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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १८२ ? "मधुर तथा संयत जीवन" बाल्य अवस्था में सातगौड़ा का गरीब-अमीर सभी बालकों पर समान प्रेम रहता था। साथ के बालकों के साथ कभी भी लड़ाई झगड़ा नहीं होता था। उन्होंने कभी भी किसी से झगड़ा नहीं किया। उनके मुख से कभी कठोर वचन नहीं निकले। बाल्य-काल से ही वे शांति के सागर थे, मितभाषी थे। उनकी खान-पान में बालकों के समान स्वछन्द वृत्ति नहीं थी। जो मिलता उसे वे शांत भाव से खा लिया करते थे। बाल्यकाल में बहुत घी दूध खाते थे। पाव, ढ़ेड़ पाव घी वे हजम कर लेते थे। आज की महान तपस्चर्या में वही संचित बल काम करता है। सब लोग उनको अप्पा (दादा) कहते थे। वे सादे वस्त्र पहनते थे। खादी का बना १२ बंदी वाला अंगरखा पहनते थे। माता सत्यवती सूत कातती थी। इससे यह खादी बनती थी। वे सदा फैटा बांधते थे। वे तकिये से टिककर नहीं बैठते थे। तकिए से दूर आश्रय विहीन बैठते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ☀ चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के प्रसंगों को जानकर आपके जीवन में कुछ परिवर्तन आया हो या आपने चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ को पढ़ना प्रारंभ कर दिया हो अथवा कोई अन्य रोचक बात हो तो आप अपनी अनुभूति 9321148908 व्हाट्सउप नंबर पर शेयर करें, ताकि प्रतिदिन चल रही श्रृंखला के परिणामो का अध्यन किया जा सके।
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?वीतराग प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - १८१
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में पूज्यश्री का गृहस्थ जीवन से ही अद्भुत वैराग्य दृष्टिगोचर होगा। वर्तमान में हम सभी को नजदीक में मुनियों का पावन सानिध्य भी संभव हो जाता है लेकिन सातदौड़ा का साधुओं की अत्यंत अल्पता के साथ यह वैराग्य भाव उनकी महान भवितव्यता का स्पष्ट परीचायक हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८१ ? "वीतराग-प्रवृत्ति" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज प्रारम्भ से ही वीतराग प्रवृत्ति वाले थे। घर में बहन की शादी में या कुमगौड़ा की शादी में शामिल नहीं हुए थे। उनकी स्मरण शक्ति सबको चकित करती थी। कभी उन्हें प्रमाद या भूल के कारण शिक्षकों ने दण्ड नहीं दिया। अध्यापक इनके क्षयोपशम की सदा प्रशंसा करते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ☀ जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करने से जीवन में शांति व ह्रदय में आनंद का संचार होता है अतः हम सभी को प्रतिदिन देवदर्शन करने का प्रयास करना चाहिए। -
?येलगुल में जन्म - अमृत माँ जिनवाणी से - १८०
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८० ? "येलगुल में जन्म-१" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जन्म के बारे में पूज्य वर्धमानसागर जी महराज ने बताया था कि भोजग्राम से लगभग तीन मील की दूरी पर येलगुल ग्राम है। वहाँ हमारे नाना रहते थे। उनके यहाँ ही महराज का जन्म हुआ था। महराज के जन्म की वार्ता ज्ञात होते ही सबको बड़ा आनंद हुआ था। ज्योतिष से जन्मपत्री बनवाई गई। उसने बताया था कि यह बालक अत्यंत धार्मिक होगा। जगतभर में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा तथा संसार के प्रपंच में नहीं फसेगा। महराज ने यह भी बतलाया था कि आचार्य महराज का शरीर अत्यंत निरोग था। कभी भी इनका मस्तक भी नहीं दुखता था। हाँ, एक बार तीन वर्ष की अवस्था में ये बहुत बीमार हो गए थे। रक्त के दस्त होते थे। उस समय इनका जीवन रहता है या नहीं, ऐसी चिंता पैदा हो गई थी। किन्तु एक बाई ने दवा दी, उससे ये अच्छे हो गए। इसके सिवाय और कोई रोग नहीं हुआ। पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जन्म आदि के सन् आदि जानकारी स्मरण हेतु प्रसंग क्रमांक १५ देंखें। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? -
?लोकस्मृति -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - १७९
