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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२ ? "आत्म प्रशंसा के प्रति उनकी धारणा" शरीर के प्रति अनात्मीय भाव होने से महाराज कहने लगे- "यह मकान दूसरों का है। जब मकान गिरने लगेगा तो दूसरे मकान मे रहेंगे।" जो लोग महाराज की स्तुति करते हैं, "प्रशंसा करते हैं। वे उनके इन वक्यों को बाँचें- "मिट्टी की क्या प्रशंसा करते हो ? हमारी कीमत क्या है ?" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१ ? "क्या जमाना खराब है?" एक दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सामने चर्चा चली कि आज का जमाना खराब है, शिथिलाचार का युग है। पुराना रंग ढंग बदल गया, अतः महाराज को भी अपना उपदेश नय ढंग से देना चाहिए। महाराज बोले- "कौन कहता है जमाना खराब है। तुम्हारी बुद्धि खराब है, जो तुम जमाने को खराब कहते हो। जमाना तो बराबर है| सूर्य पूर्व से उदित होता था, पश्चिम मे अस्त होता था, वही बात आज भी है। अग्नि उष्ण थी जो आज भी है। जल शीतल था, जो आज भी है। पुत्र की उत्पत्ति स्त्री से होती थी, आज भी वही बात है। गाय से बछड़ा पैदा होता था, यही नियम आज भी है। इन प्राकृतिक नियमो मे कोई अंतर नही पड़ा है, इससे अब जमाना बदल गया है कहना ठीक नही है। जमाना बराबर है। बुद्धि में भ्रष्टपना आ गया है। अतः उसे दूर करने को/स्वच्छ करने को, पापाचार के त्याग का उपदेश देना आवश्यक है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३० ? "सर्पराज का मुख के समक्ष खड़ा रहना" एक दिन शान्तिसागरजी महाराज जंगल में स्थित एक गुफा में ध्यान कर रहे थे कि इतने में सात-आठ हाथ लंबा खूब मोटा लट्ठ सरीखा सर्प आया। उसके शरीर पर बाल थे। वह आया और उनके मुँह के सामने फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसके नेत्र ताम्र रंग के थे। वह महाराज पर दृष्टि डालता था और अपनी जीभ निकालकर लपलप करता था।उसके मुख से अग्नि के कण निकलते थे। वह बड़ी देर तक हमारे नेत्रो के सामने खड़ा होकर हमारी ओर देखता था। हम भी उसकी ओर देखते थे। मैंने पूंछा, "महाराज ! ऐंसी स्थिति में भी आपको घबराहट नहीं हुई?" महाराज ने कहा, "हमे भय कभी होता ही नहीं। हम उसको देखते रहे, वह हमें देखता रहा। एक दूसरे को देख रहे थे।" सर्पराज शांति के सागर को देखता था और शांति के सागर उस यमराज के दूत को अपनी अहिंसा पूर्ण दृष्टी से देखते थे। यह अमृत और विष की भेट थी अद्भुत दृश्य् था वह। मैंने पूंछा, "महाराज ! उस समय आप क्या सोचते थे?" महाराज ने कहा, "हमने यही सोचा था कि, "यदि हमने इस जीव का बिगाड़ कुछ पूर्व में किया होगा, "तो यह हमे बाधा पहुंचावेगा, नहीं तो यह सर्प चुपचाप चला जायेगा।" महाराज का विचार यथार्थ निकला । कुछ काल के बाद सर्पराज महाराज को साम्य और धैर्य की मूर्ति तथा शांति का सिंधु देखकर अपना फन नीचा कर, मानो मुनिराज के चरणों में प्रणाम करता हुआ, "धीरे धीरे गुफा के बाहर जाकर ना जाने कहाँ चला गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २९ ? "अद्भुत आत्मबल" कवलाना में चातुर्मास की घटना है। महाराज ने अन्न छोड़ रखा था। फलो का रस आदि हरी वस्तुओ को छोड़े लगभग १८ वर्ष हो गए थे। घी,नमक,शक्कर,छाछ आदि पदार्थो को त्यागे हुए भी बहुत समय हो गया था। उस चातुर्मास में धारणा-पारणा का क्रम चल रहा था। गले का रोग अलग त्रास दायक हो रहा था। एक उपवास के बाद दूसरे पारणे के दिन अंतराय आ गया। तीसरा दिन उपवास का था। चौथे दिन फिर अंतराय आ गया, पाँचवा