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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ७ ? "शहद भक्षण में क्या दोष है" एक दिन मैंने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज, आजकल लोग मधु खाने की ओर उद्यत हो रहे हैं क्योंकि उनका कथन है, क़ि अहिंसात्मक पद्धति से जो तैयार होता है, उसमे दोष नहीं हैं।" महाराज ने कहा, "आगम में मधु को अगणित त्रस जीवो का पिंड कहा है, अतः उसके सेवन में महान पाप है। मैंने कहा, "महाराज सन् १९३४ को मै बर्धा आश्रम में गाँधी जी से मिला था।उस समय वे करीब पाव भर शहद खाया करते थे।मैंने गाँधी जी से कहा था कि आप अहिंसा के बारे में महावीर भगवान के उपदेश को श्रेय देते हैं, उन्होंने अहिंसा के प्राथमिक आराधकों के लिए मांस, मद्य के साथ मधु को त्याज्य बताया है, अतः आप जैसे लब्धप्रतिष्ठित अहिंसा के भक्त यदि शहद सेवन करेंगे, तो आपके अनुयायी इस विषय में आपके अनुसार प्रव्रत्ति करेंगे।" इस पर गांधीजी ने कहा था, "पुराने ज़माने में मधु निकालने की नवीन पद्धति का पता नहीं था, आज की पध्दति से निकाले गए मधु में कोई दोष नहीं दिखता है"| इस चर्चा को सुनकर आचार्य महाराज बोले, "मख्खी अनेक पुष्पो के भीतर के छोटे-२ कीड़ो को और उनके रस को खा जाती है।खाने के बाद वह आवश्यकता से अधिक रस को वमन कर देती है।नीच गोत्री विकलत्रय जीव का वमन खाना योग्य नहीं है।वमन में जीव रहते हैं।वमन खाना जैनधर्म के मार्ग के बाहर की बात है।थूक का खाना अनुचित कार्य है।" महाराज ने यह भी कहा था, "जो बात केवली के ज्ञान में झलकती है, वह साइंस में नहीं आती।साइंस में इन्द्रियगोचर स्थूल पदार्थो का वर्णन पाया जाता है।" ?स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ६ ? "अपूर्व दयालुता" भोज ग्राम में गणु जयोति दमाले नामक एक मराठा किसान ८० वर्ष की अवस्था का था।वह एक ब्राम्हण के खेत में मजदूरी करता रहा था।उस बृद्ध मराठा को जब यह समाचार पहुँचा कि महाराज के जीवन के सम्बन्ध में परिचय पाने को कोई व्यक्ति बाहर से आया है, तो वह महाराज का भक्त मध्यान्ह में दो मील की दूरी से भूखा ही समाचार देने को हमारे पास आया| उस कृषक से इस प्रकार की महत्त्व की सामग्री ज्ञात हुई: उसने बताया, "हम जिस खेत में काम करते थे उसे लगा हुआ हमारा खेत था।उनकी बोली बड़ी प्यारी लगती थी।मैं गरीब हूँ और वे श्रीमान हैं, इस प्रकार का अहंकार उनमे नहीं था। हमारे खेत में अनाज को खाने को सैकड़ो पक्षी आ जाते थे, मैं उनको उडाता था, तो वे उनके खेत में बैठ जाते थे।वे उन पक्षीयो को उड़ाते नहीं थे।पक्षी के झुंड के झुंड उनके खेत में अनाज खाया करते थे। एक दिन मैंने कहा कि पाटील हम अपने खेत के सब पक्षीयो को तुम्हारे खेत में भेजेगे। वे बोले कि तुम भेजो, वे हमारे खेत का सब अनाज खा लेंगे, तो भी कमी नहीं होगी। इसके बाद उन्होंने पक्षीयो के पीने का पानी रखने की व्यवस्था खेत में कर दी।पक्षी मस्त होकर अनाज खाते थे और जी भर कर पानी पीते थे और महाराज चुपचाप यह द्रश्य देखते, मानो वह खेत उनका ना हो। मैंने कहा पाटील तुम्हारे मन में इन पक्षीयो के लिए इतनी दया है, तो झाढ़ पर ही पानी क्यों नहीं रख देते हो? उन्होंने कहा कि ऊपर पानी रख देने से पक्षीयो को नहीं दिखेगा, इसीलिए नीचे रखते हैं। उनको देखकर कभी-२ मैं कहता था - "तुम ऐसा क्यों करते हो ? क्या बड़े साधु बनोगे ?"तब चुप रहते थे, क्योंकि व्यर्थ की बातें करना उन्होंने पसंद नहीं था।