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - १७९ ? "लोकस्मृति-१" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई जो उस समय वर्धमानसागर के रूप में थे ने बताया, "हमारे माता-पिता महान धार्मिक थे। धार्मिक पुत्र सातगौड़ा अर्थात महराज पर उनकी विशेष अपार प्रीति थी। महराज जब छोटे शिशु थे, तब सभी लोगों का उन पर बड़ा स्नेह था। वे उनको हाँथो-हाथ लिए रहते थे। वे घर में रह ही नहीं पाते थे। मैंने पूंछा, "स्वामिन् संसार के उद्धार करने वाले महापुरुष जब माता के गर्भ में आते हैं, तब कुछ शुभ-शगुन कुटुम्बियों आदि को दिखते हैं? माता को भी मंगल स्वप्न आदि का दर्शन होता है। आचार्य महराज सदृश रत्नत्रय धारकों की चूडामणि रूप महान विभूति का जन्म कोई साधारण घटना नही है। कुछ ना कुछ अपूर्व बात अवश्य हुई होगी?" उन्होंने बताया, "उनके गर्भ में आने पर माता को दोहला हुआ था कि एक सहस्त्र दल वाले एक सौ आठ कमलों से जिनेन्द्र भगवान को पूजा करूँ। यह वृत्तान्त प्रसंग क्रमांक १८ में भी दिया गया है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? -
?लोकस्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १७८
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, अब आपके सम्मुख "चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ" के लोकस्मृति नामक अध्याय से सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन की विभिन्न बातों के बारे में लेखक को जानकारी प्राप्त होना अत्यन्त कठिन कार्य था। इस और आगे के प्रसंगों मे आपको यही जानकारी प्राप्त होगी की लेखक ने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के जीवन की विभिन्न जानकारियाँ कैसे जुटाई व वह जानकारियाँ क्या थीं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १७८ ? "लोकस्मृति" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के साधु बनने के पूर्व का जीवन किस प्रकार का रहा, इस विषय मे उन निस्पृह तथा तत्वदर्शी महान आत्मा से विषय सामग्री प्राप्त करना असंभव देख, हमने उनकी निवास-भूमि आदि में विद्यमान व्यक्तियों के पास पहुँचकर सन् १९५२ में प्रत्यक्ष चर्चा की एवं विविध प्रश्नों के फलस्वरूप कुछ महत्वपूर्ण बातें अवगत की। जानकारी देने वालों में मुख्य स्थान आचार्य महराज के ज्येष्ठ बंधु मुनि १०८ श्री वर्धमान सागरजी महराज से प्राप्त सामग्री का है, जो बड़ी कठिनता और सतप्रयत्न से प्राप्त से प्राप्त हुई। भोजग्राम के वृद्ध लोगों से वर्धमान स्वामी के सौरभ सम्पन्न जीवन की वार्ता विदित हुई। प्रमाणिकता, लोकोपकार, दीन-दुखी एवं सत्पात्रों की सेवा-प्ररायण् आदि उनके विशेष गुण थे। उनका स्वभाव बड़ा मधुर था। उनके संपर्क में आते ही हमे ऐसा लगा मानों हम हिमालय के समीप आ गए हों। दो दिन उनके पास रहकर, जो कुछ सामग्री एकत्रित की जा सकी, वह इस प्रकार है। वे तत्वदर्शी, वीतरागी, महामुनि थे, अतः कुटुम्ब की चर्चा करना उनकी आत्मा को अनुकूल नहीं लगता था, फिर भी सौभाग्य से जो कुछ भी अल्प सामग्री ज्ञात हुई, वह अत्यंत महत्व की है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? -
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में लेखक ने सामाजिक सुधार हेतु पूज्य शांतिसागरजी महराज द्वारा प्रेरणा देने के सम्बन्ध में पूज्यजी की विशिष्ट सोच को व्यक्त किया है। प्रस्तुत प्रसंग वर्तमान परिपेक्ष्य में भी अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान में अनेको साधु भगवंतों द्वारा समाज में बड़ रही विकृतियों से बचने तथा सामाजिक कुप्रथाओं को बंद करने की प्रेरणा दी जाती है, उस सम्बन्ध में भी कुछ लोग गलत सोच सकते हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १७७ ? "आचार्यश्री व् समाजोत्थान" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज प्रेरणा से बहुत सारे समाज उत्थान के कार्य भी सम्पादित हुए। कोई व्यक्ति यह कहे इनको तो आत्मा की चर्चा करनी चाहिए थी, इन सामाजिक विषयों में साधुओं को पड़ने की क्या जरुरत है? यह भी कहें कोई-कोई साधु अपने को उच्च स्तर का बताने के उद्देश्य से सामाजिक हीनाचार (जैसे विधवा विवाहादि) का विरोध नहीं करते हैं और जनता की प्रशंसा की अपेक्षा करते पाये जाते हैं। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ऐसी सोच को समर्थन नहीं था। इस विषय में उनका चिंतन इस प्रकार था- जिन समाज हित की बातों का धर्म से सम्बन्ध है, उनके विषय में यदि प्रभावशाली साधु सन्मार्ग का दर्शन ना करें, तो स्वच्छंद आचरण रूपी बाघ धर्मरूपी बछड़े का भक्षण किए बिना न रहेगा। इन सन्मार्ग के प्रभावक प्रहरियों के कारण ही समाज का शील और संयमरूपी रत्न कुशिक्षा तथा पाप-प्रचाररूपी डाकुओं से लुटे जाने से बच गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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?सर्वप्रियता - अमृत माँ जिनवाणी से - १७६