दिन फिर उपवास का था। छठ्ठे दिन आहार ले पाये थे। ऐंसे अंतराय की भीषण परम्परा दो-तीन अवसर पर आई, जिससे शारीर बहुत क्षीण हो गया। डग भर चलना भी कठिन हो गया था। इतने में खूब वर्षा हो गयी। शीत का वेग भी बड़ गया। शरीर तो दिगम्बर था ही। दो-तीन बजे रात को जोर की खाँसी आई और उस समय उनकी भीषण स्थिति हो गई। सूर्योदय होने पर जब महाराज के दर्शन को पहुँचे, तब महाराज ने कहा- आज रात को हमारा काम समाप्त हुआ सा प्रतीत होता था। सुनते ही चित्त घबरा गया। मैंने पूंछा महाराज क्या हुआ ? महाराज ने बताया- जोर की खाँसी आई और उसमे श्वास बाहर निकली, वह कुछ मिंटो तक वापिस नहीं खीची जा सकी । नाडी भी जाती रही और शारीर भी शून्य सा पड़ गया, फिर कुछ समय के उपरांत सब बातें धीरे-धीरे सुधरी थी। उस समय महाराज के मुख से कठिनता से शब्द निकलते थे, किन्तु दीनता या घबराहट या कराहना आदि का लेश मात्र भी नहीं था। आत्मा में अद्भुत बल उस समय दिखता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से -२८ ? "पंच परमेष्ठी स्मरण" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न किया कि "उपवासों में आपको अनुकूलता होती है या नहीं?" महाराज ने कहा "हम उतने उपवास करते हैं, जितने में मन की शांति बनी रहे, जिसमें मन की शांति भंग हो, वह काम नहीं करना चाहिए।" पुनः प्रश्न "महाराज ! एक ने पहले उपवास का लंबा नियम ले लिया। उस समय उसे ज्ञान ना था, कि यह उपवास मेरे लिए दुखद हो जायेगा। अब वह कष्टपूर्ण स्थिति में क्या करें?" महाराज ने कहाँ "व्रतादि के पालन में जब कष्ट आवे, पंच परमेष्ठी का लगातार नाम स्मरण करें। हम दृढ़ता से कहते हैं कि पंच परमेष्ठी के प्रसाद से शरीर की पीढ़ा शीघ्र ही दूर हो जायेगी और शांति मिलेगी।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से २७ ? 'क्लांत पुरुष को लादकर राजगिरी की वंदना' शिखरजी की वंदना जैसी घटना राजगिरी के पञ्च पहाड़ियों की यात्रा में हुई। वहाँ की वंदना बड़ी कठिन लगती है। कारण वहाँ का मार्ग पत्थरो के चुभने से पीढ़ाप्रद होता है। जैसे यात्री शिखरजी आदि की अनेक वंदना करते हुए भी नहीं थकता है, वैसी स्थिति राजगिर में नहीं होती है। यहाँ पांचों पर्वतों की वंदना एक दिन में करने वाला अपने को धन्यवाद देता है। महाराज ने देखा कि एक पुरुष अत्याधिक थक गया है और उसके पैर आगे नहीं बड़ रहे हैं। उस पहाड़ी पर चढ़ते समय बलवान आदमी भी थकान तथा कठिनता का अनुभव करता है,किन्तु इन बली महात्मा ने उस पुरुष को पीठ पर रखकर वंदना करा दी। इससे बाह्य दृष्टि वाले इनके शारीरिक बल की महत्ता आंकते हैं, किन्तु हमे तो इनके अंतःकरण तथा आत्मा की अपूर्वता एवं विशालता का परिज्ञान होता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से -२६ ? "वृद्धा को पीठ पर लाद शिखरजी वंदना" गृहस्थ अवस्था में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज जब शिखरजी गए उस समय का प्रसंग है। आचार्यश्री(गृहस्थ जीवन में) पर्वत पर चढ़ रहे थे। उनकी करुणा दृष्टि एक वृद्ध माता पर पडी, जो प्रयत्न करने पर भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो गयी थी। थोडा चलती थी, किन्तु फिर ठहर जाती थी। पैसा इतना ना था कि पहले से ही डोली का प्रबंध करती। उस माता को देखकर इन महामना के ह्रदय में वात्सल्य भाव उत्पन्न हुआ। इन्होंने माता को आश्वासन देते हुए धैर्य बंधाया और अपनी पीठ पर उनको बैठकर पर्वतराज की कठिन वंदना कर दी। हमे तो लगता है कि उस पर्वतराज पर उस माता का भार ही