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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पिछले दो प्रसंगों से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र का हम सभी अवलोकन कर रहें हैं। इन प्रसंगों को आप अवश्य पढ़ें और दूसरों को भी प्रेरणा दें यह जानने की। क्योंकि यह प्रसंग कई लोगों का जीवन ही बदल सकते हैं। यह पूरी जैन समाज और मानव समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है कि हमें बुराई के रास्ता तय करने वाले लोगों को सर्वतः हेय नहीं समझना चाहिए। योग्य निमित्त पाकर उनमें भी अपना जीवन बहुत स्वच्छ बनाने की संभावना अवश्य होती है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३२ ? मुनि पायसागरजी का अद्भुत जीवन चरित्र-२ "महराज के प्रथम दर्शन का अपूर्व प्रभाव" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागर के पूर्व जीवन के बारे में उन्होंने आगे बताया कि- सुयोग की बात है। उग्र तपस्वी दिगम्बर श्रमणराज आचार्य शान्तिसागर महराज का कोन्नूर आना हुआ। उस समय मै साइकिल हाथ में लिए उनके पास से बना ठना निकला। सैकड़ों जैनी उन मुनिराज को प्रणाम कर रहे थे। मैं वहाँ एक कौने में खड़ा हो गया। मेरी दृष्टि उन पर पड़ी। मैंने उनको ह्रदय से प्रणाम नहीं किया, नाम मात्र के दोनो हाथ जोड़ लिए थे। उस समय कुछ बंधुओं ने महराज से मेरे विषय में कहा, "महराज ये जैन कुलोत्पन्न है। महान व्यसनी है। इसे धर्म कर्म कुछ नहीं सुहाता है।" ?बलवान आकर्षण शक्ति? मेरी निंदा महराज के कानों में पहुँची, किन्तु उनके मुख मंडल पर पूर्ण शांति थी। नेत्रों में मेरे प्रति करुणा थी और बलवान आकर्षण शक्ति थी। महराज ने लोगों को शांत किया उनके मुख से ये शब्द निकले, "इसने आज हमारे दर्शन किये हैं, इसलिए इसे कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा।" मैं उनका मुखमंडल को ध्यान से टक टकी लगाकर देख रहा था। मुझे वे सचमुच शांति के सागर दिखे। मैंने भारतभर घूम-२ कर बड़े-२ नामधारी साधु देखे थे। मुझे ऐसा लगा कि आज सचमुच में साधु के रूप में अपूर्व निधि मिली। मैंने उन्हें आध्यात्मिक जादूगर के रूप में देखा। मेरे मन में आंतरिक वैराग्य का बीज पहले से ही था। उनके संपर्क ने उसमें प्राण डाल दिए। क्रमशः............. ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३१ ? मुनि पायसागरजी का अद्भुत जीवनचरित्र-१ कल हमने पूज्य शांतिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य मुनि श्री पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र को देखना प्रारंभ किया था। उसी में आगे- गंगा में गहरे गोते लगाए। काशी विश्वनाथ गंगे के सानिध्य में समय व्यतीत करता हुआ हर प्रकार के साधुओं के संपर्क में आया। मैं लौकिक कार्यों में दक्ष था। इसलिए साधु बनने पर भी मेरी विचार शक्ति मृत नहीं हुई थी। वह मूर्छित अवश्य थी। जब मै जटा विभूषित सन्यासी के रूप में फिरता-२ सोलापूर के समीप आया तब मेरी दृष्टि में बात आई की पाखंडी साधु के रूप में फिरकर आत्मवंचना तथा परप्रताड़ना के कार्य में लगे रहना महामूर्खता है। मैंने भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के शास्त्रों का परिशीलन किया था, उस शास्त्र ज्ञान ने मुझे साहस प्रदान किया कि मैं उस साधुत्व के ढकोसले को दूर फेक दूँ। अब मैंने अपने विचार अपने जीवन का नया अध्याय शुरू किया। मै सुंदर वस्त्र आदि से सुसज्जित गुंडे के रूप में यत्र-तत्र विचरण करने लगा। शायद ही ऐसा कोई दोष हो, जो खोजने पर मुझमें न मिले। मैं अत्यंत विषयांध व्यक्ति बन गया। क्रमशः......... