर्तमान देश के अनैतिक वार्तावरण पर चर्चा चलने पर पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था, "इस भ्रष्टाचार में मुख्य दोष प्रजा का नहीं है, शासन सत्ता का है। गाँधीजी ने मनुष्य पर दया के द्वारा लोक में यश और सफलता प्राप्त की और जगत को चकित कर दिया। इससे तो धर्म गुण दिखाई देता है। यह दया यदि जीवमात्र पर हो जाये तो उसका मधुर फल अमर्यादित हो जायेगा। आज तो सरकार जीवों के घात में लग रही है यह अमंगल रूप कार्य है, भगवान की वाणी "हिंसा-प्रसुतानि सर्वदुःखानि"-समस्त कष्टों का कारण हिंसात्मक जीवन है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४१ ? "दीनों के हितार्थ विचार" कुंथलगिरी में पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने गरीबों के हितार्थ कहा था- "सरकार को प्रत्येक गरीब को जिसकी वार्षिक आमदनी १२० रूपये हो, पाँच एकड़ जमीन देनी चाहिए और उसे जीववध तथा मांस का सेवन न करने का नियम कराना चाहिए। इस उपाय से छोटे लोगों का उद्धार होगा।" महराज के ये शब्द बड़े मूल्यवान हैं- "शूद्रों के साथ जीमने से उद्धार नहीं होता। उनको पाप से ऊपर उठाने से आत्मा का उद्धार होता है। जब तक पाप-प्रवृत्तियों से जीव को दूर कर पुण्य की ओर उसका मन नहीं खींचा जाएगा, तब तक उसका कैसे उद्धार होगा?" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४० ? "वृद्धा की समाधि" कुंथलगिरी में सन् १९५३ के चातुर्मास में लोणंद के करीब ६० वर्ष वाली बाई ने १६ उपवास किए थे, किन्तु १५ वे दिन प्रभात में विशुद्ध धर्म-ध्यानपूर्वक उनका शरीरांत हो गया। उस वृद्धा के उपवास के बारे में एक बात ज्ञातव्य है। उसने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज से १६ उपवास माँगे तब महराज ने कहा- "बाई ! तुम्हारी वृद्धावस्था है। ये उपवास नहीं बनेंगे। उसने आग्रह किया और कहा, महाराज ! मै प्राण दे दूँगी, प्रतिज्ञा भंग नहीं करुँगी। महाराज ने उपवास दे दिए। उस वृद्धा ने प्राण त्याग दिए, किन्तु व्रत भंग नहीं किया। हम स्वयं वहाँ थे। अद्भुत शांति, निर्मलतापूर्वक उसका समाधिमरण हुआ था। महराज ने उसके शोकाकुल कुटुम्बियों से कहा था- "हम निश्चय से कहते हैं, उस बाई ने देव पर्याय पाई। इतने उपवास से प्राप्त विशुद्धता और निर्वाण भूमि का योग सामान्य लाभ नहीं है। इसके विषय में तुम लोगों के शोक करने का क्या मतलब?" महाराज के थोड़े से प्रबोधपूर्ण शब्दों ने कुटुम्बियों का सारा दुःख धो दिया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३९ ? "दयापूर्ण दॄष्टि" लोग पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज को आहार देने में गड़बड़ी किया करते थे, इस विषय में मैंने(लेखक ने) श्रावकों को समझाया कि जिस घर में महराज पड़गाहे जाए, वहाँ दूसरों को अनुज्ञा के नहीं जाना चाहिए, अन्यथा गड़बड़ी द्वारा दोष का संचय होता है। मै लोगों को समझा रहा था, उस प्रसंग पर आचार्यश्री की मार्मिक बात कही थी। महाराज बोले- "यदि हम गडबड़ी को बंद करना चाहें, तो एक दिन में सब ठीक हो सकता है। यदि एक घर के भोज्य पदार्थ का नियम ले लिया, तब क्या गडबड़ी होगी? लोगों का मन न दुखे और हमारा कार्य हो जाए, हम ऐसा कार्य करते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३८ ? "निर्वाण-भूमि का प्रभाव" प्रश्न - "महाराज ! पाँच-२ उपवास करने से तो शरीर को कष्ट होता होगा?" उत्तर- "हमें यहाँ पाँच उपवास एक उपवास सरीखे लगते हैं। यह निर्वाण भूमि का प्रभाव है। निर्वाण-भूमि में तपस्या का कष्ट नहीं होता है। हम तो शक्ति देखकर ही तप करते हैं।" ?मौन से लाभ? प्रश्न- "महाराज ! मौन व्रत से आपको क्या लाभ पहुँचता है?" उत्तर- "मौन करने से संसार से आधा सम्बन्ध छूट जाता है। सैकड़ों लोगों के मध्य घिरे रहने पर भी ऐसा लगता है, मानो हम अपनी कुटी में ही बैठे हों। उससे मन की शांति बहुत बड़ती है। मन आत्मा के ध्यान की ओर जाता है। वचनालाप में कुछ ना कुछ सत्य का अतिक्रमण भी होता ही है, मौन द्वारा सत्य का संरक्षण भी होता है। चित्तवृत्ति बाहरी पदार्थों की ओर नहीं दौड़ती है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३७ ? "कुंथलगिरी पर्यूषण" कुंथलगिरी में पूज्य आचार्य शान्तिसागर महाराज के चातुर्मास में पर्यूषण पर्व पर तारीख १२ सितम्बर सन् १९५३ से तारीख २६ सितम्बर सन् १९५३ तक रहने का पुण्य सौभाग्य मिला था। उस समय आचार्यश्री ने ८३ वर्ष की वय में पंचोपवास् मौन पूर्वक किए थे। इसके पूर्व भी दो बार पंचोपवास् हुए थे। करीब १८ दिन तक उनका मौन रहा था। भाद्रपद के माह भर दूध का भी त्याग था। पंचरस तो छोड़े चालीस वर्ष हो गए। ?