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज का प्रसंग एक रोचक प्रसंग है। सामान्यतः पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र की जिज्ञासा रखने वाले श्रावकों के मन में उनके विवाह के सम्बन्ध में जिज्ञासा रहती है। पहले के समय में बालविवाह की कुप्रथा प्रचलित थी। बाल विवाह की प्रथा के अनुरूप ही नौ वर्ष के बालक सातगौड़ा का विवाह भी कम उम्र में ही कर दिया। पूर्व प्रसंग से हम सभी को ज्ञात है कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज की प्रेरणा से ही कोल्हापुर राज्य में देश में प्रथम बार बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बना। बालक सातगौड़ा के विवाह की जानकारी नीचे प्रसंग को पढ़कर जानें। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १७६ ? "सर्वप्रियता" अपने सद्गुणों के कारण चरित्र नायक सात गौड़ा (गृहस्थ अवस्था में शान्तिसागरजी महराज) सर्वप्रिय थे। जब वे नौ वर्ष के हुए, तब माता-पिता ने ६ वर्ष की बालिका के साथ इनका विवाह कर दिया। दैवयोग से उस लड़की का छह माह के बाद मरण हो गया। महराज ने बताया था कि हमने उसे अपनी स्त्री के रूप में कभी नही जाना। पहले माता-पिता अपने मनोविनोद को प्रमुख बना घर में पुत्रवधु लाने की ममता, मोह के कारण छोटी सी अवस्था में, जबकि सचमुच दूध के दाँत नही टूटते थे, विवाह कर दिया करते थे। गाँधी जी का विवाह तेरह वर्ष की आयु में हो गया था। गाँधीजी लिखते हैं कि तेरह वर्ष की आयु में मेरी शादी हुई थी, यह कहते हुए मुझे बहुत खेद होता है। आज के दिन मेरे समक्ष बारह तेरह वर्ष के जो लड़के मौजूद हैं, उन्हें देखकर और अपने विवाह की बात सोचकर, मुझे अपनी उस अवस्था पर दया आती है और जिन्होंने इस उम्र में शादी नहीं की, उन्हें बधाई देने को जी चाहता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज आपको पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उस समय के प्रसंग का वर्णन करते हैं जब पूज्य शान्तिसागरजी महराज तीर्थराज शिखरजी की वंदना की श्रृंखला में वीर निर्वाण भूमि पावापुरीजी पहुँचे थे। लेखक के निर्वाण भूमि के वर्णन के पठन के उपरांत आप भी इस प्रकार अनुभव करेंगे कि आपने भी अभी-२ पावापुरीजी की वंदना की हो। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १७५ ? "वीर निर्वाण भूमि पावापुरी पहुँचना" राजगिरी की वंदना के पश्चात् संघ ने महावीर भगवान के निर्वाण से पुनीत पावापुरी की ओर प्रस्थान किया। जब पावापुरी का पुण्य स्थल समीप आया, तब वहाँ की प्राकृतिक शोभा मन को अपनी ओर आकर्षित करने लगती है। जल मंदिर के भीतर भगवान महावीर प्रभु के चरण चिन्ह विराजमान हैं। तालाब लगभग आधा मील लम्बा तथा उतना ही चौड़ा होगा। उस सरोवर में सदा मनोहर सौरभ संपन्न कमल शोभायमान होते हैं। मध्य का मंदिर श्वेत संगमरमर का बड़ा मनोज्ञ मालूम होता है। पूर्णिमा की चाँदनी में उसकी शोभा और भी प्रिय लगती है। सरोवर के कारण मंदिर का सौन्दर्य बड़ा आकर्षक है। भगवान का अंतरंग जितना सुन्दर था, उनका शरीर जितना सौष्ठव संपन्न था, उतना ही बाह्य वातावरण भी भव्य प्रतीत होता है। सरोवर में बड़ी-२ मछलियाँ स्वछन्द क्रीड़ा करती हैं, उन्हें भय का लेश भी नहीं है, कारण वहाँ प्राणी मात्र को अभय प्रदान करने वाली वीर प्रभु की अहिंसा की शुभ चन्द्रिका छिटक रही है। मंदिर के पास पहुँचने के लिए सुन्दर पुल बना है। विदेशी भी पावापुरी के जल मंदिर के सौंदर्य की स्थायी स्मृति फ़ोटो के रूप में साथ ले जाया करते हैं। ?निर्वाण काल तथा आसन? पावापुरी की वंदना से बढ़कर सुखद और कौन निर्वाण स्थल होगा? यहाँ पहाड़ी की चढ़ाई का नाम निशान नहीं है, लंबा जाना नहीं है। शीतल समीर संयुक्त जलमंदिर जाने के बाद मध्य में वहाँ से निर्वाण पद प्राप्त करने वाले प्रभु वर्धमान जिनेन्द्र के चरण चिन्ह विद्यमान हैं, जो निर्वाण स्थल के स्मारक हैं। आचार्य यतिवृषभ ने लिखा है कि वीर भगवान ने कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के प्रभात काल में स्वाति नक्षत्र रहते हुए पावापुरी से अकेले ही सिद्धपद प्राप्त किया था, उनके साथ में और कोई मुनि मोक्ष नहीं गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १७४ ? "बाल ब्रह्मचारी का जीवन" जब सातगौड़ा (भविष्य के शान्तिसागरजी महराज) अठारह वर्ष के हुए तब माता पिता ने फिर इनसे विवाह की चर्चा चलाई। इन्होंने अपनी अनिच्छा प्रगट की। इस पर पुनः आग्रह होने लगा, तब इन्होंने कहा, "यदि आपने पुनः हमें गृहजाल में फसने को दबाया, तो हम मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेंगे।" इस भय से पुनः विवाह के लिए आग्रह नहीं किया गया। इस प्रकार पूज्यश्री बाल्य जीवन से ही निर्दोष ब्रम्हचर्य-व्रत का पालन करते चले आ रहे थे, अतः शरीर बड़ा बल संपन्न रहा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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?प्रज्ञापुंज - अमृत माँ जिनवाणी से - १७३