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग तीन या चार चरणों में पूर्ण होगा, इन प्रसंगों को अवश्य ही पढ़ें। इन प्रसंगों को पढ़कर आपको पूज्य शान्तिसागरजी महराज के श्रेष्ठ तपश्चरण व चारित्र का अद्भुत प्रभाव जीवों के जीवन पर देखने को मिलेगा। इन प्रसंगों के माध्यम से आपको ज्ञात होगा कि कैसी-२ जीवन शैली वाले मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकते हैं, उनके घोर तपश्चरण को देखकर कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह जीव कल्याण मार्ग पर इस तरह से प्रवृत्ति करेगा। इन प्रसंगों से हम सभी को यह भी शिक्षा मिलती है कि यदि कोई नया व्यक्ति धर्म मार्ग में आगे बढ़ना चाहता है तो उसे हतोत्साहित नहीं करना चाहिए बल्कि उसको यथासंभव प्रोत्साहित करना चाहिए। क्या मालूम वह ही भविष्य में अपने कल्याण के साथ-२ दूसरों को भी कल्याण के मार्ग पर ले जाने वाला बन जाए। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३० ? "मुनि पाय सागरजी का अद्भुत जीवन" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनि श्री १०८ पायसागरजी महराज के विषय में प्रकाश डालना बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, कारण उनके सम्पूर्ण जीवन तथा उनकी वर्तमान चर्या को जानकर पूज्य शान्तिसागरजी महराज की महत्वता सहज ही समझ आ जाती है। मुनिश्री पायसागर जी महराज से स्तवनिधि क्षेत्र में आचार्य महराज के विषय में चर्चा की, तब उन्होंने कहा था कि "मेरा जीवन उन संतराज के प्रसाद से अत्यंत प्रभावित है।" मेरी कथा इस प्रकार है:- मैं एक नाटक कंपनी में अभिनेता रहा आया। पश्चात आपसी अनबन होने के कारण मैंने कंपनी छोड़ दी और मै कुछ दिन तक क्रांतिकारी सरीखा रहा। मैंने मिलमलको के विरोध में मजदूरों के सत्याग्रह की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया। इसके पश्चात मेरा मन सांसारिक विडम्बना से उचटा। अपने कुल जैन धर्म से मेरा रंचमात्र भी परिचय नहीं था। मैं णमोकार मत्र को भी नहीं जनता था, इसलिए मैंने जटा विभूतिधारी रुद्राक्षमाला से अलंकृत चिदम्बर बाबा का रूप धारण किया और साधुत्व का अभिनय करता हुआ बम्बई से काशी पहुँचा। क्रमशः........ ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग को पढ़कर शायद आप सोचें की पहले के समय की बात थी कि अशुद्ध आचरण वालों से जल भरवाना तथा घर के काम करवाये जाते थे, लेकिन मुझे लगता है आज के समय मे स्थिति उससे कहीं भयावह है। आचार-विचार का ध्यान रखने वाले कुछ श्रावकों को छोड़कर अधिकांशतः हम सभी में खान-पान का विवेक घट गया है। वर्तमान में ऊपरी स्टेंडर्ड जरूर बढ गया लेकिन खान-पान की सामग्री व तरीके में बहुत परिवर्तन आया है। यह पूर्णतः सत्य है कि जब तक हमारे आहार में शुद्धता नहीं आएगी तब तक सही मायने में हमारे धर्म की ओर कदम बढ ही नही सकते। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२९ ? "उत्तर प्रांत में शिथिलाचार सुधारने हेतु प्रतिज्ञा" अब संयम का सूर्य दक्षिणायन के बदले उत्तरायण होने जा रहा था। उत्तर की ओर जो खान-पान में शिथिलता थी, उसका सुधार किया जाना जरूरी था। प्रातः प्रत्येक घर में पानी भरने का कार्य जो व्यक्ति करता था, वह मांसभोजी रहा करता था। उसके घर में और भी अशुद्धताएँ हो जाया करती हैं, जिनका उसे अपने हीन कुल के कारण ध्यान नहीं होता है। जैसे चमढ़े का व्यापार करने वाले के हाथ से ऐसा पानी नहीं मिल सकेगा जिसका चमढ़े से सम्बन्ध न हो। मूल बात इतनी है, हीन आचरण व संस्कार वाले वर्ग के हाथ का जल यदि भोजनालय में आता है और उससे आहार बनता है तो वैसा अशुद्ध जल निर्मित आहार महाव्रती साधु की श्रेष्ठ अहिंसा की साधना के अनुकूल कैसे होगा। यह बात दूर तक सोचकर महराज ने आगे यह प्रतिज्ञा की थी कि जो शुद्र-जल का त्यागी होगा, उस जैनी के ही हाथ का पानी लेंगे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२८ ? "अनुकम्पा" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं। जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है। बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में थे, अतः महराज उस धर में ही आहार लेते थे, जो मिथ्यात्व का त्याग करता था। उनकी इस प्रतिज्ञा के भीतर आगम के साथ सुसंगति थी। मिथ्यात्व की आराधना करने वाला मिथ्यात्वी होगा। मिथ्यात्वी के यहाँ का आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं है। उसके श्रद्धादि गुणों का सद्भाव भी नहीं होगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२७ ? "वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव" एक बार की बात है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज वृत्ति परिसंख्यान तप की बड़ी कठिन प्रतिज्ञाएँ लेते थे, और पुण्योदय से उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति होती थी। एक दिन महराज ने प्रतिज्ञा की थी कि आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय मिलेगी तो आहार लेंगे। यह प्रतिज्ञा उन्होंने मन के भीतर ही की थी और किसी को इसका पता नहीं था। अंतराय का योग नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महराज का आहार निरंतराय हो गया। लगभग सन् १९३० के शीतकाल में आचार्यश्री ग्वालियर पहुँचे। जोरदार ठंड पड़ रही थी। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि गीले वस्त्र पहनकर कोई पड़गाहेगा तो आहार लेंगे, अन्यथा नहीं। लश्कर में अनेक गुरुभक्त द्वारापेक्षण को खड़े थे। कहीं भी योग न मिला। महराज ने घरों के सामने दो बार गमन किया। लोगों ने निराश होकर सोचा, आज योग नहीं है। लोगों के वस्त्र अन्यों के स्पर्श से अशुद्ध हो गए। एकदम महराज तीसरी बार लौट पड़े। एक श्रावक ने तत्काल पानी डालकर वस्त्र गीले किये और पड़गाहा। विधि मिल जाने से उनका आहार हो गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२६ ? "कानजी चर्चा" एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया- "गिरिनारजी की यात्रा से लौटते समय कानजी हमको दूर तक लेने गए। सोनगढ़ में आकर हमने कानजी से एक प्रश्न किया- "इस दिगम्बर धर्म में तुमने क्या देखा? और तुम्हारे धर्म में क्या बुरा था?" इस प्रश्न के उत्तर में कानजी ने कुछ नहीं कहा। बहुत देर तक मुख से एक शब्द तक नहीं कहा। इस पर आचार्यश्री ने कानजी से कहा- "हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। हमे तुम्हारा भाव जानना है।" इसके पश्चात क्या हुआ, उसे महराज ने इस प्रकार बताया- "कांजी ने पूंछा "महराज समयसार की एक गाथा में कहा है कि नव पदार्थ भूतार्थ हैं, यह गाथा प्रक्षिप्त मालूम पड़ती है; क्योंकि जीव पदार्थ ही भूतार्थ हो सकता है?" इसके बाद सामायिक का समय आ जाने से महराज उठ गए। प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ। महराज ने कहा "सामायिक के समय मन स्थिर रहता है। उस समय हम विचार करते हैं। सामायिक के बाद महराज ने पूर्वापर प्रसंग की गाथाएँ देखी, फिर कहा- "अज्ञानी किसान को भी सम्यक्त्व खोजना है उसे सम्यक्त्व कहाँ मिलेगा? जीव में मिलेगा, यही उत्तर होगा। पुनः प्रश्न होगा, जीव कहाँ मिलेगा? इसका उत्तर होगा कि जीव नव पदार्थों में मिलेगा। जीव का संबंध आश्रव, बंध, संवर आदि के साथ है। जीव इकाई के समान है शेष सब उसके साथ शून्य के समान हैं। इससे समयसार की गाथा प्रतिक्षिप्त नहीं हो सकती है।" महराज ने एक उदाहरण दिया था- "ज्वारी के ढेर में किसी का मोती गिर गया। वह ज्वार के समस्त दानों को देखता है। उसमें से मोती प्राप्त हो जाने पर वह उन ज्वार के दानों को फिर नहीं देखता है। इसी प्रकार जीव का आत्मा आश्रवादि में खो गया है। वह गुणस्थान, मार्गणा स्थानों में खोजता फिरता है। वह आत्मरत्न के प्राप्त होते ही वह खोज को बंद करके स्वरूप का रसपान करता है।" महराज के इस