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Abhishek Jain

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  1. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५८ ? "राजधर्म पर प्रकाश - १" पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपने सम्बोधन में कहा - "राजनीति तो यह है कि राज्य भी करे तथा पुण्य भी कमावे। पूर्व में तप करने वाला राजा बनता था। दान देने वाला धनी बनता है। राज्य पर कोई आक्रमण करे तो उसको हटाने के लिए प्रति आक्रमण करना विरोधी हिंसा है, उसका त्याग गृहस्थी में नहीं बनता है, उसे अपना घर सम्हालना है और चोर से भी रक्षा करना है। सज्जन राजा गरीबों के उद्धार का उपाय करता है। गरीब दो प्रकार के हैं, जो ह्रष्ट-पुष्ट गरीब आजीविका विहीन हैं, उनको आजीविका से लगाना चाहिए। जो गरीब अंगहीन हैं, उनका रक्षण करना चाहिए।" महराज ने कहा- "जो पंच पाप करता है वह पापी है, जो उन्हें छोड़ता है वह पुण्यवान है। पंच पाप की पुष्टि से राज्य करना अन्याय है। प्रजा का अपने बच्चे की तरह पालन करना राजनीति है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का उस समय का उद्बोधन है जब वह सांगली होते हुए शिखरजी को ओर विहार कर रहे थे। प्रवचन में राजधर्म पर प्रकाश डाला गया। आप सोच सकते है कि वर्तमान में उस तरह की परिस्थितियाँ नहीं हैं इसलिए इन बातों की प्रासंगिकता नहीं है। लेकिन मैं सोचता हूँ कि देश में इन सभी बातों का अनुपालन बहुत आवश्यक है। भले ही परिस्थियाँ अलग तरह की हों लेकिन देश हर नागरिक, समाज और राष्ट के हित के लिए जो बातें अतिआवश्यक है वह अतिआवश्यक ही रहेंगी। इन बातों को जानना, अपने आप को जागरूक करना है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५७ ? "राज्य धर्म पर प्रकाश" सांगली रियासत में राजधर्म के संबंध में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बड़े तर्क शुद्ध विचार थे। महराज का कथन - रामचंद, पांडव ने राज्य किया था। उनका चरित्र देखो। जब दुष्टजन राज्य पर आक्रमण करें, तब शासक को रोकना पड़ता है। दूसरे राज्य के अपहरण को नहीं जाना चाहिए। निरपराध प्राणी की रक्षा करना चाहिए। राजा का कर्तव्य है कि संकल्पी हिंसा बंद करे। निरपराधी जीवों की रक्षा करे। शिकार न खेले न खिलावे। देवताओं के आगे जीव के बलिदान को बंद कराये। दारू मांस खाना बंद करावे। परस्त्री अपहरण को रोके। राजनीति में राजा अपने पुत्र को भी दंड देता है। जुआ, मांस, सुरा, वेश्या, आखेट(शिकार), चोरी, परागना, परस्त्री के सेवन रूप सात व्यसन हैं। इन महापापों को रोकना चाहिए। सज्जन का पालन करना और दुर्जन का शासन करना राजनीति है। सत्यधर्म का लोप नहीं करना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, तथा अतिलोभ ये पांच पाप अधर्म हैं। इनका त्याग करना धर्म है। अधर्म को ही अन्याय कहते हैं। जिस राजा के शासन में प्रजा नीति से चले उस राजा को पुण्य प्राप्त होता है। अनीति से राज्य करने पर उसे पाप प्राप्त होता है। क्रमशः....... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५६ ? "सांगली" अब संघ सांगली रियासत में आ गया। मार्गशीर्ष बदी सप्तमी को सांगली राज्य के अधिपति श्रीमंत राजा साहब, महराज के दर्शनार्थ पधारे, इन्होंने अवर्णनीय आनंद प्राप्त किया। आचार्य महराज के सच्चे धर्म का स्वरूप बताते हुए राजधर्म पर प्रकाश डाला। सच्चे क्षत्रिय को यह जानकर बड़ा हर्ष होता है कि जैन धर्म का प्रकाश फैलाने का श्रेय जिन तीर्थंकर को था वे क्षत्रिय कुलावतंस ही थे। अहिंसा के ध्वज को सम्हालने वाले क्षत्रिय वीर ही रहे हैं। इस बात के प्रमाण वैदिक साहित्य में प्राप्त होते है कि पशु बलिदान का मार्ग ब्रम्हा ज्ञाता कहे जाने वाले ब्राम्हणो द्वारा पोषित था और अहिंसा को परमधर्म बता प्रेम की गंगा प्रवाहित करने का श्रेय पराक्रमी क्षत्रिय नरेशों को था। यह महत्व के साथ-२ आश्चर्य की भी बात थी, कि जिस वीर हाथ में यम की जिह्वा समान लपलपाती तलवार रहती थी वह जीवन का मूल्य जान जीवों को अभय देता था और जो ब्रम्हा की बातें बताते थे, वे जीवों को अग्नि में स्वाहा करने का जाल फैलाते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५५ ? "मूलगुण-उत्तरगुण समाधान" सन् १९४७ में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का चातुर्मास सोलापूर में था। वहाँ वे चार मास से अधिक रहे, तब तर्कशास्त्रियों को आचार्यश्री की वृत्ति में आगम के आगम के अपलाप का खतरा नजर आया, अतः आगम के प्रमाणों का स्वपक्ष पोषण संग्रह प्रकाशित किया गया। उसे देखकर मैंने सोलापुर के दशलक्षण पर्व में महराज से उपरोक्त विषय की चर्चा की। उत्तर में महराज ने कहा - "हम सरीखे वृद्ध मुनियों के एक स्थान पर रहने के विषय में समय की कोई बाधा नहीं है।" फिर उन्होंने हम से भी पूंछा "यह चर्चा मूलगुण संबंधी है या उत्तर गुण संबंधी?" मैंने कहा- "महराज