इन्होंने नहीं उठाया, किन्तु आगामी मानवता का पवित्र भार उठाने की शक्ति की परीक्षा भी की थी। आज प्रतिष्ठा का रोगी निर्धन भी थोड़े से भार को उठाने में असमर्थ बन नौकर या वाहन खोजता है, किन्तु ये श्रीमंत भीमगोड़ा पाटिल के अनन्य स्नेह के पात्र आत्मज अपनी प्रतिष्ठा, एक जिन चरण भक्त निर्धन माता को पीठ पर लादकर पर्वत की वंदना करना मानते थे। ऐंसी ही घटना आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के अंतःकरण की पवित्रता व् महानता का अनुमान होता है। ? स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५ ? "शेर" "कोन्नूर की गुफा में एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ध्यान कर रहे थे, तब शेर आ गया था।" मैंने पूंछा, "महाराज शेर के आने से भय का संचार तो हुआ होगा?" महाराज ने कहा, "नहीं कुछ देर बाद शेर वहाँ से चला गया ।" मैंने पूंछा, "महाराज निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के बाद कभी शेर आपके पास आया था?" महाराज ने कहा, "हम मुक्तागिरी के पर्वत पर रहते थे, वहाँ शेर आया करता था। श्रवणबेलगोला की यात्रा में भी शेर मिला था। सोनागिरी क्षेत्र पर भी वह आया था। इस तरह शेर आदि बहुत जगह आते रहे, "किन्तु इसमे महत्त्व की कौन सी बात है?" मैंने कहा, "महाराज ! साक्षात् यमराज की मूर्ति व्याघ्रराज के आने पर घबराहट होना साधारण सी बात है।" महाराज ने कहा, "डर किस बात का किया जाय? जीवन भर हमे कभी किसी वस्तु का डर नहीं लगा। जब तक कोई पूर्व भव का बैर ना हो अथवा उस जानवर को बाधा ना दो, तब तक वह नहीं सताता है।" महाराज ने बड़वानी जाते हुए सतपुड़ा के एक निर्जन वन की घटना बताई कि, "विहार करते समय उस निर्जन वन मे संध्या हो गयी। हम ध्यान करने को बैठ गए। साथ के श्रावक वहाँ डेरा लगाकर ठहर गए। उस समय जब शेर आया श्रावक घबरा गए। एक शेर तो हमारी कुटी के भीतर घुस गया था। "कुछ काल के पश्चात् वह बिना हानि पहुचाये जंगल में चला गया था।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४ ? "त्याग भाव" एक दिन लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज आपके वैराग्य परिणाम कब से थे?" महाराज, "छोटी अवस्था से ही हमारे त्याग के भाव थे। १७ या १८ वर्ष की अवस्था में ही हमारे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के परिणाम थे। जो पहले बड़े-बड़े मुनि हुए है, वे सब छोटी ही अवस्था में निर्ग्रन्थ बने थे।" मैंने पूछा, "फिर कौन सी बात थी, जो आप उस समय मुनि न बन सके?" महाराज, "हमारे पिता का हम पर बड़ा अनुराग था। पिताजी ने आग्रह किया कि जब तक हमारा जीवन है, तब तक तुम घर में ही रहकर धर्म साधन करो। तुम्हारे घर से बाहर चले जाने से हमे बड़ा संक्लेश होगा। योग्य पुत्र का कार्य पिता को क्लेश उत्पन्न करने का नहीं है। अतः पिताजी के आग्रहवश हमे घर में ही रहना पड़ा। घर पर भी हम अत्यंत उदास रहते थे। हमारी भी किसी लौकिक कार्य में रूचि नहीं थी।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३ ? "प्राणरक्षा" १९५२ को ग्रन्थ के लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे मे जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र से मिले।उन्होंने बताया- महाराज की दुकान पर १५-२० लोग शास्त्र सुनते थे।