विवेचन को सुनकर कानजी चुप हो गए। इस प्रबल तर्क के विरुद्ध क्या कहा जा सकता था? उस समय स्व. आचार्य धर्मसागर जी भी विद्यमान थे। ब्र. जिनदासजी समडोलीकर भी थे। महराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रथ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२५ ? "कण्ठ पीढ़ा" कवलाना में पूज्य शान्तिसागरजी महराज का वर्षायोग व्यतीत हो रहा था। गले में विशेष रोग के कारण अन्न का ग्रास लेने में अपार कष्ट होता था। बड़े कष्ट से वह थोड़ा-२ आहार लेते थे। उस समय एक ग्रास जरा बड़ा हो गया, उसे मुँह में लेकर ग्रहण कर ही रहे थे कि वह गले में अटक गया और उस समय उनके मूरछा सरीखे चिन्ह दिखाई पड़े। चतुर आहार दाता ने दूध से अंजली भर दी और उस दूध से वह ग्रास उतर गया, नहीं तो वह दिन न जाने क्या अनिष्ट दिखाता। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२४ ? "मूक व्यक्ति को वाणी मिली" भोजग्राम से वापिस लौटने पर स्तवनिधि क्षेत्र में १०८ पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के सन् १९५२ में पुनः दर्शन हुए। उस समय उन्होंने कहा, "आपको एक महत्व की बात और बताना है।" मैंने कहा, "महराज अनुग्रहित कीजिए।" उन्होंने कहा, "कोल्हापुर में नीमसिर ग्राम में एक पैंतीस वर्ष का युवक रहता था। उसे अणप्पा दाढ़ी वाले के नाम से लोग जानते थे। वह शास्त्र चर्चा में प्रवीण था। अकस्मात वह गूँगा बन गया। वर्षभर पर्यन्त गुंगेपन के कारण वह बहुत दुखी रहा। लोगों के समक्ष जाने में उसको लज्जा का अनुभव होता था। उसका आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से विशेष परिचय था। लोग उसे जबरदस्ती आचार्यश्री के पास ले गए। आचार्य महराज ने कहा, "बोलो-बोलो ! तुम बोलते क्यों नहीं हो?" फिर उन्होंने कहा, "णमो अरिहंताणं पढ़ो।" बस, णमो अरिहन्ताणं पढ़ते ही उसका गूंगापन चला गया और वह पूर्ववत बोलने लगा। दर्शक मंडली चकित हो गई। चार दिन के बाद वह अपने घर लौट आया। वहाँ पहुँचते ही वह फिर गूंगा बन गया। मैं उसके पास पहुँचा। सारी कथा सुनकर मैंने कहा, "वहाँ एक वर्ष क्यों नहीं रहा? जब तुम्हे आराम पहुँचा था, तो इतने जल्दी भाग आने की भूल क्यों की?" वह पुनः आचार्यश्री के चरणों में पहुँचा। उन तपोमूर्ति साधुराज के प्रभाव से वह पुनः बोलने लगा। वहाँ वह १५ या २० दिन और रहा। इसके बाद वह पुनः गूंगा न हुआ। वह रोग मुक्त हो गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२३ ? "समता एवं सजग वैराग्य" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पायसागर महराज ने बताया कि, जब हजारों व्यक्ति भव्य स्वागत द्वारा गुरुदेव पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति जयघोष के पूर्व अपनी अपार भक्ति प्रगट करते थे और जब कभी कठिन परिस्थिति आती थी, तब वे एक ही बात कहते थे, "पायसागर ! यह जय-जयकार क्षणिक है, विपत्ति भी क्षणस्थायी है। दोनों विनाशीक हैं, अतः सभी त्यागियों को ऐसे अवसर पर अपने परिणामों में हर्ष विषाद नहीं करना चाहिए।" मैंने देखा है कि जिनबिम्ब, जिनागम तथा धर्मायतनों की हानि होने पर उनके धर्ममय अंतःकरण को आघात पहुँचता था, किन्तु वे वैराग्य भावना के द्वारा अपनी शांति को सदा अक्षुण्ण रखते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२२ ? "पागल द्वारा उपसर्ग" कोगनोली चातुर्मास के समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज कोगनोली की गुफाओं में ध्यान करते थे। एक रात्रि को ग्राम से एक पागल वहाँ आया। पहले उसने इनसे भोजन माँगा। इनको मौन देखकर वह हल्ला मचाने लगा। पश्चात गुफा के पास रखी ईटो की राशी को फेककर उपद्रव करता रहा, किन्तु शांति के सागर के भावों में विकार की एक लहर भी नहीं आई। वह दृढ़ता पूर्वक ध्यान करते रहे। अंत में वह पागल उपद्रव करते-२ स्वयं थक