यह तो उत्तर गुण की बात है।" महराज बोले- "मूलगुणों को निर्दोष पालना हमारा कर्तव्य है। उत्तरगुणों की पूर्णता एकदम से नहीं होती है। उसमें दोष लगा करते हैं। पुलाक मुनि को क्वचित् कदाचित मूलगुण तक में विरधना हो जाती है।" उत्तर सुनकर मैं चुप हो गया। उस समय समझ आया कि कई अविवेकी लोग ऐसी कल्पनाएं वर्तमान मुनि पर लादते हैं और यह नहीं जानते कि आगम परम्परा क्या कहती है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के इस प्रसंग से बहुत गंभीर चर्चा सामने आती है। आज भी कुछ श्रावक करणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि के ग्रंथों का अध्यन कर लेने के बाद चारित्र शून्य होते हुए भी निर्मल चारित्र के धारण साधु परमेष्ठीयों की आलोचना का कार्य करते हैं। कल के प्रसंग में अजैन लोगों का पूज्य मुनिसंघ के प्रति कथन देखा था कि जन्म जन्मान्तर के पुण्य के फलस्वरूप ही दिगम्बर मुनियों के दर्शन वंदन का सानिध्य मिलता है। कुछ लोगों के तीव्र अशुभ कर्मों का उदय होता है कि वह मुनियों आलोचना में संलग्न रहते हैं। यहाँ एक बात यह भी देखने को मिलती है कि ऐसे लोगों के संपर्क में अच्छे-२ विवेकवान लोग भी भ्रमित हो जाते हैं। और तो और चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर, ग्रंथ को पढ़कर जिनकी प्रतिभा तथा मुनिभक्ति का पता चलता है वह लिखते हैं कि वह भी कुछ विद्वानों के संपर्क के भ्रमित हो गए थे, बाद में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के संपर्क में वह गलत धारणा छूटी। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५४ ? "महराज की आगम सम्मत प्रवृत्ति" कोई-कोई यह सोचते हैं कि साधु को बहुत धीरे-धीरे चलना चाहिए। इस विषय में एक बार मैंने आचार्य महराज से पूंछा था कि "महराज जल्दी चलने से क्या साधु को दूषण नहीं आता है?" महराज ने कहा- "यत्नाचार पूर्वक चलने से दूषण नहीं आता है" वे आचारांग की आज्ञा के विरुद्ध बिल्कुल भी प्रवृत्ति नहीं करते थे। दुर्भाग्य की बात यह है कि उत्तरप्रांत में बहुत समय से मुनियों की परमपरा का लोप सा हो गया था, अतः मुनि जीवन संबंधी आगम का अभ्यास भी शून्य सम हो गया, ऐसी स्थिति में अपनी कल्पना के ताने बाने बुनने वाले करणानुयोग, द्रव्यानुयोग शास्त्रों का अभ्यास करने वाले श्रावक मुनि जीवन के विषय में अपनी विवेक-विहीन आलोचना का चाकू चलाया करते हैं। ऐसे ही कुछ विद्वानो के संपर्क में आकर हमारा भी मन भ्रांत हो गया था, और हमने भी लगभग आठ माह तक आचार्य महराज सदृश रत्नमूर्ति को काँचतुल्य सामान्य वस्तु समझा था। पुण्योदय से जब गुरुदेव के निकट संपर्क में आने का सुयोग मिला तब अज्ञान तथा अनुभव शून्यता जनित कुकल्पनाएं दूर हुई। दुख तो इस बात का है कि तर्क व्याकरण आदि अन्य विषयों की पंडिताई प्राप्त व्यक्ति चारित्र के विषय में अपने को विशेषज्ञ मान उस चरित्र की आराधना में जीवन व्यतीत करने वाले श्रेष्ठ संतो के गुरु बनने का उपहास पूर्ण कार्य करते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. ☀ जय जिनेन्द्र भाइयों, परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागरजी महराज का सन् १९२७ में शिखरजी के लिए विहार का वर्णन किया जा रहा है। यदि आप इन प्रसंगों को रुचि पूर्वक पूर्ण रूप से पढ़ते है तो पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा भाव के कारण आपको उनके संघ के साथ शिखरजी यात्रा में चलने का सुखद अनुभव होगा। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५३ ? "अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति" संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शांति, ऐसी भावों की विशुध्दता जीवन में कभी नहीं मिली, जैसे आचार्यश्री के संघ में सम्मलित होकर जाने में प्राप्त हुई। आर्तध्यान और रौद्रध्यान की सामग्री का दर्शन भी नहीं होता था। निरंतर धर्मध्यान ही होता था। शुभोपयोग की इससे बढ़िया सामग्री आज के युग में कहा मिल सकती है? वह रत्नत्रयधारियों तथा उपासकों का संघ रत्नत्रय की ज्योति को फैलता हुआ आगे बढता जाता था। संघ में सर्व प्रकार की प्रभावक उज्ज्वल सामग्री थी। मनोज्ञ जिनबिम्ब, बहुमूल्य नयानभिराम रजत निर्मित तथा स्वर्णशिल्प सज्जित देदिप्तमान समवशरण आदि के दर्शनार्थ सर्वत्र ग्रामीण तथा इतर लोगों की बहुत भीड़ हो जाती थी। हजारों व्यक्ति महराज को देखकर ही मस्तक को भूतल पर लगा प्रणाम करते थे। वे जानते थे- "ये नागाबाबा साधु परमहंस हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई के बिना इनका दर्शन नहीं होता है।" उन हजारों लाखों लोगों ने महराज के दर्शन द्वारा असीम पुण्य का बंध किया। बंध का कारण जीव का परिणाम होता है। पुण्य परिणामों से पुण्य का संचय होना जहाँ स्वाभाविक है, वहाँ पाप का संवर होता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५२ ? "संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ विहार के वर्णन के क्रम में आगे- अब "ओम नमः सिद्धेभ्यः" कह सन १९२७ की मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा को प्रभु का स्मरण कर चतुर्विध संघ सम्मेदाचल पारसनाथ हिल की वंदनार्थ रवाना हो गया। अभी लक्ष्यगत स्थल को पहुंचने में कुछ देर है, यात्रा भी पैदल है, किन्तु पवित्र पर्वतराज की मनोमूर्ति महराज के समक्ष सदा विद्यमान रहती थी कारण दृष्टि उस ओर थी। संकल्प भी तद्रूप था। आत्मा पर्वतराज की ओर उन्मुख थी। प्रारम्भ में लगभग २०० नर नारीयों, साधु साध्वियों संलंकृत संघ था। आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के समान निर्ग्रन्थ मुद्राधारी रत्नत्रय संलंकृत मुनित्रयी के मंगल नाम नेमिसागर महराज, वीरसागर महराज, अनंतकीर्ति महराज थे। क्रमशः....... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  8. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की ससंघ शिखरजी यात्रा का वर्णन चल रहा है। पूज्यश्री के जीवन से संबंधित हर एक बात निश्चित ही हम सभी भक्तों को आनंद से भर देती है। आप सोच सकते हैं कि पूज्यश्री के जीवन चारित्र को जानने में संघस्थ सभी व्रती श्रावकों के उल्लेख की क्या आवश्यकता? इस संबंध में मेरा सोचना है कि ऐसे श्रावक जो पूज्यश्री के साथ में चले तथा उनकी द्वारा संयम ग्रहण कर मोक्षमार्ग मार्ग पर आगे बढे उनके बारे में भी जानना अपने आप में हर्ष का विषय है। इन प्रसंग को पढ़ने वाले दक्षिण के कुछ पाठकों के तो निम्न संयमीजन पूर्वज भी होंगे। पढ़कर उनको स्मरण आएगा। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५२ ? "संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान" शिखरजी यात्रा विवरण में आगे.... पायसागर नाम से भूषित ऐलक पदाधिष्ठित तीन श्रेष्ठ श्रावक ऐनापुर, गोकाक तथा शियापुर के थे। नाम और पद में तीनों समान थे। क्षुल्लक मल्लीसागर गलतगेवाले, क्षुल्लक पायसागरजी जलगाव वाले व क्षुल्लक अनंतकीर्ति करवी शियापुर वाले भी थे। क्षुल्लिका माता शांतमति, बा.ब्र. क्षु. चंद्रमति, क्षु. अनंतमती नाम की तीन क्षुल्लीकाए थी। एक ब्रम्हचारिणी बाई थीं। ब्र. दादा घोंदे सांगली वाले, ब्र. आणप्प लिंगड़े, ब्र. महैसलकर, ब्र. पारिसप्पा घोंदे, ब्र. पायसागरजी उजारकर, ब्र. देवप्पना, ब्र. देवलाल ग्वालियर, ब्र. हजारीलाल एटा नाम के ८ ब्रम्हचारी बंधु थे। पंडित नंदनलालजी बैद्य भी साथ में थे। कुछ समय पश्चात वे भी महानुभाव निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर रत्नत्रय औषधि देकर आत्मा के रोग को दूर करते हुए आध्यात्मिक वैद्य के रूप में सुधर्मसागर महराज नाम से सर्वत्र विख्यात हुए। पंडित उल्फत रायजी रोहतक वाले, कीर्तनकार श्री जिनगौड़ा पाटील मांगूकर, श्री गंगाराम आरवाडे कोल्हापुर, परवारभूषण ब्र. फतेचंदजी नागपुर वाले भी साथ में थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  9. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, कल से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को जानने के क्रम में एक नया अध्याय प्रारम्भ हो चुका है। मैं शिखरजी की यात्रा को एक नया अध्याय इसलिए मानता हूँ क्योंकि यही से इन सदी के प्रथम आचार्य के मंगल चरण उत्तर भारत में पड़कर वहाँ के लोगों को धर्मामृत का पान कराने वाले थे। यह वर्णन उस समय पूज्यश्री ने जो ससंघ वंदना हेतु यात्रा की थी उसका उल्लेख है, आप यह सोच सकते हैं कि उससे हमारा क्या संबंध। यहाँ मेरे मानना है कि इस प्रसंगों के माध्यम से पूज्यश्री की मंगल यात्रा को नजदीक से अनुभव करने का लाभ मिलेगा, निश्चित ही सभी रुचिवान पाठक श्रृंखला के क्रम से ऐसा अनुभव करेंगे कि वे स्वयं ही पूज्यश्री के संघ के साथ चल रहे हों। प्रस्तुत सारा वर्णन "चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ" से ही प्रस्तुत किया जाता है। नियमित चल रही इस श्रृंखला से आपके अंदर हुई आपकी विशेष यथार्थ अनुभूतियों को आप सांझा कर सकते है जिससे प्रसंग श्रृंखला प्रस्तुतीकरण की उपयोगता का अनुभव होता रहे। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २५० ? "संघ विहार (शिखरजी की यात्रा)" कल के प्रसंग से पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की सन् १९२७ की शिखरजी यात्रा का उल्लेख प्रारम्भ हुआ था। कल शिखरजी विहार की विज्ञप्ति का उल्लेख प्रारम्भ हुआ था। आज आगे... १. यह संघ दक्षिण महाराष्ट्र से श्री शिखरजी पर्यन्त पैदल रास्ते से जायेगा। २. संघ के साथ आने वाले धर्म बांधवों की सर्व प्रकार की व्यवस्था की जाएगी। किसी को किसी प्रकार का कष्ट ना हो ऐसी सावधानी रखी जाएगी। ३. संघ रक्षण के लिए पोलिस का इंतजाम साथ में किया गया है। ४. संघ के साथ में श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा का समवशरण रहेगा। ५. संघ में धर्मोपदेश तथा धर्मचर्चा का योग