मलगौड़ा पाटिल उनके पास शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात वह शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात शास्त्र सुनने नहीं आया, तब शास्त्र चर्चा के पश्चात महाराज उनके घर गये, वहाँ नहीं मिलने से रात में ही उनके खेत पर पहुँचे, वहाँ वे क्या देखते हैं कि मलगोड़ा ने गले में फाँसी का फन्दा लगा लिया है और वह मरने के लिए तत्पर है। यदि कुछ देर और हो जाती, तो उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी होती। सौभाग्य से वह उसी समय जीवित था। महाराज ने उसका फंदा खोला व् अपनी दुकान में लाकर खूब समझाया। उसकी अंतर्वेदना दूर की, जिससे उसने आत्महत्या का विचार बदल किया।गृहस्थ जीवन में महाराज, मेरी माता तथा आजी एक बार ही भोजन करते थे। जब महाराज मेरी माता के समक्ष अपनी दीक्षा लेने की बात कहते थे, तब मै आकर उनके पैरो से लिपट जाता था और कहता था - "अप्पा ! अभी आपको नहीं जाने दूँगा। अभी मै छोटा हूँ। बड़े होने के बाद आप मुझे समझाकर जावें।" इस पर वे मुझे संतोषित करते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२ ? "जिन प्रभाव की महिमा" एक बार लेखक ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से पूंछा - महाराज जिनेन्द्र भगवान का नाम, भाव को बिना समझे भी जपने से क्या जीव के दुःख दूर होते हैं?यदि जिनेन्द्र गुण स्मरण से कष्टो का निवारण होता है, तो इसका क्या कारण है? आचार्य महाराज ने उत्तर दिया - जिस प्रकार अग्नि के आने से नवनीत द्रवीभूत हो जाता है, उसी प्रकार वीतराग भगवान के नाम के प्रभाव से संकटो का समुदाय भी दूर होता है।जिनेन्द्र भगवान एक प्रकार से अग्नि हैं, क्योंकि उनके द्वारा कर्मो का दाह किया जाता है। इस प्रकार अज्ञानी प्राणी भी णमोकार मंत्र के जप द्वारा कल्याण को प्राप्त करता है। सुभग नाम के गोपाल ने 'णमोकार मंत्र' की जाप मात्र से सुदर्शन सेठ के रूप में जन्म धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार वीतराग भगवान के नाम में भी अचिन्त्य व् अपार शक्ति है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१ ? "लोकोत्तर व्यक्तित्व" अक्टूबर सन १९५१ में बारामती के उद्यान में लेखक ने उनके छोटे भाई के साथ बड़ी विनय के साथ, आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से उनकी कुछ जीवन गाथा जानने की प्रार्थना की, तब उत्तर मिला कि हम संसार के साधुओ में सबसे छोटे हैं, हमारा लास्ट नंबर है, उससे तुम क्या लाभ ले सकोगे? हमारे जीवन में कुछ भी महत्व की बात नहीं है। लेखक ने कहा महाराज आपका साधुओ में प्रथम स्थान है या अंतिम, यह बात देखने वाले ही जान सकते हैं।संसार जानता है कि आपका फर्स्ट नंबर है। लोग हमको क्या जानें ? हम अपने को जानते हैं कि तीन कम नव कोटि मुनियो में हमारा अंतिम नंबर है। लेखक ने कहा अच्छा ! आपकी दृष्टि में वे सब सधुगण हैं, तब आपके जीवन की बातें हम सबके लिए बड़ी कल्याणप्रद तथा बोधजनक होंगी। बड़े-२ ऋद्धिधारी मुनियो तथा महापुरुषो के जीवन चरित्र का पता नहीं है, तब हमारे चरित्र का क्या होगा ? तुम हमे सबसे छोटा समझो। इतना हमने कह दिया अधिक नहीं कहना है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २० ? पंचमकाल में मुनियो की अल्प तपस्या् द्वारा महान निर्जरा जो व्यक्ति यह सोचता हो कि आज चतुर्थ कालीन मुनियो के समान कठोर तपस्वी जीवन व्यतीत करना अशक्य होने के कारण कर्मो की निर्जरा कम होती होगी, उसे आचार्य देवसेन के ये शब्द बड़े ध्यान पढ़ना चाहिए- "पहले हजार वर्ष तप करने पर जितने कर्मो का नाश होता था आज हीन सहनन में एक वर्ष के तप द्वारा कर्मो का नाश होता है।" इसका कारण यह है कि हीन सहनन में तपस्या करने के लिए अलौकिक मनोबल लगता है। आज शारीरिक