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - १७३ ? "प्रज्ञापुँज" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बारे में लोगों से ज्ञात हुआ कि इनकी प्रवृत्ति असाधारण थी। वे विवेक के पुँज थे। बाल्यकाल में बाल-सूर्य सदृश प्रकाशक और सबके नेत्रों को प्यारे लगते थे। ये जिस कार्य में भी हाथ डालते थे, उसमें प्रथम श्रेणी की सफलता प्राप्त करते थे। इनका प्रत्येक पवित्र कलात्मक कार्य में प्रथम श्रेणी भी प्रथम स्थान रहा है। अध्यन के अल्पतम साधन उपलब्ध होते हुए भी, इनका असाधारण क्षयोपशम और लोकोत्तर प्रतिभा बड़े-बड़े विद्वानों और भिन्न-भिन्न धर्मों के प्रमुख पुरुषों को चकित करती थी। यद्यपि ये विद्या के उपाधिधारी विद्वान् नहीं थे, फिर भी बड़े-बड़े उपाधिधारी ज्ञानी लोग इनके चरणों के पास आत्मप्रकाश प्राप्त करते थे। सदाचार समन्वित और प्रतिभा अलंकृत इनका जीवन यथार्थ में सौरभ संपन्न सरोज के समान था और उनके समान ही ये जलतुल्य वैभव से अपने अंतःकरण को पूर्णतया अलिप्त रखते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
?गुणराशी - अमृत माँ जिनवाणी से - १७२
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १७२ ? "गुणराशि" ग्राम के कुछ वृद्धों से पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के बाल्य जीवन आदि के विषय में परिचय प्राप्त किया, ज्ञात हुआ कि ये पुण्यात्मा महापुरुष प्रारम्भ से ही असाधारण गुणों के भंडार थे। इनका परिवार बड़ा सुखी, समृद्ध, वैभवपूर्ण तथा जिनेन्द्र का अप्रतिम भक्त था। इनकी स्मरण शक्ति जन साधारण में प्रख्यात थी। इन्होंने माता सत्यवती से सत्य के प्रति अनन्य निष्ठा और सत्यधर्म के प्रति प्राणाधिक श्रद्धा का भाव प्राप्त किया था, ऐसा प्रतीत होता है। अपने प्रभावशाली, पराक्रमी, अत्यंत उदार एवं प्रमाणिक जीवन वाले पूज्य पिता श्री भीमगौड़ा से इन्होंने वह दृढ़ता और गंभीरता प्राप्त प्राप्त की थी, जो इन्हें विपत्ति और संकट के समय भीम के समान साहस संपन्न रखती आई है। इन लोगों ने बताया कि इनमें बच्चों की विवेकहीन जघन्य प्रवृत्तियाँ नहीं पाई जाती थी। बचपन से ही इनके चिन्ह इस प्रकार के थे कि ये लोकोत्तर महापुरुष बनेंगे इसलिए ये अलौकिक बालक के रूप में प्रत्येक नर नारी के मन को अपनी ओर आकर्षित करते थे। जो भी इन्हे देखता था वह उन्हें गंभीरता, करुणा, पराक्रम और प्रतिभा का पुँज पाता था। इनका शरीर अत्यंत निरोग, सुदृढ़ व् शक्ति संपन्न था। इनकी ऐसी कोई चेष्ठा नही नहीं थी, जिसे बाल कहकर क्षमा किया जाए।बाल्यकाल में ही इनके जीवन में वृद्धों सदृश गंभीरता और विवेक पाया जाता था। इससे यह प्रतीत होता था कि ये जन्म जन्मांतर के महापुरुष इस भरतखंड के लोगों को धर्मामृत पान कराने के लिए ही बाल शरीर धारण कर भव्य भोज भूमि में आविर्भूत हुए हैं और सम्पूर्ण भावों का कल्याण करने वाले वीरशासन के धर्मचक्रधारी सत्पुरुष हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
?बालयोगी का जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १७१
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १७१ ? "बालयोगी का जीवन" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज को चारित्र का चक्रवर्ती बनना था, इसलिए इनके बाल्य जीवन में विकृतियों पर विजय की तैयारी दिखती थी। वे बालयोगी सरीखे दिखते थे। भोज ग्राम में जो शिक्षण उपलब्ध हो सकता था, वह इन्होंने प्राप्त किया था। इनकी मुख्य शिक्षा वीतराग महर्षियों द्वारा रचे गये, रत्नत्रय का वैभव बताने वाले शास्त्रों का स्वाध्याय के रूप में की थी। अनुभवजन्य शिक्षा का इनके जीवन में मुख्य स्थान था। ?अनुभवजन्य ज्ञान? अनुभव के आधार पर प्राप्त ज्ञान बड़ा खरा, सच्चा और मार्मिक होता है। अनेक प्रतापी नरेशों के विषय में कहा जाता है कि उनका ज्ञान और अनुभव सत्संगति के निमित्त से विकसित हुआ था। विश्व के विद्वानों द्वारा अपूर्व उक्ति और सूझ के लिए पूजित कबिरा-कबीरदास ने किसी को अपना गुरु बनाने का कष्ट नहीं दिया था। इस प्रकार प्रायः महापुरुष अनुभव की शाला में शिक्षण लाभ करते हुए देखे जाते हैं। आचार्यश्री की धारणा-शक्ति अद्भुत रही है। ऐसे क्षयोपशम के कारण सत्संग और शास्त्र चिंतन से उन्हें अपार लाभ पहुँचा है। आचार्य सोमदेव कहते हैं, "नरेश, अध्ययन के अभाव में भी, विशिष्ट व्यक्तियों के संपर्क द्वारा उत्कृष्ट प्रवीणता को प्राप्त करते हैं"। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