रहे, इसलिए विद्वान पंडितों की योजना की गई है। ६. संघ में औषधि द्वारा रोग चिकित्सा का इंतजाम रहेगा। ७. संघ में भोजन सामान का इंतजाम रहेगा जिससे कि अतिथियों के योग्य शुद्ध समान भी मिल सके। ८. संघ में जो जितने दिन पर्यन्त चाहेंगे, रह सकेंगे। जो पूरी यात्रा करना चाहेंगे, उनका खास इंतजाम किया जाएगा। गरीब बांधवों की भी सर्व प्रकार की तजबीज रहेगी। इसलिए सर्व बांधवों को चाहिए कि वे इस मौके को जाने न दे। पुनः ऐसा लाभ ना मिलेगा। संघ के साथ यात्रा करने वाले श्रावकों को धर्मोपदेश, सुपात्रदान, तीर्थवंदना, आदि अपूर्व लाभ होंगे। त्यागी ब्रम्हचारी जनों को विशेषता से सूचित किया जाता है कि वे संघ में आकर शामिल हों, जिससे संघ की शोभा बढे। इसी प्रकार विद्वानों को भी संघ के साथ शामिल होना चाहिए। यही हमारी प्रार्थना है।" -समाज सेवक पूनमचंद घासीलाल जौहरी, जौहरी बाजार, बम्बई नं. २ ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४९ ? "शिखरजी बिहार की विज्ञप्ति" सम्पूर्ण बातों का विचार कर ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर संघ के साथ विहार की स्वीकृति दी थी। यह समाचार कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा वीर संवत २४५३, सन १९२७ के दिन विज्ञप्ति रूप इन शब्दों में प्रकाश में आया: ?संघ विहार (शिखरजी की यात्रा)? "सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को सुनाते हुए आनंद होता है कि हम कार्तिक के आष्टनिहका पर्व के समाप्त होते ही मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका समवेत चतुर्विध संघ को चलाने वाले हैं। यह संघ कुम्भोज (बाहुबली पहाड़) कोल्हापुर दक्षिण की तरफ से निकलेगा और शिखरजी की यात्रार्थ प्रयाण करेगा। श्री रत्नत्रय पूत परमशांत दसलाक्षणिक धर्म विभूषित १०८ श्री आचार्य शान्तिसागर महराज मुनि संध सहित विहार करेंगे। इस संघ में तीन चार मुनि, तीन ऐलक व एक क्षुल्लक व करीब पाँच, छह ब्रम्हचारी तथा दो तीन आर्यिकाओं ने विहार करना निश्चय कर लिया है। इसके सिवाय और भी कुछ मुनि ब्रम्हचारी ऐलकों के इस मुनिसंघ के साथ में निकलने का अंदाज है। चतुर्थकाल के मुनीश्वरों का जैसा कुछ स्वरूप था ठीक वैसा ही स्वरूप परमशांत आचार्यश्री १०८ शान्तिसागर महराज का है। आज पर्यन्त यह दक्षिण में ही विहार करता था, परंतु भव्यों के पुण्योदय से अब आगे इनका विहार उत्तर भारत में होगा। इस कारण सर्व ही समाज को लाभ होगा। " शिखरजी विहार की विज्ञप्ति क्रमशः......... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४८ ? "शिखरजी वंदना का विचार" सन् १९२७ में कुम्भोज बाहुबली में चातुर्मास के उपरांत बम्बई के धर्मात्मा तथा उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचंद घासीलालजी जबेरी के मन में आचार्यश्री शान्तिसागर महराज के संघ को पूर्ण वैभव के साथ सम्मेदशिखरजी की वंदनार्थ ले जाने की मंगल भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने गुरुचरणों में प्रार्थना की। आचार्यश्री ने संघ को शिखरजी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। वैसे पहले भी महराज की सेवा में शिखरजी चलने की प्रार्थना की गई थी, किन्तु प्रतीत होता है कि काललब्धि उस समय नहीं आई थी और यही पुण्य निश्चय की मंगल बेला थी, इससे आचार्य महराज की अनुज्ञा प्राप्त हो गई। यह निश्चय जिसे भी ज्ञात हुआ, उसे आनंद और आश्चर्य दोनो प्राप्त हुआ। आनंद होना तो स्वाभाविक है, कारण धार्मिक समुदाय शिखरजी के आध्यात्मिक महत्व को सदा से मानता चला आ रहा है, तथा आगामी निर्वाण की महत्ता शिखरजी को ही प्राप्त होगी। यह हुंडावसर्पिणी काल का प्रभाव है जो चार तीर्थंकर दूसरे स्थान से मुक्त हुए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४७ ? "गुरु प्रभावशाली व्यक्तित्व" मुनिश्री आदिसागरजी महराज ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गुरु के बारे में बताया कि "देवप्पा स्वामी का ब्रम्हचर्य बड़ा उज्ज्वल था। वे सिद्धिसम्पन्न सत्पुरुष थे। मैंने गोकाक में उनकी गौरवगाथा सुनी थी। उनकी प्रमाणिकता का निश्चय भी किया था। वे गोकाक से कोंनुर जा रहे थे। वहाँ की भीषण पहाड़ी पर ही सूर्यास्त हो गया। उनके साथ एक उपाध्याय था। उसे कुग्गुड़ी पंडित कहते थे। स्वामी ने एक चक्कर खीचकर उपाध्याय को उसके भीतर सूर्योदय पर्यन्त रहने को कहा और वे भी उस घेरे के भीतर ध्यान के लिए बैठ गए।" ?शेर की गर्जना? रात्रि होने पर एक भयानक शेर वहाँ आया। उसने खूब गर्जना की, उपद्रव किए, किन्तु व्याघ्र घेरे के भीतर ना घुस सका। भय से उपाध्याय का बुरा हाल था, फिर भी वह घेरे से बाहर नहीं गया। दिन निकलने के बाद स्वामी कोन्नूर पहुँचे, तब उपाध्याय ने सब जगह उपरोक्त कथा सुनाई। इससे देवप्पा स्वामी का महत्व सूचित होता है। शुद्ध मुनिपद धारण कर उनकी आत्मा बहुत विकसित हुई। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४६ ? "उपयोगी उपदेश" पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने सन १९२५ में श्रवणबेलगोला की यात्रा की थी। उस यात्रा से लौटते समय आचार्य संघ दावणगिरि में ठहरा था। बहुत से अन्य धर्मी गुरुभक्त महराज के पास रस, दूध, मलाई आदि भेंट लेकर पहुँचे। रात्रि का समय था। चंद्रसागरजी ने लोगों से कहा कि महराज रात्रि को कुछ नहीं लेते हैं। वे लोग बोले- "महराज गुरु हैं। जो भक्तों की इच्छा पूर्ण नहीं करते, वे गुरु कैसे?" महराज तो मौन थे। वे भद्र परिणामी भक्त रात्रि को ढोलक आदि बजाकर भजन तथा गुरु का गुणगान करते रहे। दिन निकलने पर महराज का बिहार हो गया। वे लोग महराज के पीछे-पीछे गए। उन्होंने प्रार्थना की- "स्वामीजी ! कम से कम लोगों को उपदेश तो दीजिए।" उनका अपार प्रेम तथा उनकी योग्यता आदि को दृष्टि रखकर महराज ने उन लोगों के द्वारा गाए भजन के उनके परिचित कुछ शब्दों का उल्लेख कर कहा- "इन शब्दों के अर्थ का मननपूर्वक आचरण करो और अधिक से अधिक जीव दया का पालन करो, तुम्हारा कल्याण होगा।" इस प्रिय वाणी को सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए। महराज में यह विशेषता थी कि वे समय, परिस्थिति, पात्र, आदि का विचार कर समायोजित तथा हितकारी बात कहते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के प्रसंग से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के एक प्रसंग के माध्यम से भारत वसुधरा में विराजमान सभी साधु परमेष्ठीयों के जीवन में लगातार चलने वाले धोर तपश्चरण के एक बहुत सूक्ष्म अंश का अवलोकन करने का अवसर मिलता है। दूसरी बात हम इस तरह से सोच सकते है कि हमारे बीच से कोई सामान्य श्रावक ही आत्मबोध और जीवन के महत्व को समझकर इस तरह सुख के रास्ते पर आगे बढ़ता है। हम भी इसी तरह इंद्रिय सुखों की इच्छाओं को धीरे-२ कम करके अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४५ ? "मुनिश्री आदिसागर द्वारा संस्मरण" शेडवाल के (श्री बालगौड़ा देवगौड़ा पाटील) परमपूज्य मुनि आदिसागर महराज का सिवनी में २७ फरवरी, १९५७ को शिखरजी आते समय आगमन हुआ था। उन्होंने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के विषय में मेरी प्रार्थना पर बातें बताई: ?फोटो खिंचवाना? आदिसागरजी ने बताया- "एक बार मैं चिकोड़ी (बेलगाँव) में था। आचार्य महराज उस समय मुनि अवस्था में विराजमान थे। मैंने चिकोड़ी के अनेक गृहस्थों के साथ नसलापुर जाकर महराज से प्रार्थना की कि वे हमें फोटो खिंचवाने की मंजूरी प्रदान करें, जिससे हम परोक्ष में आपके दर्शन लाभ ले सकें। हमारी प्रार्थना स्वीकार हुई। फोटोग्राफर महराज के पास आया। उसने महराज से कहा- "महराज ! अच्छी फोटो के लिए, यह जगह ठीक नहीं है। दूसरा स्थान उचित है। वहाँ चलिए।" इसके साथ ही इस प्रकार खड़े रहिए आदि विविध प्रकार के सुझाव उपस्थित किए गए। महराज अनुज्ञा देकर वचनवद्ध थे। उन्होंने फोटोग्राफर के संकेतों के अनुसार कार्य किया। फोटो तो खींच गई, किन्तु इसके बाद एक विचित्र बात हुई।" ?मन को दंड? "उस समय महराज आहार में दूध, चावल तथा पानी के सिवाय कोई भी वस्तु आहार में नहीं लेते थे। फोटो खीचनें की स्वीकृति देने वाली मनोवृत्ति को शिक्षा देने के हेतु महराज ने एक सप्ताह के लिए दूध भी छोड दिया। बिना अन्य किसी पदार्थ के वे केवल चावल और पानी मात्र लेने लगे।" महराज ने बताया- "हमारे मन ने फोटो खिंचवाने की स्वीकृति दे दी। इसमें हमे अनेक प्रकार की पराधीनता का अनुभव हुआ। फोटोग्राफर के आदेशानुसार हमें कार्य करना पड़ा, क्योंकि हम वचनबद्ध हो चुके थे। हमने दूध का त्याग करके अपने मन को शिक्षा दी, जिससे वह पुनः ऐसी भूल करने को उत्साहित न हो।" इस प्रकरण से महराज की लोकोत्तर मनस्विता पर प्रकाश पड़ता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४४ ? "साधु विरोधी आंदोलन के संबंध में" एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य वर्धमान सागरजी कहने लगे- "आजकल साधु के चरित्र पर पत्रों में चर्चा चला करती है। उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषों का विवरण छपता है। इस विषय में उचित यह है कि अखबारों में यह चर्चा न चले, ऐसा करने से अन्य साधुओं का भी अहित हो जाता है। मार्ग-च्युत साधु के विषय में समाज में विचार चले, किन्तु पत्रों में यह बात न छपे। इससे सन्मार्ग के दोषी लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उन्होंने यह भी कहा था- "कि किसी भी साधु का आहार बंद नहीं करना चाहिए।" महराज ने कहा था- "मुनि धर्म बहुत कठिन है। मुनि होकर पैर फिसला, तो भयंकर पतन होता है। नेत्रों को जाग्रत रखना चाहिए। ज्ञान आदि की बातों में चूक हो गई, तो उतनी हानि नहीं होती, जितनी संयम-पालन में प्रमाद करने पर होती है। तलवार की धार पर सम्हलकर पैर रखा, तो ठीक है, नहीं तो पैर नियम से कट जाता है। मुनिपद में चारित्र को बराबर पालना चाहिए।