गया। इससे वहाँ से चला गया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२१ ? "वैराग्य का कारण" एक दिन मैंने पूंछा, "महराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिलता होगा? साधुत्व के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी" महराज ने कहा, "हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो। गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारम्भ से ही नहीं लगा। हमारे मन में सदा वैराग्य का भाव विद्यमान रहता था। ह्रदय बार-बार गृहवास के बंधन को छोड़ दीक्षा धारण के लिए स्वयं उत्कण्ठित होता था।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २२० ? "उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा -१" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के क्षुल्लक दीक्षा की संबंधित जानकारी कल के प्रसंग में प्रस्तुत की गई थी, उसी में आगे- चंपाबाई ने बताया दीक्षा का निश्चय हमारे घर पर हुआ था। दीक्षा का संस्कार घर से लगे छोटे मंदिर में हुआ था। उस गाँव में १३ घर जैनों के हैं। अप्पा जयप्पा वणकुदरे ने कहा मेरे समक्ष दीक्षा का जलूस निकला था। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति का अभिषेक भी हुआ था। महराज ने गुरु से कहा था, "मला दीक्षा द्या" (मुझे दीक्षा दीजिए)। गुरु ने दीक्षा दी। सातगौड़ा क्षुल्लक शान्तिसागर हो गए। उनमें गुरु की अपेक्षा अधिक तेज तथा कांति थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पिछले प्रसंग में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की क्षुल्लक दीक्षा के प्रसंग का उपलब्ध वर्णन प्रस्तुत करना प्रारम्भ हुआ था। उसी क्रम में आज का प्रसंग है। पहले भी पूज्यश्री की क्षुल्लक दीक्षा के संबंध की कुछ जानकारी प्रसंग क्रमांक ५३ में प्रस्तुत की गई थी। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१९ ? "उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा" जब गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति महराज ने देखा कि सातगौड़ा का यह वैराग्य श्मसान वैराग्य नहीं है, किन्तु संसार से विरक्तशुद्ध आत्मा की मार्मिक आवाज है। उन्हे विश्वास हुआ कि यह महाव्रत की प्रतिष्ठा को कभी लांछित नहीं करेगा, फिर उन्होंने दूर तक सोचा। यह विरक्त व्यक्ति सुखी श्रीमंत परिवार का है और महाव्रती बनने पर अपरिमित कष्ट सहन करने पड़ते हैं, इसीलिए कुछ समय के लिए क्षुल्लक के व्रत देना उचित है, इसके पश्चात यदि पूर्ण पात्रता दिखी, तो निर्ग्रन्थ दीक्षा दी जायेगी। यही बात गुरु देवेन्द्रकीर्तिजी ने इस विरक्त शिष्य सातगौड़ा से कही। उन्होंने यह भी कहा कि क्रम पूर्वक आरोहण करने से आत्मा के पतन का भय नहीं रहता है। इस प्रकार गुरुदेव की आज्ञानुसार श्री सातगौड़ा पाटील ने उत्तूर ग्राम में ज्येष्ठ सुदी त्रयोदशी शक संवत १८३७, विक्रम संवत १९७२, सन १९१५ में क्षुल्लक दीक्षा लेकर लघुमुनित्व का पद प्राप्त किया। यहाँ यह बात ज्ञातव्य है कि देवप्पा स्वामी से दो-तीन दिन तक चम्पाबाई आत्माराम हजारे, उत्तूर के घर में सातगौड़ा की दीक्षा के बारे में चर्चा चली थी। उस घर में देवप्पा स्वामी २ वर्ष रहे थे। क्रमशः......... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१८ ? "संयम-पथ" पिता के स्वर्गवास होने पर चार वर्ष पर्यन्त घर में रहकर सातगौड़ा ने अपनी आत्मा को निर्ग्रन्थ मुनि बनने के योग्य परिपुष्ट कर लिया था। जब यह ४१ वर्ष के हुए, तब कर्नाटक प्रांत के दिगम्बर मुनिराज देवप्पा स्वामी देवेन्द्रकीर्ति महराज उत्तूर ग्राम में पधारे। उनके समीप पहुँचकर सातगौड़ा ने कहा, "स्वामिन् ! मुझे निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।" उन्होंने कहा, "वत्स ! यह पद बड़ा कठिन है। इसको धारण करने के बाद महान संकट आते हैं, उनसे मन विचलित हो जाता है। महराज ने कहा, "भगवन आपके आशीर्वाद से और जिनधर्म के प्रसाद से इस व्रत का निर्दोष पालन करूँगा। प्राणों को छोड़ दूँगा, किन्तु प्रतिज्ञा में दोष नहीं आने दूँगा। मुझे महाव्रत देकर कृतार्थ कीजिए।