स्थिति अदभुत है। यदि एक दिन आहार नहीं मिला तो लोगो का मुख कमल मुरझा जाता है। वज्रवृषभसंहनन धारी सहज ही अनेक उपवास और बड़े-२ कष्ट सहन करने में होते थे। आज का अल्प संयत पुरातन कालीन बड़े संयम के समान आत्म दृढ़ता चाहता है। जैसे एक करोड़पति किसी कार्य के लिए एक लाख रुपये दान करता है और दूसरा हजार पति नौ सौ रुपये उसी कार्य हेतु देता है, उन दोनो दानियो में अल्प द्रव्य देने वाला दानी असाधारण महत्व धारण करता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९ ? "महाराज के परिवार मे उच्च संस्कार" वर्ष १९५२ मे चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के ग्राम मे उनके गृहस्त जीवन के बारे मे जानकारी प्राप्त करने हेतु गए। ११ सितम्बर को अष्टमी के दिन उनको उस पवित्र घर मे भोजन मिला, जहाँ आचार्य महाराज रहा करते थे। उस दिन पंडितजी के लिए लवण आदि षटरस विहीन भोजन बना था।वह भोजन करने बैठे।पास मे महाराज के भाई का नाती भोजन कर रहा था। बालक भीम की थाली मे बिना नमक का भोजन आया, इसलिए उसने अपनी माता से कहा कि माता मुझे नमक चाहिए। पास में बैठी लगभग १० वर्ष की वय वाली बालिका बहन सुशीला बोल उठी कि भैया, जब तुम स्वामी (मुनि) बनोगे, तब तो बिना नमक का आहार लेना होगा, उस समय नमक कैसे मांगोगे? उस समय भाई-बहन की स्वाभाविक बातचीत सुनकर मेरी समझ में आया कि परिवार की पवित्रता का पुत्रादि के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ा करता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८ ? "शुभ दोहला" चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक जब आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के बचपन की स्मृतियों के बारे में जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के बड़े भाई मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज के पास गए। उन्होंने पूंछा, "स्वामिन् संसार का उद्धार करने वाले महापुरुष जब माता पिता के गर्भ में आते हैं, तब शुभ- शगुन कुटुम्बियों आदि को देखते हैं। माता को भी मंगल स्वप्न आदि का दर्शन होता है। आचार्य महाराज सदृश रत्नत्रय धारको की चूड़ामणि रूप महान विभूति का जन्म कोई साधारण घटना नहीं है। कुछ ना कुछ अपूर्व बात अवश्य हुई होगी?" महापुराण में कहा है कि जब भरतेश्वर माता यशस्वती के गर्भ में आए थे, तब उस माता की इच्छा तलवार रूप दर्पण में मुख की शोभा देखते की होती थी। वर्धमान सागर जी ने कुछ काल तक चुप रहकर पश्चात बताया, "उनके गर्भ में आने पर माता को दोहला हुआ था कि एक सहस्त्र दल वाले एक सौ आठ कमलो से जिनेन्द्र भगवान की पूजन करूँ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १७ ? "सर्पराज का शरीर पर लिपटना" आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की तपस्चर्या अद्भुत थी। कोगनोली में लगभग आठ फुट लंबा स्थूलकाय सर्पराज उनके शरीर से दो घंटे पर्यन्त लिपटा रहा । वह सर्प भीषण होने के साथ ही वजनदार भी था । महाराज का शरीर अधिक बलशाली था, इससे वे उसके भारी भोज का धारण कर सके। दो घंटे बाद में उनके पास पहुँचा । उस समय वे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में थे । किसी प्रकार की खेद, चिंता या मलिनता उनके मुख मंडल पर नहीं थी। उनकी स्थिरता सबको चकित करती थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १६ ? "असाधारण शक्ति" आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर बाल्य-काल मे असाधारण शक्ति सम्पन्न रहा है। चावल