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४२ ? "अपूर्व केशलोंच" ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के भाई, उस समय के मुनिश्री वर्धमान सागरजी के केशलोंच के समय का वर्णन किया - ता. १८ फरवरी सन १९५७ को वर्धमानसागर जी ने केशलोंच किया। उस समय उनकी उम्र ९० वर्ष से अधिक थी। दूर-दूर से आये हजारों स्त्री-पुरुष केशलोंच देख रहे थे। मैंने देखा कि आधा घंटे के भीतर ही उन्होंने केशलोंच कर लिया। किसी की सहायता नहीं ली। चेहरे पर किसी प्रकार की विकृति नहीं थी। धीरता और गंभीरता की वे मूर्ति थे। जैसे कोई तिनका तोड़ना है, उस तरह झटका देते हुए सिर तथा दाढ़ी के बालों को उखाड़ते जाते थे। लो ! केशलोंच हो गए। उन्होंने पिच्छी हाथ में लेकर जिनेन्द्र को प्रणाम किया, तीर्थंकरों की वंदना की। अब उनका मौन नहीं है, ऐसा सोचकर धीरे से मैंने पूंछा- "महराज अभी आप केशलोंच कर रहे थे, उस समय आपको पीढ़ा होती थी कि नहीं?" उत्तर - "अरे बाबा, रंच मात्र भी कष्ट नहीं होता था। लेशमात्र भी वेदना नहीं थी। हमें ऐसा नहीं मालूम पड़ता था कि हमने अपने केशों का लोंच किया है। हमें तो ऐसा लगा की मस्तक पर केशों का समूह पड़ा था, उसे हमने अलग कर दिया। बताओ हमने क्या किया? देखो, एक मर्म की बात बताते हैं। शरीर पर हमारा लक्ष्य नहीं रहता है। केशलोंच शुरू करने के पहले हमने जिन भगवान का स्मरण किया और शरीर से कहा, अरे शरीर ! हमारी आत्मा जुदी है, तू जुदा । 'कां रड़तोस' (अरे क्यों रोता है)? हमारा तेरा क्या सम्बन्ध? बस, केशलोंच करने लगे। हमें ऐसा मालूम नहीं पड़ा कि हमने अपना केशलोंच किया है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४१ ? "अद्भुत समाधान" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी से एक दिन किसी ने पूंछा- "महराज ! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर कोई कार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए कि नहीं? उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्ति मात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम। अरे दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश प्रमत्त बनकर विपरीत प्रवृत्ति कर रहा है। उसका न तिरस्कार न पुरुस्कार ही करें। भक्तिपूर्वक ऐसे व्यक्ति की सेवा नहीं करना चाहिए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी - २४० ? "निरंतर आत्मचिंतन" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के जीवन का उल्लेख चल रहा था। उसी क्रम में आगे- पूज्य पायसागरजी महराज आत्मध्यान में इतने निमग्न होते थे कि उनको समय का भान नहीं रहता था। कभी-कभी चर्या का समय हो जाने पर भी वे ध्यान में मस्त रहते थे। उस समय कुटी की खिड़की से कहना पढ़ता था कि महराज आपकी चर्या का समय हो गया। इस अवस्था वाले पायसागर महराज के चित्र से क्या पूर्व के व्यसनी नाटकी रामचंद्र गोगाककर के जीवन की तुलना हो सकती है? जिस प्रकार राहु और चंद्र में तुलना असंभव है, इसी प्रकार उनके पूर्व जीवन तथा वर्तमान में रंच मात्र भी साम्य नहीं था। तप, स्वाध्याय तथा ध्यान के द्वारा उनका जीवन स्वर्ण के समान मोहक बन गया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३९ ? "गुरुदेव की पावन स्मृति" पूज्य पायसागरजी महराज की अपने गुरु पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति बड़ी भक्ति थी। उनका उपकार वे सदा स्मरण करते थे। प्रायः उनके मुख से ये शब्द निकलते थे, "मैंने कितने पाप किए? कौन सा व्यसन सेवन नहीं किया? मै महापापी ना जाने कहाँ जाता? मैं पापसागर था। रसातल में ही मेरे लिए स्थान था। मैं वहाँ ही समा जाता। मेरे गुरुदेव ने पायसागर बनाकर मेरा उद्धार कर दिया।" ऐसा कहते-कहते उनके नेत्रों में अश्रु आ जाते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३८ ? "मृत्यु की पूर्व सूचना" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के वृतांत चल रहा था। उसी क्रम में आगे- पायसागर महराज कहते थे- "मेरा समय अब अति समीप है। मै कब चला जाऊँगा, यह तुम लोगों को पता भी नहीं चलेगा।" हुआ भी ऐसा ही। प्रभातकाल में वे आध्यात्मप्रेमी साधुराज ध्यान करने बैठे। ध्यान में वे मग्न थे। करीब ७.३० बजे लोगों ने देखा, तो ज्ञात हुआ कि महान ज्ञानी, आध्यात्मिक योगीश्वर पायसागर महराज इस क्षेत्र से चले गए। पंक्षी पिजरा छोड़ कर चला गया। वास्तव में उन्होंने लोहतुल्य जीवन को स्वर्णरुपता प्रदान कर दिव्य पद प्राप्त किया। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - पौष शुक्ल षष्ठी? ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, धन्य हैं ऐसे मुनिराज और धन्य हैं ऐसे जीव जिन्होंने जीवन भर घोर तपश्चरण किया और भली भाँति संयम साधना करते हुए कुछ ही क्षणों में अपनी नश्वर देह को त्याग कर अपनी मोक्ष यात्रा में आगे बढ़े। सचमुच अद्भुत है पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज का जीवन चरित्र। पायसागरजी महराज की भाँति अन्य मुनिराजों का भी जीवन चरित्र है जो ऐसी अवस्था से संयम मार्ग में आगे बढ़े जिसमें सामान्यतः हम सभी कल्पना भी नहीं करते है, यह सब चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्यजीवन का ही प्रभाव था। ??पू.शान्तिसागरजी महराज की जय??