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१७ ? "शिथिलाचारी साधु के प्रति आचार्यश्री का अभिमत" मैंने एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा- "शिथिलाचरण करने वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार रखना चाहिए?" महराज ने कहा- "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।" मैंने पूंछा- "समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्तव्य है? पत्रों में उसके संबंध में समाचार छपना चाहिए की नहीं? महराज ने कहा- "समझाने से भी काम न चले, तो उसकी अपेक्षा करो, उपगूहन अंग का पालन करो, पत्रों में चर्चा करने से धर्म की हँसी होने के साथ-साथ मार्गस्त साधुओं के लिए भी अज्ञानी लोगों द्वारा बाधा उपस्थित की जाती है।" महराज ने कहा कि "मुनि अत्यंत निरपराधी है। मुनि के विरुद्ध दोष लगने का भयंकर दुष्परिणाम होता है, श्रेणिक की नरकायु का कारण निरपराध मुनि के गले में सर्प डाला जाना था। अतः सम्यकदृष्टि श्रावक विवेक पूर्वक स्थितिकरण, उपगूहन वात्सल्य अंग का विशेष ध्यान कर सार्वजनिक पत्रों में चर्चा नहीं चलाएगा।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१६ ? "आत्महित में शीघ्रता करनी चाहिए" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कह रहे थे, "भविष्य का क्या भरोसा, अतः शीघ्र आत्मा के कल्याण के लिए व्रत ग्रहण कर लो।" इस प्रसंग में पद्मपुराण का एक वर्णन बड़ा मार्मिक है- सीता के भाई भामंडल अपने कुटुम्ब परिवार में उलझते हुए यह सोचते थे कि यदि मैंने जिनदीक्षा ले ली, तो मेरे वियोग में मेरी रानियाँ आदि का प्राणांत हुए बिना नहीं रहेगा, अतः कठिनता से त्यागे जाने योग्य, कठिनाई से प्राप्त सुखों को भोग, पश्चात आगे कल्याण पथ में प्रवृत्ति करूँगा। मैं भोगों से उपार्जित अत्यंत घोर पाप को भी सुध्यान रूपी अग्नि के द्वारा क्षणभर में ही भस्म कर डालूँगा। मैंने अब यह कर लिया, अब यह कर रहा हूँ तथा आगामी यह करूँगा, ऐसा सोचते हुए उसने संहारार्थ आगत यम की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। एक दिन वह अपने सात मंजिल महल में विराजमान था कि अचानक ऊपर से वज्रपात हुआ/ बिजली गिरी और भामंडल मृत्यु की गोद में सो गया। दीर्घसूत्री प्राणी आगामी होने वाली चेष्टाओं को भलीभाँति जानते हुए भी आत्मा के उद्धार में नहीं लगता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१५ ? "रूढ़ि से बड़ी है आगम की आज्ञा" व्रताचरण के विषय में पूज्य शान्तिसागरजी महराज से किसी ने पूंछा था "महराज ! रुधिवश लोग तरह-२ के प्रतिबंध व्रतों में उपस्थित करते हैं, ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?" आचार्य महराज ने कहा था, "व्रतों के विषय में शास्त्राज्ञा को देखकर चलो, रूढ़ि को नहीं। शास्त्राज्ञा ही जिनेन्द्र आज्ञा है। लोक आज्ञा रूढ़ि है। धर्मात्मा जीव सर्वज्ञ जिनेन्द्र की आज्ञा को बताने वाले शास्त्र को अपना मार्गदर्शक मानेगा, दूसरे शास्त्रों को मोक्ष मार्ग के लिए कैसे पथप्रदर्शक मानेगा?" इस विषय में सोमदेवसूरि का यह आदेश भी ध्यान में रखना श्रेयस्कर है कि उन लौकिक विधि विधानों का तुम सादर स्वागत कर सकते हो, जो तुम्हारी पवित्र श्रद्धा तथा व्रताचरण में बाधा नहीं डालते। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, जिनेन्द्र भगवान की वाणी मनुष्य की चिंताओं को समाप्त करने वाली तथा अद्भुत आनंद का भंडार है। अतः हम सभी को भले ही थोड़ा हो लेकिन माँ जिनवाणी का अध्यन प्रतिदिन अवश्य ही करना चाहिए। नए लोगों को इस कार्य का प्रारम्भ महापुरुषों के चरित्र वाले ग्रंथों अर्थात प्रथमानुयोग के ग्रंथों से करना चाहिए। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१४ ? "गृहस्थी के झंझट" लेखक दिवाकरजी लिखते हैं कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज का कथन कितना यथार्थ है कि लौकिक कार्यों में कितना कष्ट नहीं उठाना पड़ता है? क्षुधा तृषा की व्यथा सहनी पड़ती है? और भी कितने शारीरिक व मानसिक कष्ट नहीं होते? धन के लिए, कुटुम्ब के लिए गृहस्थ को क्या-२ कष्ट नहीं उठाना पड़ते? क्या क्या प्रपंच नहीं करने पड़ते? अंत में कुछ वस्तु हाथ में नहीं लगती है। किन्तु थोड़ा सा व्रत जीव का कितना उद्धार करता है, इसके प्रमाण प्रथमानुयोग रूप आगम में भरे हुए हैं। उस दिन के विवेचन को सुनकर ज्ञात हुआ कि व्रत, दान की प्रेरणा के पीछे कितना प्रेम, कितना ममत्व, कितनी उज्ज्वल करुणा की भावना गुरुदेव के अंतःकरण में भरी हुई है। सुनकर ऐसा लगा मानो कोई पिता विषपान करने वाले अपने पुत्र से आग्रह कर यह कह रहा हो कि बेटा ! विषपान मत करो, मेरे पास आओ, मैं तुम्हे अमृत पिलाउंगा। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१३ ? "जनकल्याण" पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपना लोककल्याण का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए एक बार कहा, "हमें अपनी तनिक भी चिंता नहीं है। जगत के जीवों का कैसे हित हो, यह विचार बार-बार मन में आया करता है। जगत के कल्याण का चिंतन करने से तीर्थंकर का पद प्राप्त होता है।" यदि करुणा का भाव नहीं तो क्षायिक सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी वह नहीं होगा। अंत में व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए आचार्य महराज ने अपनी प्राणपूर्ण मंगलवाणी को विराम देते हुए कहा, "केलं पाहिजे, व्रत बरोबर टिकणार (व्रताचरण करना चाहिए, व्रत अवश्य बने रहेंगे)।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज का प्रसंग अवश्य पढ़ें। अपने जीवन के कल्याण की चाह रखने वाले सभी श्रावको को पूज्यश्री का यह उदबोधन बहुत आनंद प्रदान करेगा। ऐसी बातों को हम सभी को धर में ऐसी जगह लिखकर रखना चाहिए जहाँ हमारी निगाह बार-२ जाये। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१२ ? "संयम में कष्ट नहीं" जो लोग सोचते है कि संयम पालने में कष्ट होता है, उनके संदेह को दूर करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने मार्मिक देशना में कहा, "संसार के कामों में जितना श्रम, जितना कष्ट उठाया जाता है, उसकी तुलना में व्रती बनने का कष्ट नगण्य है। लेन-देन, व्यापार व्यवसाह आदि में, द्रव्य के अर्जन करने में कितना श्रम किया जाता है और उसका फल कितना थोड़ा सा मिलता है? इतने दिन सुख भोगते-भोगते संतोष नहीं हो पाया, तो शेष थोड़ी सी जिंदगी में, जिसका जरा भी भरोसा नहीं है, तुम कितना सुख भोगोगे? कितना संचय करोगे? व्रती बनकर देवपर्याय में तुम्हे इतना सुख मिलेगा, जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हो। देवों के दशांग कल्पवृक्षों के द्वारा मनोवांछित सुख की मनोज्ञतम सामग्री प्राप्त होती है, वहाँ निरंतर सुख रहता है। दिन और रात्रि का भेद नहीं रहता है। वहाँ बालपन बुढ़ापा न रह, सदा योवन सुख रहता है। वहाँ पांचवे-छठे काल का संकट नहीं है। वहाँ खाने पीने का कष्ट नहीं है। अपने समय में कंठ में अमृत का आहार हो जाता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २११ ? "व्रत के समर्थन में समर्थ वाणी" व्रत ग्रहण करने में जो भी भयभीत होते हैं, उनको साहस प्रदान करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज बोले, "जरा धैर्य से काम लो और व्रत धारण करो। डर कर बैठना ठीक नहीं है। ऐसा सुयोग अब फिर कब आएगा? कई लोगों ने व्रतों का विकराल रूप बता-बता कर लोगों को डरा दिया है और भीषणता की कल्पनावश लोग अव्रती रहे आये हैं, यह ठीक नहीं।" उन्होंने यह भी कहा, "हमारे भक्त, शत्रु, मित्र, सुधारक अथवा अन्य कोई भी हो, हम सब को व्रत ग्रहण करने का उपदेश देते हैं। व्रत ग्रहण करने वाला आगामी देवायु का नियम से बंध करता है। जिन्होंने इससे अन्य अर्थात नरक, तिर्यंच, मनुष्य आयु का बंध कर लिया है, उसके व्रती बनने का भाव नहीं होते हैं।