? अमृत माँ जिनवाणी से - १७० ? "ग्राम के वृद्धों से महराज की जीवन सामग्री" भोज के वृद्धजनों से तर्क-वितर्क द्वारा जो सामग्री मिली उससे पता चला, सत्पुरुषों की जननी और जनक जिस प्रकार अपूर्व गुण संपन्न होते हैं, वही विशेषता सातगौड़ा को जन्म देने वाली माता सत्यवती और भव्य शिरोमणी श्री भीमगौड़ा पाटिल के जीवन में थी। उनका गृह सदा बड़े-२ महात्माओं, सत्पुरुषों और उज्जवल त्यागियों की चरण रज से पवित्र हुआ करता था। जब भी कोई निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनिराज या अन्य महात्मा भोज ग्राम में आते तो अतिथि-संविभाग कार्य में अत्यंत प्रवीण पुण्यशाली माता सत्यवती के भवन को अवश्य पवित्र करते थे। वहाँ श्रद्धा, भक्ति, विवेक, विनय आदि सब प्रकार के आंतरिक साधन तथा वैभवशाली होने के कारण बाह्य सामग्री सदा संतों के लिए उपस्थित रहती थी। बड़े-बड़े मुनिराज तथा तपस्वी लोग भोजग्राम के भूपतितुल्य श्री भीमगौड़ा पाटील के यहाँ पधारते थे, जहाँ बालक सतगौड़ा उनकी सेवा में तत्पर रहे, उनके जीवन से धर्म के विकसित तथा परिपक्व स्वरुप को देखा करता था तथा उनके जीवन से उज्जवल जीवन बनाने की श्रेष्ठ कला सीखा करता था। यही बड़ी शिक्षा भाग्यशाली भव्य बालक को दिगंबर श्रवणों के निकट संपर्क से मिलती रही, जिसके कारण कुमार काल में ही भोगों की दासता को छोड़ तपस्वी, मुनि बनने की प्रबल लालसा मन में उत्पन्न हो गई थी। विदुषी धर्मवती माता से तीर्थंकरों का चरित्र, मोक्षगामी पुरुषों की बातें तथा रत्नत्रय को पुष्ट करने वाली शिक्षा प्राप्त हुआ करती थी। वातावरण भी अलौकिक धार्मिक मनोवृत्ति को विकासप्रद सामग्री प्रदान करता था। परिवार का उज्जवल वातावरण जीवन पर कैसा प्रभाव डालता है, वह बात भोज भूमि में हमारे स्वयं दृष्टीगोचर हुई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १६९ ? "कर्नाटक पूर्वज भूमि" एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके धार्मिक परिवार के विषय में चर्चा चलाई। सौभाग्य की बात है कि उस समय उनके पूर्वजों के बारे में भी कुछ बातें विदित हुई। महराज ने बताया था कि उनके आजा का नाम गिरिगौड़ा था। उनके यहाँ सात पीढ़ी से पाटील का अधिकार चला आता है। पाटिल गाँव का मालिक/रक्षक होता है। उसे एक माह पर्यन्त अपराधी को दण्ड देने तक का अधिकार रहता है। महराज ने यह भी बताया था कि हमारे पूर्वज सभी धार्मिक जमीदार थे। मुनितुल्य उनकी धर्म में निष्ठा रहती थी। चार ग्राम की पटिली थी। पहले हमारे पूर्वज कर्नाटक में रहते थे। वहाँ से टीपू के कारण भोज ग्राम में आए थे। मैंने पूंछा- "महराज ! व्यापार का कार्य आप कैसे चलाते थे।" महराज- "हम कपडे की दुकान पर बैठते थे। सब काम पूर्ण सत्यता के साथ करते थे। बचपन से ही हमारी सच बोलने की आदत थी। अन्याय तथा अनीति से घृणा रहती थी।" मैंने पूंछा- "महराज ! व्यापार में आपका मन तो लगता होगा ?" महराज- "हमारा मन सिवाय धर्म ध्यान के दूसरे कामों में नहीं लगता था। हम व्यापार को निरपेक्ष भाव से करते थे।" मैंने पूंछा- "इसका क्या कारण ?" महराज- "जब हमारा निश्चय था कि घर छोड़कर हमें वन में जाना है, तब उनके तल्लीनता और आसक्ति करने का क्या प्रयोजन ? इससे हम उदास भाव से काम करते थे।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज हम जानते हैं चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के गृहस्थ जीवन का नाम तथा उनके भाई बहनों के नाम आदि। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १६८ ? "परिवार व् नाम संस्कार" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन में दो ज्येष्ठ भ्राता थे, जिनके नाम आदिगोंडा और देवगोंडा थे। कुमगौड़ा नाम के अनुज थे। बहिन का नाम कृष्णा बाई था। इनके शांत भाव के अनुरूप उन्हें "सातगौड़ा" कहते थे। वर्तमान में भी उनका नाम उनकी शांत प्रकृति के अनुरूप शान्तिसागर ही है। गौड़ा शब्द भूमिपति-पाटिल का द्योतक है। पूज्यश्री अपने परिवार में तृतीय पुत्र थे। इसी से मानव प्रकृति ने इन्हें रत्नत्रय और तृतीय रत्न सम्यकचारित्र का अनुपम आराधक बनाया। ?राजवंश? इनकी वंश परम्परा का उस प्रान्त में बड़ा प्रभाव रहा है। यथार्थ में इनके पूर्वज राजा सदृश थे। पहले इनके पूर्वज श्री पद्मगौड़ा देसाई बीजापुर जिले में शालबिद्री स्थल के अधिपति थे। ब्रिटिश शासनकाल में भी अन्य नरेशों के समान इनके पूर्वजों की बात का बड़ा सम्मान किया जाता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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?वैराग्य का कारण - अमृत माँ जिनवाणी से - १६७