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३७ ? "आचार्यश्री के बारे में उदगार" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागरजी पावन जीवन वृतांत को हम सभी कुछ दिनों से जान रहे हैं। आचार्यश्री में उनकी अपार भक्ति थी। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के स्वर्गारोहण के उपरांत मुनि श्री पायसागर महराज के उदगार इस प्रकार थे- वे कहते थे- "मेरे गुरु चले गए। मेरे प्रकाशदाता चले गए। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले चले गए। मेरे दोषों का शोधन करके उपगूहन पूर्वक विशुद्ध बनाने वाली वंदनीय विभूति चली गई। मेरे धर्म पिता चले गए। मुझे भी उनके मार्ग पर जाना है।" उनकी समाधि की स्मृति में उन्होंने गेहूँ का त्याग उसी दिन से कर दिया था। उसके पश्चात उन्होंने जंगल में ही निवास प्रारम्भ कर दिया था। वे नगर में पाँच दिन से अधिक नहीं रहते थे। उनकी दृष्टि में बहुत विशुद्धता उत्पन्न हो गई थी। ?आत्मप्रभावना? वे कहते थे- "अब तक मेरी बाहरी प्रभावना खूब हो चुकी। मैं इसे देख चुका। इसमें कोई आनंद नहीं है। मुझे अपनी आत्मा की सच्ची प्रभावना करनी है। आत्मा की प्रभावना रत्नत्रय की ज्योति के द्वारा होती है। इस कारण में इस पहाड़ी पर आया हूँ। मै अब एकांत चाहता हूँ। ?आत्मपरिवार? अपने आत्म परिवार के साथ मैं एकांत में रहना चाहता हूँ। शील, संयम, दया, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्यादि मेरी आत्मपरिवार की विभूतियाँ हैं। मैं उनके साथ खेल खेलना चाहता हूँ। इससे में असली आनंद का अमृत पान करूँगा। मैं कर्मो का बंधन नहीं करना चाहता। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३६ ? "आचार्य महराज की विशेषता" मुनिश्री पायसागरजी महराज ने कहा- "आचार्य महराज की मुझ पर अनंत कृपा रही। उनके आत्मप्रेम ने हमारा उद्धार कर दिया। महराज की विशेषता थी कि वे दूसरे ज्ञानी तथा तपस्वी के योग्य सम्मान का ध्यान रखते थे। एक बार मैं महराज के दर्शनार्थ दहीगाव के निकट पहुँचा। मैंने भक्ति तथा विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया। महराज ने प्रतिवंदना की।" मैंने कहा- "महराज मैं प्रतिवंदना के योग्य नहीं हूँ।" महराज बोले- "पायसागर चुप रहो। तुम्हे अयोग्य कौन कहता है? मै तुम्हारे ह्रदय को जनता हूँ।" महराज के अपार प्रेम के कारण मेरा ह्रदय शल्य रहित हो गया। मेरे गुरु का मुझ पर अपार विश्वास था। ?अपार प्रायश्चित्त? मैंने कहा- "बहुत वर्षों से गुरुदेव आपका दर्शन नहीं मिला। मै आपके चरणों में आत्मशुद्धि के लिए आया हूँ। मैं अपने को दोषी मानता हूँ। मैं अज्ञानी हूँ। गुरुदेव आपसे प्रायश्चित की प्रार्थना करता हूँ। महराज ने कहा- "पायसागर ! चुप रहो। हमें सब मालूम है। तुमको प्रायश्चित्त देने की जरूरत नहीं है। आज का समाज विपरीत है। तू अज्ञानी नहीं है। तुझे अयोग्य कहता है। मैं तेरे को कोई प्रायश्चित नहीं देता हूँ। प्रायश्चित को नहीं भूलना, यही प्रायश्चित है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य पायसागरजी महराज के जीवन वृत्तांत के क्रम आज के प्रसंग में कल के प्रसंग के कुछ अंशों का पुनः समावेश प्रसंग को स्पष्ट बनाने हेतु किया गया है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३५ ? "नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता" उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बाद मैंने सन १९२९ में सोनागिरि में दिगम्बर मुनि की दीक्षा ली। उन्होंने कहा, "आचार्यश्री महान योगी थे। उनकी पावन दृष्टि से मुझ जैसे पतित आत्मा का जीवन पवन बन गया। उनकी अद्भुत शांत परणति, मृदुल एवं प्रिय वाणी से मेरे जीवन में आध्यात्मिक क्रांति हुई। मैंने कभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज में उग्रता या तीव्रकषाय का दर्शन नहीं किया। उनकी वाणी बड़ी मार्मिक होती थी। जिज्ञासु की विविध प्रश्नमलिकाओं का समाधान उनके एक ही उत्तर से हो जाता था। जीवन की उलझनों को सुलझाने की अपूर्व कला उनमें थी। लगभग २२ वर्ष से मैं गुरुदेव के चरणों के प्रत्यक्ष सानिध्य में नहीं हूँ। यधपि मैं उनके पाद-पद्मों की सर्वदा वंदना करता हुआ अंतर्दृष्टि द्वारा दर्शन करता रहता हूँ। जब मैं उनके संग में था,उस समय उनका शास्त्र-वाचन इतना अधिक नहीं हुआ था, किन्तु अपने निर्मल अनुभव के आधार पर वे जो बात कहते थे, उसकी समर्थक सामग्री शास्त्रों में मिल जाती थी। इस प्रकार उनका अनुभव सत्य के स्वरूप का प्रतिपादन