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २१० ? "मूल्यवान मनुष्य भव" एक बार बारामती में सेठ गुलाबचंद खेमचंदजी सांगली ने पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री के उपदेश तथा प्रेरणा से व्रत प्रतिमा ग्रहण करने का निश्चय किया। उस दिन के उपदेश में अनेक मार्मिक एवं महत्वपूर्ण बातें कहते हुए महराज ने कहा था कि तुम लोगों की असंयमी वृत्ति देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है कि तुम लोग जीवन के इतने दिन व्यतीत हो जाने पर भी अपने कल्याण के विषय में जाग्रत नहीं होते हो। मनुष्य भव और उसका एक-एक क्षण कितना मूल्यवान है, यह नहीं विचारते। शास्त्रों में लिखा है कि- "जो विषयों का उपभोग किए बिना उनको त्यागते हैं, वे श्रेष्ठ हैं और जो भोगने के पश्चात त्यागते हैं, वे मध्यम हैं, किन्तु जो विषयों को भोगते ही रहते हैं और छोड़ने का नाम नहीं लेते, वे अधम हैं।" व्रती बनने से डरना नहीं चाहिए। व्रत में त्रुटि आने पर प्रायश्चित लेना चाहिए। मुनियों तक को प्रायश्चित कहा गया है। बड़ा दोष हो जाने पर भी उसका प्रायश्चित किया जाता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०९ ? "मधुर व्यवहार" एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज अहमदनगर (महाराष्ट्र प्रांत) के पास से निकले। वहाँ कुछ श्वेताम्बर भाइयों के साथ एक श्वेताम्बर साधु भी थे। वे जानते थे कि महराज दिगम्बर जैन धर्म के पक्के श्रद्धानी हैं। वे हम लोगों को मिथ्यात्वी कहे बिना नहीं रहेंगे, कारण की नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती ने हमें संशय मिथ्यात्वी कहा है। उस समय श्वेताम्बर साधु ने मन में अशुद्ध भावना रखकर प्रश्न किया, "महराज आप हमको क्या समझते हैं?" उस समय महराज महराज ने कहा, "हम तुम्हे अपना छोटा भाई समझते हैं।" इस मधुर रसपूर्ण उत्तर से उन्होंने अपने को कृतार्थ अनुभव किया। महराज ने कहा, "पहले हममें और तुममे अंतर नहीं था, पश्चात कारण विशेष से पृथकपना हो गया, अतः तुम भाई ही हो।" वाणी का संयम महराज में अद्भुत था। जब वे बोलते थे, तब श्रोताओं की इच्छा यही होती थी कि इनके मुख से अमृतवाणी का प्रवाह बहता ही जावे और कर्ण पात्र के द्वारा पीते चले जाएँ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०८ ? "लोक के विषय में अनुभव" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का लोक के बारे में भी अनुभव भी महान था। वे लोकानुभव तथा न्यायोचित सद्व्यवहार के विषय में एक बार कहने लगे, "मनुष्य सर्वथा खराब नहीं होता। दुष्ट के पास भी एकाध गुण रहता है। अतः उसे भी अपना बनाकर सत्कार्य का संपादन करना चाहिए। व्यसनी के पास भी यदि महत्व की बात है तो उससे भी काम लेना चाहिए।" उन्होंने यह भी कहा था, "ऐसी नीति है कि मनुष्य को देखकर काम कहना और वृक्ष को देखकर आराम करना चाहिए" उनके निकट संपर्क में आने वाले जानते है कि आध्यात्मिक जगत के अप्रितिम महापुरुष होते हुए भी वे यथोचित लोकव्यवहार तथा सज्जन धर्मात्माओं को यथायोग्य सम्मानित करने में वे अतीव दक्ष थे। अन्य धर्मवाला व्यक्ति भी आकर उनके चरणों का दास बन जाता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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