के लगभग चार मन के बोरों को सहज ही वे उठा लेते थे। उनके समान कुश्ती खेलने वाला कोई नही था। उनका शरीर पत्थर की तरह कड़ा था। वे बैल को अलग कर स्वयं उसके स्थान में लगकर, अपने हांथो से कुँए से मोट द्वारा पानी खेच लेते थे। वे दोनो पैर को जोड़कर १२ हाथ लंबी जगह को लांघ जाते थे। उनके अपार बल के कारण जनता उन्हें बहुत चाहती थी। वे बच्चों के साथ बाल क्रीड़ा नही करते थे। व्यर्थ की बात नही करते थे। किसी बात के पूंछने पर संक्षेप में उत्तर देते थे। वे लड़ाई झगड़े में नही पड़ते थे। बच्चों के समान गंदे खेलो में उनका तनिक भी अनुराग नही था। वे लौकिक आमोद-प्रमोद से दूर रहते थे। धार्मिक उत्सवो में जाते थे। ? स्वाध्याय चरित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. ? अमृत जिनवाणी से -१५ ? "येलगुल मे जन्म" जैन संस्कृति के विकास तथा उन्नति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि विश्व को मोह अंधकार से दूर करने वाले तीर्थंकरो ने अपने जन्म द्वारा उत्तर भारत को पवित्र किया तथा निर्वाण द्वारा उसे ही तीर्थस्थल बनाया, किन्तु उनकी धर्ममयी देशना रूप अमृत को पीकर, वीतरागता के रस से भरे शास्त्रो का निर्माण करने वाले धुरंधर आचार्यो ने अपने जन्म से दक्षिण भारत की भूमि को श्रुत तीर्थ बनाया। उसी ज्ञानधारा से पुनीत दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले को नररत्न आचार्य शान्तिसागर महाराज की जन्मभूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान ग्राम येलगुल में आषाढ़ कृष्णा ६ , विक्रम संवत १९२९, सन् १८७२ मे बुधवार की रात्रि को उनका जन्म हुआ था। वह ग्राम भोजग्राम के अंतर्गत तथा समीप में था, इससे भोजभूमि ही जन्म स्थान है, ऐसी सर्वत प्रसिद्धि हुई। ? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १४ ? " लोकोत्तर वैराग्य " आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के ह्रदय मे अपूर्व वैराग्य था। एक समय मुनि वर्धमान स्वामी ने महाराज के पास अपनी प्रार्थना भिजवायी- "महाराज ! मैं तो बानबे वर्ष से अधिक का हो गया। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा है। क्या करूँ ? " इस पर महाराज ने कहा- "हमारा वर्धमान सागर का क्या संबंध ? ग्रहस्थावस्था मे हमारा बड़ा भाई रहा है सो इसमें क्या ? हम तो सब कुछ त्याग कर चुके हैं। पंच प्रवर्तन रूप संसार मे हम अनादिकाल से घूमे हैं। इसमें सभी जीव हमारे भाई बंधु रह चुके हैं। ऐसी स्थिति मे किस-२ को भाई, बहिन, माता , पिता मानना। हमको तो सभी जीव समान हैं। हम किसी मे भी भेद नहीं देखते हैं। ऐसी स्थिति मे वर्धमान सागर बार-बार हमे क्यो दर्शन के लिए कहते हैं।" उस व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता पूर्वक कहा- "महाराज ! वे आपके दर्शन अपने भाई के रूप मे नहीं करना चाहते हैं। आपने उन्हें दीक्षा दी है, अतः वे अपने गुरु का दर्शन करना चाहते हैं।" महाराज बोले- "यदि ऐसी बात है, तो वहाँ से ही स्मरण कर लिया करें। यहाँ आने की जरूरत क्या है?" कितनी मोहरहित, वीतरागपूर्वक परणति आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की थी। विचारवान व्यक्ति आश्चर्य मे पड़े बिना न रहेगा। जहाँ अन्य त्यागी लौकिक संबंधो और पूर्व सम्पर्को का विचार कर मोही बन जाते हैं। वहाँ आचार्यश्री अपने सगे ज्येष्ठ भाई के प्रति भी आदर्श वीतरागता का रक्षण करते रहे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से -१३ ? "द्रोणागिरी क्षेत्र में सिंह का आना" सन १९२८ मे वैसाख सुदी एकम को आचार्य शान्तिसागर महाराज का संघ द्रोणागिरी सिद्ध क्षेत्र पहुँचा।