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १६७ ? "वैराग्य का कारण" मैंने एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा, "महराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिला होगा? साधुत्व के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी।" महराज ने कहा, "हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो। गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारम्भ से ही नहीं लगा। हमारे मन में सदा वैराग्य का भाव विद्यमान रहता था। ह्रदय बार-बार गृहवास के बंधन को छोड़ दीक्षा धारण के लिए स्वयं उत्कण्ठित होता था।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
?आदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - १६६
Abhishek Jain posted a blog entry in चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आप सभी प्रसंग के शीर्षक को पढ़कर सोचगे कि इस प्रसंग में क्या आदेश होगा? यह प्रसंग उस समय का है जब इस जीवनचरित्र के यशस्वी लेखक श्री दिवाकर जी इस भाव से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पास गए की उनके जीवनगाथा का ज्ञान प्राप्त हो और वह सभी लोगों तक पहुँचे, ताकि इन महान आत्मा के जीवन चरित्र को जानकर आगे की पीढ़ी अपना कल्याण कर सके। प्रस्तुत प्रसंग में आप एक इतने श्रेष्ट साधक के अपने प्रति निर्ममत्व को जानकर दंग रह जाएँगे। उनके जीवन में मार्दव आर्जव आदि गुणों की उचाईयों को देखकर ऐसा लगेगा कि यह ही पराकाष्ठा है गुणों की इससे अधिक ऊँचाई क्या होगी? ? अमृत माँ जिनवाणी से - १६६ ? "आदेश" सन् १९५१ में बारामती उद्यान में लेखक दिवाकरजी अपने अनुज प्रोफेसर सुशील कुमार दिवाकर के साथ बड़ी विनय के साथ, उनसे कुछ जीवन गाथा जानने की प्रार्थना की, तब उत्तर मिला कि हम संसार के साधुओं में सबसे छोटे हैं, हमारा लास्ट नंबर है, उससे तुम क्या लाभ ले सकोगे? हमारे जीवन में कुछ भी महत्व की बात नहीं है। बीच का ह्रदयस्पर्शी प्रसंग पढ़ने के लिए प्रसंग क्रमांक २१ पढ़ें। उसके आगे... कुछ क्षण पश्चात् वे बोल उठे कि तुम्हारे लिए हमारे आदेश है कि तुम हमारा चरित्र मत लिखना। मै बोला कि महराज ! यह तो आपकी बड़ी कड़ी आज्ञा है। मै अपने गुरु के गौरव से जगत को परिचित कराकर गुरु की सेवा तथा लोकहित करना चाहता हूँ। उस विषय में आप क्यों प्रतिबन्ध उपस्थित करते हैं? आपकी अस्सी वर्ष की अवस्था पूर्ण होने को है। धार्मिक समाज उत्सव मनाकर धर्म प्रभावना करना चाहती है। उसकी इच्छानुसार एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित करने की आयोजन होने को है और वह भर मेरे ऊपर रखा गया है। महराज बोले कि हमे अभिनन्दन ग्रन्थ वगैरह कुछ भी नहीं चाहिए। उत्सव भी नहीं चाहिए। अब हमारी जीवन घडी में बारह घंटा पूर्ण होने में थोडा समय शेष है। सूरज डूबने को थोडा समय बाकी है, अब हमे चुपचाप आत्मा का ध्यान करना है। हमें और कोई चीज नहीं चाहिए। मैंने कहा- महराज आप अपने समय पूर्ण होने की बात कहते हैं, तो क्या आपको इस विषय में भान सा हो गया है। महराज बोले अब हम अस्सी साल के हो गए हैं, अब और कितने दिन जीवित रहेंगे? इसलिए हमें कीर्ति आदि की झंझट नहीं चाहिए। सम्मान नहीं चाहिए। तुम हमारी स्तुती प्रशंसा में ग्रन्थ मत लिखना। मै बोला महराज ! यदि ग्रन्थ लिख लिया, तो इस दोष का प्रायश्चित आपके चरणों में आकर ले लूँगा। आपके जीवन का परिचय पाकर, जो जगत को सुख, शांति तथा प्रकाश मिलेगा, वह आपके दृष्टिपथ में नहीं है। आपकी महत्वता दूसरे अनुभव करते हैं। महराज बोले कि हम कह चुके, हमें कोई कीर्ति, मान, यश नहीं चाहिए। मेरे पास उस महान आत्मा के आगे और प्रार्थना करते को शब्द नहीं थे। मै असमंजस्य में पड़ गया। सुशील कुमार ने भी अनुज्ञा के लिए अभ्यर्थनाएं की, किन्तु इन निष्प्रह वीतराग मूर्ति को यह राग की बात ना जँची। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