घोर तप? प्रश्न - "महाराज ! घोर तपश्या करने का क्या कारण है?" उत्तर - "हम समाधीमरण की तैयारी कर रहे हैं। सहसा आँख की ज्योति चली गई, तो हमे उसी समय समाधि की तैयारी करनी पड़ेगी। कारण, उस स्थिति में समीति नहीं बनेगी, अतः जीवरक्षा का कार्य नहीं बनेगा। हम तप उतना ही करते हैं, जितने में मन की शांति बनी रहे।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३६ ? "सुन्दर प्राश्चित" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का अनुभव और तत्व को देखने की दृष्टि निराली थी। एक बार महाराज बारामती में थे। वहाँ एक संपन्न महिला की बहुमूल्य नाथ खो गई। वह हजारों रूपये की थी। इससे बडो-२ पर शक हो रहा था। अंत में खोजने के बाद उसी महिला के पास वह आभूषण मिल गया। वह बात जब महाराज को ज्ञात हुई, तब महाराज ने उस महिला से कहा- "तुम्हे प्रायश्चित लेना चाहिए। तुमने दूसरों पर प्रमादवश दोषारोपण किया।" उसने पूंछा- "क्या प्रायश्चित लिया जाए?" महाराज ने कहा- "यहाँ स्थित जिन लोगों पर तुमने दोष की कल्पना की थी, उनको भोजन कराओ।" महाराज के कथनानुसार ही कार्य हुआ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३५ ? "असाधारण व्यक्तित्व" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता। एक दिन महाराज ने कहा था- हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर हुक्म नहीं चलाती हैं।" उन्होंने कहा था- "अब प्राणी संयम अर्थात पूर्णरूप से जीवों की रक्षा पालन करना हमारे लिए कठिन हो गया है। कारण नेत्रों की ज्योति मंद हो रही है। अतः सल्लेखना की शरण लेनी पड़ेगी। हमें समाधी के लिए किसी को णमोकार तक सुनाने की जरुरत नहीं पड़ेगी। ? स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३४ ? "विनोद में संयम की प्रेरणा -२" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रत्येक चेष्ठा संयम को प्रेरणा प्रदान करती थी। उनको विनोद में भी आत्मा को प्रकाश दायिनी सामग्री मिला करती थी। २८ अगस्त ५५ को क्षुल्लक सिध्दसागर की दीक्षा हुई थी। नवीन क्षुल्लक जी ने महाराज के चरणों में आकर प्रणाम किया और महाराज से क्षमायाचना की। महाराज बोले- "भरमा ! तुमको तब क्षमा करेंगे, जब तुम निर्ग्रन्थ दीक्षा लोगे।" ऐसी ही कल्याणकारी मधुर वार्ता एक कोल्हापुर के भक्त बाबूलाल मार्ले की है जो हम पहले देख चुके है। जब पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज का कमण्डलु पकड़ने का प्रसंग आया तो पूज्यश्री ने संयम की प्रेरणा देते हुए विनोदवश कहा "यदि दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा करने का इरादा हो, तो कमण्डलु लेना, नहीं तो हम अपना कमण्डलु स्वयं उठवेंगे।" वे श्रावक बोले- "महाराज ! कुछ वर्षो के बाद अवश्यमेव मै क्षुल्लक की दीक्षा लूँगा। महाराज को संतोष हुआ। उस व्यक्ति की होनहार अच्छी होने से उसने कहा- "महाराज, मै सप्तम प्रतिमा लेता हूँ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  25. ☀सात तत्वों की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले श्रावक इस प्रसंग को पढ़कर बहुत ही आनंद का अनुभव करेंगे। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १३३ ? "सप्ततत्व निरूपण का रहस्य" एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न पूंछा गया- "भेद विज्ञान हो तो सम्यक्त्व है; अतः आत्मतत्व का विवेचन करना आचार्यों का कर्तव्य था, परंतु अजीव, आश्रव बन्धादि का विवेचन क्यों किया जाता है? उत्तर- "रेत की राशि में किसी का मोती गिर गया। वह रेत के प्रत्येक कण को देखते फिरता है। समस्त बालुका का शोधन उसके लिए आवश्यक है; इसी प्रकार आत्मा का सम्यक्त्व रूप रत्न खो गया है। उसके अन्वेषण के लिए, अजीव, आश्रव, बन्धादि का परिज्ञान आवश्यक है। इस कारण सप्ततत्व का निरूपण सम्यक्तवी के लिए हितकारी है।" आत्मा की प्राप्ति होने के बाद उसे अपने स्वरूप में रहना है, फिर बाहर भटकना प्रयोजन रहित है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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