करता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का भाव सर्वदा अंकित पाया जाता था। वे साम्यवाद के भंडार रहे हैं। उनमें भक्त पर तोष और शत्रु पर रोष नहीं पाया जाता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रतिदिन प्रसंग भेजने का उद्देश्य सभी के मन में अपने आचार्यों के जीवन चरित्र को जानने के हेतु रूची जाग्रत करना है। प्रस्तुत प्रसंग पूज्य शान्तिसागरजी महराज की जीवनी "चारित्र चक्रवर्ती" ग्रंथ से लिए जाते हैं। आप उस ग्रंथ का अध्यन करके क्रमबद्ध तरीके से शान्तिसागरजी महराज के उज्ज्वल चरित्र को जानने का लाभ ले सकते हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३४ ? "मुनिश्री पायसागरजी का जीवन- प्रसंग- ५" आज का प्रसंग पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज प्रतिदिन चल रहे जीवन वृत्तांत का संबंधित आगे का भाग है। उन्होंने बताया- उस समय मैंने कहा, "महराज ! मैं शेडवाल की पाठशाला में जाकर पढ़ना चाहता हूँ।" उस समय सब को यह भय था कि यहाँ से जाकर यह फिर कभी अपनी सूरत नहीं दिखाएगा। उस समय मेरी जमानत बालगौड़ा ने ली। वहाँ से चलकर शेरोल ग्राम में रहा और रत्नकरण्डश्रावकाचार पढ़ना प्रारम्भ किया। मेरा अन्य शास्त्रों का पूरा-२ अभ्यास था ही। इससे तुलना करते हुए पढ़ने से शास्त्र के भावों को समझने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। मैं रात्रि को अभ्यास करता था और दिन में व्याख्यान देता था। मेरे उपदेश में बहुत लोग आने लगे। कुछ समय के बाद रुड़की के पंचकल्याणक महोत्सव में आचार्य महराज पहुँचे व मैं भी वहाँ आ गया। मुझे देखकर महराज ने पूंछा, "क्या सब कुछ पढ़कर आ गए? मैंने नम्रता पूर्वक कहा, "हाँ पढ़ आया। साथ के सभी त्यागी लोग हँस पड़े। मेरा जीवन सबके लिए पहले सरीखा था। जो मेरे पूर्व जीवन से परिचित था वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि मेरे जैसे विषयान्ध का जीवन भी इसी आध्यात्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा। उस समय महोत्सव में चंदसागरजी भाषण हुआ। इसके बाद मैंने उपदेश दिया, जिससे जनता मेरी ओर आकर्षित हुई। ?नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता? उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बाद मैंने सन १९२९ में सोनागिरि में दिगम्बर मुनि की दीक्षा ली। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री पायसागर जी महराज के अद्भुत जीवन प्रसंग के वर्णन की श्रृंखला में आज चौथा दिन है। प्रतिदिन प्रसंग के आकार का निर्धारण मुख्य रूप से मेरे द्वारा प्रसंग टाइप करने की सुविधा तथा गौड़रूप से प्रसंग प्रस्तुती हेतु मनोविज्ञान पर आधारित होता है। प्रसंग अक्षरशः चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से प्रस्तुत किए जा रहे हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २३३ ? "आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य" मैंने शान्तिसागरजी महराज का जीवन बड़ी सूक्ष्मता के साथ अध्यन किया। उठते-बैठते, बोलते-चलते, उनकी सारी प्रवृत्तियों की बारीकी से जाँच की। उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मुझ आध्यात्मिक अंधे को सचमुच में नेत्रों की उपलब्धि हो गई हो। मेरा मन उनके चरण-कमलों की सुवास छोड़कर अन्यत्र निवास करना नहीं चाहता था। मैंने उनसे मद्य, मांस तथा मधु के सेवन के त्याग का नियम लिया। हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री सेवन व अतिलोभ का त्याग किया तथा जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की प्रतिज्ञा की। ?एक माह में सप्तम प्रतिमा और दूसरे में ऐलक दीक्षा ली? मेरी आत्मा पर इतना प्रभाव पड़ा कि मुझ जैसे स्वछन्द तथा उद्दण्ड व्यक्ति ने आजीवन ब्रम्हचर्य का नियम ले लिया। अब मै सप्तमप्रतिमा धारी ब्रम्हचारी बन गया। सभी लोग मेरा तीव्र विरोध करते थे और महराज से कहते थे, "यह बड़ा व्यसनी तथा उदण्ड रहा है। यह फौजदार तक को मार देता है। यह अवगुणों का भंडार है। इसमें एक ही विशेषता है कि जिस बात को पकड़ लेता है उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ता।" आचार्य महराज महान मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से मेरे प्रसुप्त समर्थ को देख लिया, इसलिए मुझे व्रत देने में लोगों के विरोध की और ध्यान नहीं दिया। दूसरे माह में मैंने ऐलक दीक्षा माँगी और महराज ने मुझे कृतार्थ कर दिया। उस समय मैंने केशलौंच जंगल में किये थे। मेरी स्थिरता देखकर महराज को निश्चय हो गया कि यह व्रतों का पूर्णतः पालन कर सकेगा। उस समय चंद्रसागरजी ने मुझ पर आक्षेप किया और महराज से कहा कि, "इसे प्रतिमाओं का स्वरूप भी नहीं मालूम है, यह ऐलक पद का निर्वाह करेगा?" क्रमशः........... ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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