? अमृत माँ जिनवाणी से - १६५ ? "दीर्घजीवन का रहस्य" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनि श्री १०८ वर्धमान सागरजी महराज जो गृहस्थ जीवन में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बड़े भ्राता भी थे तथा वर्तमान में ९२ वर्ष की अवस्था में भी व्यवस्थित मुनिचर्या का पालन कर रहे थे, ने प्रसंग वश बताया- "संयमी जीवन दीर्घाआयु का विशेष कारण है। हम रात को ९ बजे के पूर्व सो जाते थे और तीन बजे सुबह जाग जाया करते थे। ३५ वर्ष की अवस्था में हमने ब्रम्हचर्य व्रत ले लिया था। हमारे शरीर में कोई रोग नहीं हुआ। गृहस्थ अवस्था में हम एक दिन में ४५ मील बिना कष्ट के सहज ही चले जाते थे। २५ वर्ष की अवस्था में हम भोज से ५.३० बजे सबेरे चलकर शाम को ४५ मील दूरी पर स्थित तेरदल ग्राम में जाकर भोजन करते थे। पहले हमारे शरीर का चमड़ा इतना कड़ा था कि शरीर से चमड़ा नहीं खिचता था, लेकिन अब तो वृद्धावस्था आ गई है। आज के विटामिन भक्तों तथा डॉक्टरों के उपासकों को साधुराज के दिव्य जीवन से शिक्षा लेना चाहिए। निरोगता का बीज परिश्रम, ब्रम्हचर्य, परिमित आहार-विहार में है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने कितने सरल उदाहरण के माध्यम से बताया है कि लगातार किया जाने वाला इंद्रिय संयम का अभ्यास बेकार नहीं जाता, उसका भी महत्व अवश्य होता है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १६४ ? "सतत अभ्यास का महत्व" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कहते थे- "जिस प्रकार बार-बार रस्सी की रगड़ से कठोर पाषाण में गड्ढ़ा पड़ जाता है, उसी प्रकार बार-बार अभ्यास द्वारा इंद्रियाँ वसीभूत होकर मन में चंचलता नहीं उत्पन्न करती हैं।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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?ध्यान सूत्र - अमृत माँ जिनवाणी से - १६३
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १६३ ? "ध्यान सूत्र" प्रश्न - महराज ! कृप्याकर बताइये, क्या आपका मन लगातार आत्मा में स्थिर रहता है या अन्यत्र भी जाता है?" उत्तर - पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा- "हम आत्मचिंतन करते हैं। कुछ समय के बाद जब ध्यान छूटता है, तब मन को फिर आत्मा की ओर लगाते हैं। कभी-कभी मोक्षगामी त्रेसठ शलाका पुरुषों का चिंतवन करता हूँ।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग से ज्ञात होता है कि किस प्रकार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ अवस्था में ही उस समय की प्लेग जैसी भयंकर महामारी के संक्रमण की परवाह ना करते हुए अपने मित्र रुद्रप्पा का समाधिमरण कराया। अजैन व्यक्ति की भी समाधि करवाने उनके संस्कार जन्म जन्मान्तर की उत्कृष्ट साधना के परिचायक है। हमेशा अपने जीवन में हम सभी को अच्छे लोगो की संगति रखना चाहिए क्योंकि रुद्रप्पा जैसा हम लोगों के लिए सातगौड़ा (शान्तिसागर महराज) जैसे मित्र बुराइयों से बचाते ही साथ समाधिमरण की सफलता में भी पूर्ण सहभागी भी बनते हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १६२ ? "रुद्रप्पा की समाधि-२" अपनी अंतिम अवस्था में पूज्य शान्तिसागरजी महराज (गृहस्थ अवस्था में) की वाणी सुनकर रुद्रप्पा को लगा कि जिनधर्म ही खरा (सच्चा) धर्म है। जैनगुरु ही सच्चे गुरु हैं। जैन शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं। इनकी महिमा को कोई नहीं समझ सकता। उसके मन में श्रद्धा जगी। मिथ्यात्व की अंधियारी दूर हुई। उस समय उसका भाग्य जगा, ऐसा मालूम होता है, तभी तो वह जिनेन्द्र के नाम से प्यार करने लगा। अब उसके मुख पर अन्य नाम के लिए भी स्थान नहीं है। वह अरिहंता कहता है। वाणी क्षीण हो गई है अतः शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, ओष्ठों का स्पंदनमात्र होता है। महराज कहते हैं- "रुद्रप्पा ध्यान दो। शरीर और आत्मा जुदे-जुदे हैं। अरिहंत का स्मरण करो।" इतने में शरीर चेष्टाहीन हो गया। अब रुद्रप्पा वहाँ नहीं है। समाधिमरण के प्रेमी शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ जीवन में ही अपने मित्र को सुपथ पर लगा दिया। सचमुच में उसकी सदगति करा दी। ऐसी मैत्री आज कौन दिखाता है। आज तो भवसिन्धु में डूबने वाले यार-दोस्त मिलते हैं। मोक्ष के मार्ग पर लगाने वाले सन्मित्र का लाभ दुर्लभ है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १६१ ? "रुद्रप्पा की समाधि" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई, वर्तमान के मुनि श्री १०८ वर्धमान सागरजी महराज ने शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ अवस्था के मित्र लिंगायत धर्मावलंबी श्रीमंत रुद्रप्पा की बात सुनाई। सत्यव्रती रुद्रप्पा वेदांत का बड़ा पंडित था। वह अत्यंत निष्कलंक व्यक्ति था। वह अपने घर में किसी से बात न कर दिन भर मौन बैठता था। कभी-कभी हमारे घर आकर आचार्य महराज से तत्वचर्चा करता और उनका उपदेश सुनता था। एक समय की बात है कि भोजग्राम में प्लेग हो गया। हम सब अपने माता पिता के साथ अपने मामा के यहाँ यरनाल ग्राम में पहुँचे। प्लेग भीषण रूप धारण कर रहा था। सुनने में आया रुद्रप्पा को प्लेग हो गया। प्लेग की गाँठ उठ आई। उस समय लोग प्लेग से इतना