हजारो भाइयो ने दूर-२ से आकर दर्शन का लाभ लिया। महाराज पर्वत पर जाकर जिनालय मे ध्यान करते थे। उनका रात्रि का निवास पर्वत पर होता था। प्रभात होते ही लगभग आठ बजे महाराज पर्वत से उतरकर नीचे आ जाते थे। एक दिन की बात है कि महाराज समय पर ना आये। सोचा गया संभवतः वे ध्यान मे मग्न होंगे। दर्शनार्थियों की भावना प्रबल हो चली। साढ़े आठ, नौ, साढ़े नौ और भी समय व्यतीत हो रहा था। जब विलंब असह हो गया, तब कुछ लोग पहाड़ पर गये। उसी समय महाराज वहाँ से नीचे उतर रहे थे। लोगो ने महाराज का जयघोष किया। चरणों मे प्रणाम किया और पूंछा 'स्वामिन् ! आज तो बड़ा विलंब हो गया, क्या बात हो गयी?' वे चुप रहे। कुछ उत्तर नहीं दिया। लोगो ने पुनः प्रार्थना की। एक बोला- 'महाराज, यहाँ शेर आ जाया करता है। कहीं शेर तो नहीं आ गया था?' अंत मे स्वामीजी का मौन खुल ही पड़ा और उन्होंने बताया कि 'संध्या से ही एक शेर पास मे आ गया। वह रात भर बैठा रहा। अभी थोड़ी देर हुई वह हमारे पास से उठकर चला गया।' प्रतीत होता है वनपति, यतिपति के दर्शनार्थ आया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १२ ? "बाहुबलीस्वामी के विषय मे आलौकिक दृष्टी" जब हमने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पुछा- "महाराज गोमटेश्वर की मूर्ति का आपने दर्शन किया है उस सम्बन्ध मे आपके अंतरंग मे उत्पन्न उज्ज्वल भावो को जानने की बड़ी इच्छा है।" उस समय महाराज ने उत्तर दिया था उसे सुनकर हम चकित हो गये। उन्होंने कहा था- "बाहुबली स्वामी की मूर्ति बड़ी है। यह जिनबिम्ब हमे अन्य मूर्तियो के समान ही लगी। हम तो जिनेन्द्र के गुणों का चिंतवन करते हैं, इसीलिए बड़ी मूर्ति और छोटी मूर्ति मे क्या भेद है?" इससे आचार्य महाराज की मार्मिक दृष्टि का स्पष्ट बोध होता है। प्रत्येक बात मे आचार्य महाराज की लोकोत्तरता मिलती है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ११ ? "आत्मबल" आत्मबल जागृत होने पर बड़े-२ उपवास आदि तप सरल दिखते हैं। बारहवे उपवास के दिन लगभग आधा मील चलकर मंदिर से आते हुए आचार्य शान्तिसागर महाराज के शिष्य पूज्य नेमिसागर मुनिराज ने कहा था- "पंडितजी ! आत्मा में अनंत शक्ति है।अभी हम दस मील पैदल चल सकते हैं।" मैंने कहा था- "महाराज, आज आपके बारह उपवास हो गए हैं।" वे बोले, "जो हो गए, उनको हम नहीं देखते हैं।इस समय हमें ऐंसा लगता है, कि अब केवल पाँच उपवास करना हैं।" मैंने उपवास के सत्रहवें दिन पूंछा कि- "महाराज ! अब आपके पुण्योदय से सत्रहवाँ उपवास का दिन है तथा आप में पूर्ण स्थिरता है। प्रमाद नहीं है, देखने में ऐंसा लगता है मानो तीन चार उपवास किए हों।" वे बोले- "इसमे क्या बड़ी बात है, हमे ऐंसा लगता है कि अब हमे केवल एक ही उपवास करना है।" उन्होंने यह भी कहा था- "भोजन करना आत्मा का स्वाभाव नहीं है।नरक में अन्य पानी कुछ भी नहीं मिलता है।सागरो पर्यन्त जीव अन्न-जल नहीं पाता है,तब हमारे इस थोड़े से उपवास की क्या बड़ी चिंता है?" उस समय उनके समीप बैठने में ऐंसा लगता था, मानो हम चतुर्थकालीन ऋषिराज के पाद पद्मो में पास बैठे हों। अठारहवें दिन संघपति गेंदनमलजी, दादिमचंदजी, मोतीलालजी जवेरी बम्बई वालों के यहाँ वे खड़ें-खड़ें करपात्र में यथाविधि आहार ले रहे थे। उस दिन पेय वस्तु का विशेष भोजन हुआ था।