कुछ समय के बाद जब पूरी फसल आई, तब उनके खेत में हमारी अपेक्षा अधिक अनाज उत्पन्न हुआ था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ५ ? "शिखरजी की वंदना से त्याग और नियम" आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज गृहस्थ जीवन में जब शिखरजी की वंदना को जब बत्तीस वर्ष की अवस्था में पहुंचे थे, तब उन्होंने नित्य निर्वाण भूमि की स्मृति में विशेष प्रतिज्ञा लेने का विचार किया और जीवन भर के लिए घी तथा तेल भक्षण का त्याग किया।घर आते ही इन भावी मुनिनाथ ने एक बार भोजन की प्रतिज्ञा ले ली। रोगी व्यक्ति भी अपने शारीर रक्षण हेतु कड़ा संयम पालने में असमर्थ होता है किन्तु इन प्रचंड -बली सतपुरुष का रसना इंद्रिय पर अंकुश लगाने वाला महान त्याग वास्तव में अपूर्व था। शास्त्र में रसना इंद्रिय तथा स्पर्शन इंद्रिय को जीतना बड़ा कठिन कहा है। उपरोक्त प्रकार के अनेक आहार की लोलुपता त्याग कराने वाले नियमो द्वारा इन्होंने रसना इंद्रिय को अपने आधीन कर लिया तथा आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत द्वारा स्पर्शन इंद्रिय पर विजय प्राप्त की। शिखरजी की वंदना ने महाराज को गृहस्थ जीवन में संयम के शिखर पर चढ़ने के लिए त्यागी बनने की प्रबल प्रेरणा तथा महान विशुद्ता प्रदान की थी। ? स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ४ ? "वानरो पर प्रभाव" शिखरजी की तीर्थवंदना से लौटते हुए महाराज का संघ सन् १९२८ में विंध्यप्रदेश में आया। विध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था। एक ऐसी जगह पर संघ पहुँचा, जहाँ आहार बनाने का समय हो गया था। श्रावक लोग चिंतित थे कि इस जगह वानरों की सेना स्वछन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा और किस प्रकार इन सधुराज की विधि सम्पन्न होगी? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नही थी। संघ के श्रावकों ने कठिनता से रसोई तैयार की, किन्तु डर था कि महाराज के हाथ से ही बंदर ग्रास लेकर ना भागे, तब तो अंतराय आ जायेगा। इस स्थिति में क्या किया जाय? लोग चिंतित थे। चर्या का समय आया। शुद्धि के पश्चात जैसे ही आचार्य महाराज चर्या के लिए निकले कि सैकड़ो बंदर अत्यंत ही शांत हो गए और चुप होकर महाराज की चर्या की सारी विधि देखते रहे। बिना विध्न के महाराज का आहार हो गया। इसके क्षण भर पश्चात ही बंदरों का उपद्रव पूर्ववत प्रारम्भ हो गया। गृहस्थ बंदरों को रोटी खाने को देते जाते थे और स्वयं भी भोजन करते जाते थे। ऐसी अपूर्व दशा महाराज के आत्मविकास व आध्यात्मिक प्रभाव को स्पष्ट करती है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३ ? "माता की धर्म परायणता" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन में उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था। सन १९४८ के दशलक्षण पर्व में फलटण नगर में उन्होंने बताया था कि, "हमारी माता अत्यंत धार्मिक थी, "वह अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करती तथा साधुओ को आहार देती थी। हम भी बचपन से ही साधुओ को आहार देने में योग दिया करते थे, उनके कमण्डलु को हाथ में रखकर उनके साथ जाया करते थे। छोटी अवस्था से ही हमारे मन में मुनि बनने की लालसा जाग गई थी।" अपने पिताजी के विषय में उन्होंने बताया था कि वे प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली, ऊंचे पूरे क्षत्रिय थे। वे शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे। उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन में एक बार ही भोजन पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था, १६ वर्ष पर्यन्त ब्रम्हचर्य व्रत रखा था। उन जैसे धर्माधना पूर्वक सावधानी सहित समाधिमरण मुनियो के लिए भी कठिन है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २ ? "मिथ्या देवों की उपासना का निषेध" "जैन मंत्र का अपूर्व प्रभाव" जैनवाणी नामक ग्राम में महाराज जैनियो को मिथ्यादेवों की पूजा के त्याग करा रहे थे, तब ग्राम के मुख्य जैनियो ने पूज्यश्री से प्रार्थना की, "महाराज ! आपकी सेवा में एक नम्र विनती है।"