घबराते थे कि बिरला व्यक्ति कुटुम्बी होते हुए बीमार के पास जाता था। जैसे कोई व्याघ्र से दूर भागता है, ऐसे बीमार से दूर रहा करते थे। आचार्य महराज (गृहस्थ जीवन में) ने रुद्रप्पा की बीमारी का समाचार सुना। वे चुपके से रुद्रप्पा के पास चले गए। भय क्या चीज है, इसे वे जानते ही नहीं थे। उनका जीवन आदि से अंत तक निर्भय भावों से भरा है। मित्र रुद्रप्पा के पास पहुँचकर उन्होंने देखा कि उसकी अवस्था अत्यंत शोचनीय है। उन्होंने सोचा कि ऐसे जीव का कल्याण करना हमारा कर्तव्य है। आचार्य महराज ने कहा- "रुद्रप्पा, अब तुम्हारा समय समीप है। अब समाधिमरण करो। शरीर से आत्मा जुदी है। शरीर का ध्यान छोड़ो। रुद्रप्पा 'अरिहंता' बोलो।" अब रुद्रप्पा के मुख से 'अरिहंता' निकलने लगा। रुद्रप्पा की सल्लेखना का आगे का वृत्तांत अगले प्रसंग में.... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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?संयमी का महत्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १६०
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? अमृत माँ जिनवाणी से - १६० ? "संयमी का महत्व" संयमी पुरुषों की दृष्टि में संयम तथा संयमी का मूल्य रहा है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज को भी संयम व् संयमी का बड़ा मूल्य रहा है। एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज अपने क्षुल्लक शिष्य सिद्धसागर (भरमप्पा) से कह रहे थे- तेरे सामने मै चक्रवर्ती की भी कीमत नहीं करता। लोग संयम का मूल्य समझते नहीं हैं। जो पेट के लिए भी दीक्षा लेते हैं, वे तप के प्रभाव से स्वर्ग जाते हैं, तूने तो कल्याणार्थ संयम धारण किया है। तू निश्चय से स्वर्ग जाएगा, इसमें रत्ती भर शंका मत कर।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ? -
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में पूज्य शान्तिसागरजी महराज एक गृहस्थ श्रावक को संबोधित कर रहे हैं। हम सभी यह पढ़कर यह अनुभव कर सकते है कि आचार्यश्री हम सभी को ही व्यक्तिगत रूप से यह बातें कह रहे हैं। वास्तव में पूज्यश्री की यह देशना भी सभी श्रद्धावान श्रावकों के लिए ही है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५९ ? "शिष्य को हितोपदेश" एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज अपने एक भक्त को समझा रहे थे- "तुम घर में रहते हुए भी एकांत में रहा करो। जहाँ भीड़ हो, वहाँ नहीं रहना, ध्यान, स्वाध्याय करना। दीक्षा लेना। घर में नहीं मरना। मनुष्य भव बार-२ नहीं मिलता है। मोह ने जीव को पछाड़ दिया है। अब उस मोह को पछाड़ना चाहिए। अतः सल्लेखना लेकर ही मरण करना। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग, हम सभी श्रावकों अपने जीवन के सार्थकता हेतु आत्मध्यान के बारे में बताता है। एक लंबे समय से प्रसंगों की श्रृंखला के माध्यम से हम सभी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र का दर्शन इस अनुभिति के साथ कर रहे हैं कि उनके जीवन को हम नजदीक से ही देख रहे हों। आज के आत्मध्यान के पूज्यश्री के उपदेश के प्रसंग को इन्ही भावों के साथ हम सभी आत्मसात करें जैसे पूज्य शान्तिसागरजी महराज प्रत्यक्ष में हमारे कल्याण के लिए ही यह उपदेश दे रहे हों। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १५८ ? "सच्चा आध्यात्मवाद" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने उपदेश के दौरान इस प्रश्न "गृहस्थ क्या करें?" के उत्तर में बताया कि- प्रतिदिन आत्मा का चिंतन करो। कम से कम दो घड़ी मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से सवद्य दोष का परित्याग करो। इस शरीर में तिल में तेलवत सर्वत्र आत्मा है। कोन-सा भाग ख़ाली है? राजपुत्रों द्वारा विद्या प्राप्ति के लिए किए गए उद्योग सदृश पहले आत्मा का ध्यान करो। इसमे मुनि की मुद्रा अंतिम वेश है। आरम्भ, मोह, कषाय के क्षयार्थ यह वेष आवश्यक है। जो इस मुद्रा को धारण नहीं कर सकते, वे गृहस्थ होते हुए आत्मा का ध्यान कर निर्जरा कर सकते हैं। चोबीस घंटे में कम से कम पन्द्रह मिनिट पर्यन्त आत्मा का ध्यान करो। इससे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। पूज्यश्री ने कहा इस आत्मा का ध्यान ना करने से तुम अनंत संसार में फिरते रहे। इसके सिवाय मोक्ष का दूसरा उपाय नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है। इससे अविनाशी, सुखपूर्ण, मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा का ध्यान अवश्य करना चाहिए।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?