गले की नली शुष्क हो गई थी, अतः एक-एक घूँट को बहुत धीरे-धीरे वे निगल रहे थे। उस समय प्रत्येक दर्शक के अंतःकरण में यही बात आ रही थी कि इस पंचमकाल में हीन सहनन होते हुए भी वे मुनिराज चतुर्थकालीन पक्षाधिक उपवास करने वाले महान तपस्वीओ के समान नयन गोचर हो रहे हैं। गुरु-भक्त नेमिसागर महाराज ने कहा- "उपवास शांति से हो गये, इसमें शान्तिसागर महाराज का पवित्र आशीर्वाद ही था" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से -१० ? "वैभवशाली दया पात्र हैं" दीन और दुखी जीवो पर तो सबको दया आती है । सुखी प्राणी को देखकर किसके अंतःकरण में करुणा का भाव जागेगा ? आचार्य शान्तिसागर महाराज की दिव्य दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा व् दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमको संपन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।" मैंने पुछा, "महाराज ! सुखी जीवो पर दया भाव का क्या कारण है?" महाराज ने कहा था- "ये लोग पुण्योदय से आज सुखी हैं, आज संपन्न हैं किन्तु विषयभोग में उन्मत्त बनकर आगामी कल्याण की बात जरा भी नहीं सोचते, जिससे आगामी जीवन भी सुखी हो।" जब तक जीव संयम और त्याग की शरण नहीं लेगा, तब तक उसका भविष्य आनंदमय नहीं हो सकता । इसीलिए हम भक्तो को आग्रह पूर्वक असंयम की ज्वाला से निकालकर संयम के मार्ग पर लगाते हैं। शान्तिसागर महाराज ने यह महत्त्व की बात कही थी, "हमने अपने बड़े भाई देवगोंडा को कुटुम्ब के जाल से निकालकर दिगम्बर मुनि बनाया। उसे वर्धमानसागर कहते हैं। छोटे भाई कमगौड़ा को ब्रम्हचर्य प्रतिमा दी उसे मुनि दीक्षा देते, किन्तु शीघ्र उसका मरण हो गया।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ९ ? सामयिक बात आचार्य शान्तिसागरजी महाराज सामयिक बात करने में अत्यंत प्रवीण थे। एक दिन की बात है, शिरोड के बकील महाराज के पास आकर कहने लगे - "महाराज, हमे आत्मा दिखती है। अब और क्या करना चाहिए?" कोई तार्किक होता, तो बकील साहब के आत्मदर्शन के विषय में विविध प्रश्नो के द्वारा उनके कृत्रिम आत्मबोध की कलई खोलकर उनका उपहास करने का उद्योग करता, किन्तु यहॉ संतराज आचार्य महाराज के मन में उन भले बकील साहब के प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने कहा- " अब तुम्हे माँस,मदिरा आदि छोड़ देना चाहिए: इससे आत्मा का अच्छी तरह दर्शन होगा।" अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था- "पाप का त्याग करने से यह जीव देवगति में तीर्थंकर की अकृतिम मूर्तिदर्शन आदि द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और तब यथार्थ में आत्मा का दर्शन होगा।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  25. ? अमृत माँ जिनवाणी से - ८ ? "उपवास से क्या लाभ है?" उपवास से क्या लाभ होता है इस विषय में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने अपनी अनुभव-पूर्ण वाणी से कहा था - "मदोन्मत्त हाँथी को पकड़ने के लिए कुशल व्यक्ति उसे कृत्रिम हथिनी की ओर आकर्षित कर गहरे गड्ढे में फसाते हैं। उसे बहुत समय तक भूखा रखते हैं।इससे उस हाँथी का उन्मत्तपना दूर हो जाता है और वह छोटे से अंकुश के इशारे पर प्रवृति करता है। वह अपना स्वछन्द विचरना भूल जाता है।इसी प्रकार इंद्रिय और मन उन्मत्त होकर इस जीव को विवेकशून्य बना पाप मार्ग में लगाते हैं।उपवास करने से इंद्रिय और मन की मस्ती दूर हो जाती है और वे पापमार्ग से दूर हो आत्मा के आदेशानुसार कल्याण की ओर प्रवृत्ति करते हैं।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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