महाराज ने बड़े प्रेम से पूछा - "क्या कहना है कहो?" जैन बन्धु बोले - "महाराज ! इस ग्राम में सर्प का बहुत उपद्रव है। सर्प का विष उतारने में निपुण एक जैनी भाई हैं। वह मिथ्या देवो की भक्ति करके,उस मंत्र पढ़कर सर्प का विष उतारता है। उसने यदि मिथ्यात्व त्याग की प्रतिज्ञा ले ली,तो हम सब को बड़ी विपत्ति उठानी पड़ेगी। इसीलिए उसे छोड़कर सबको आप नियम देवें,इसमे हमारा विरोध नहीं है। आगे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।" अब तो विकट प्रश्न आ गया जो आज बड़े-२ लोगो को विचलित किए बिना नहीं रहेगा। तार्किक व्यक्ति को लोकोपकार, सार्वजनिक हित,जीवदया,प्राणरक्षा के नाम पर अथवा अन्य भी युक्तिवाद की ओट में उस मांत्रिक जैन को नियम के बंधन से मुक्ति देने के विषय में आपको विशेष विचार करना होगा और सार्वजानिक हित के हेतु केवल एक व्यक्ति को पूजा के लिए छुटटी देनी होगी। पूज्य महाराज ने गंभीरता पूर्वक इस समस्या पर विचार किया और उस जैन बन्धु से कहा-"जैन मंत्रो में अचिन्त्य सामर्थ पाई जाती है।हम तुम्हे एक मंत्र बताते हैं।उसका विधिपूर्वक प्रयोग करो यदि दो माह के भीतर यह मंत्र तुम्हारा कार्य ना करे तो तुम बंधन में नहीं रहोगे।अतः तुम दो माह के लिए मिथ्यात्व का त्याग करो"| महाराज ने उस मांत्रिक बंधु को मित्यात्व का त्याग कराकर मंत्र दिया तथा विधि भी कह दी।इतने में कोई व्यक्ति समाचार लाया और बोला की मेरे बैल को सर्प ने काट लिया है।वह तुरंत पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करता हुआ वह पहुंचा और जैन मंत्रो का प्रयोग किया ,तत्काल विष बाधा दूर हो गई। इसके पश्यात मंत्र का सफल प्रयोग देखकर वह महाराज के पास आया और बोला- "महाराज अब मुझे जीवन भर के लिए मिथ्यात्व के त्याग का नियम दे दीजिये" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १ ? "स्थिर मन" एक बार लेखक ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूछा, महाराज आप निरंतर स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते है क्या इसका लक्ष्य मन रूपी बन्दर को बाँधकर रखना है जिससे वह चंचलता ना दिखाये।महाराज बोले, "हमारा बन्दर चंचल नहीं है"| लेखक ने कहा, "महाराज मन की स्थिरता कैसे हो सकती है,वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है" महाराज ने कहा, "हमारे पास चंचलता के कारण नहीं रहे है|जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है उसको चिंता होती है,उसके मन में चंचलता होती है,हमारे मन में चंचलता नहीं है।हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा,इस बात के स्पष्टीकरण के हेतु आचार्य महाराज ने उदाहरण दिया - "एक पोपट तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया,जहाज मध्य समुद्र में चला गया।उस समय वह पोपट उठकर बाहर जाना चाहे तो कहाँ जाएगा? उसके ठहरने का स्थल भी तो होना चाहिए।इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है। इस प्रकार घर परिवार आदि का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर जाएगा कहाँ,यह बताओ?" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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