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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०७ ? "जन्मभूमि में भी वंदित" कल के प्रसंग में हमने देखा की गृहस्थ जीवन से ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज की विशेष सत्यनिष्ठा के कारण कितनी मान्यता थी। इस सत्यनिष्ठा, पुण्य-जीवन आदि के कारण भोजवासी इनको अपने अंतःकरण का देवता सा समझा करते थे। इनके प्रति जनता का अपार अनुराग तब ज्ञात हुआ, जब इस मनस्वी सत्पुरुष ने मुनि बनने की भावना से भोज भूमि की जनता को छोड़ा था। आज भी भोज के पुराने लोग इनकी गौरव गाथा को कहते हुए बताते हैं, "हमारे यहाँ का सूर्य चला गया।" जगत पूज्य व्यक्ति भी अपने स्थान में वंदित नहीं होता, ऐसीसूक्ति है। किन्तु सर्वत्र यह नियम नहीं देखा जाता। ये प्रकृति सिद्ध महात्मा उस लोकोक्ति के बंधन से विमुक्त थे, कारण इनकी जन्मभूमि की जनता इनको देवता तुल्य, पूज्य तथा वंदनीय मानती थी। अंग्रेजी की प्रसिद्ध कहावत है कि "अपनी जन्मभूमि तथा अपने घर को छोड़कर सर्वत्र पैगम्बर पूजा जाता है।" आचार्यश्री के जीवन में यह बात नहीं थी। वे छोटे से कुटुम्ब तथा स्नेहीजनों का साथ छोड़कर जगत भर के प्रति मैत्री की भावना धारण कर, जब विश्वबंधु बनने गए, उस समय भोजग्राम तथा आसपास के हजारों व्यक्ति इस प्रकार रोये थे, मानो उनका सगा बंधु ही जा रहा हो। यह इस बात का द्योतक कि पूज्यश्री का जीवन प्रारम्भ से ही असाधारण तथा सद्गुणों का निकेतन रहा है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०६ ? "सत्य की आदत" पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा, "बचपन से ही हमारी सत्य का पक्ष लेने की आदत रही है। हमने कभी भी असत्य का पक्ष नहीं लिया। अब तो हम महाव्रती मुनि हैं। हम अपने भाइयों अथवा कुटुम्बियों का पक्ष लेकर बात नहीं करते थे। सदा न्याय का पक्ष लेते थे, चाहे उसमे हानि हो। इस कारण जब भी लेन देन में वस्तुओं के भाव आदि में झगड़ा पड़ जाता था, तब लोग हमारे कहे अनुसार काम करते थे। रुद्रप्पा हमारे पास आया करता था। हमारी धर्म की चर्चा होती थी। हम कभी लौकिक चर्चा या विचार नहीं करते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. ☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं, प्रस्तुत प्रसंग में अंतिम पैराग्राफ को अवश्य पढ़ें। उसको पढ़कर आपको दिगम्बर मुनि महराज की चर्या में सूक्ष्मता का अवलोकन होगा तथा ज्ञात होगा कि मुनि महराज के लिए शरीर महत्वपूर्ण नहीं होता, उनके लिए महत्वपूर्ण होता है तो केवल अहिंसा व्रतों का भली भाँति पालन। अहिंसा व्रतों के भली-भांती पालन हेतु अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं। यह बात पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को देखकर अवश्य ही सभी को स्पष्ट हो जायेगी। ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०५ ? "अपूर्व तीर्थ भक्ति" पूज्य शान्तिसागरजी महराज की तीर्थ भक्ति अपूर्व थी। तीर्थस्थान के दर्शन करना तथा वहाँ निर्वाणप्राप्त आत्माओं का स्तवन करना तो प्रत्येक भक्त की कृति में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु तीर्थ स्थान जाकर अपार विशुद्धि प्राप्त कर आत्मा को समुन्नत बनाने के लिए संयम भाव की शरण कितने व्यक्ति लिया करते हैं? गृहस्थ जीवन में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के तीर्थ वंदना के त्याग को जानने के लिए प्रसंग क्रमांक ५ पढ़ें। ?निर्वाण स्थल की ओर आकर्षण? ग्रंथ में १९४५ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आज भी निर्वाण स्थल की ओर उनकी आत्मा विशेष आकर्षित हो रही है। उन्होंने १९४५ में फलटण के चातुर्मास के समय हमसे पूंछा था कि समाधि के योग्य कौन सा स्थान अच्छा होगा? मैंने कहा, "महराज मेरे ध्यान से श्रवणवेलगोला का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ भगवान बाहुबलि की त्रिभुवन मोहनी मूर्ति विराजमान है।" महराज ने कहा, "हमारा ध्यान निर्वाण भूमि का है।" मैंने कहा, "इस दृष्टि से वीर भगवान का निर्वाण स्थान पावापुरी अधिक अनुकूल रहेगा।" महराज ने कहा, "वह स्थान बहुत दूर है, अब हमारा वहाँ पहुँचना संभव नहीं दिखता। इसका विशेष कारण यह है कि हमारे नेत्रों में कांच बिंदु (Glocoma) नाम का रोग हो गया है, जो अधिक चलने से बढ़ता है। उससे नेत्रो की ज्योति मंद होती जा रही है। यदि दृष्टि की शक्ति अत्यंत क्षीण हो गई, तो हमें समाधि मरण लेना होगा।" इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा, "देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईर्या समिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असंभव हो जायेगा। इससे चतुर्विध आहार का त्याग करना आवश्यक होगा।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०४ ? "लौकिक जीवन भी प्रामाणिक जीवन था" पूज्य शांतिसागरजी महराज का गृहस्थ अवस्था में लौकिक जीवन वास्तव में अलौकिक था। लोग लेन-देन के व्यवहार में इनके वचनों को अत्यधिक प्रामाणिक मानते थे। इनकी वाणी रजिस्ट्री किए गए सरकारी कागजातों के समान विश्वसनीय मानी जाती थी। इनके सच्चे व्यवहार पर वहाँ के तथा दूर-दूर के लोग अत्यंत मुग्ध थे। ?खेती के विषय में चर्चा? मैंने पूंछा "महराज ! हिन्दी भाषा के प्राचीन पंडितों ने लिखा है कि श्रावक को खेती नहीं करनी चाहिए, उसे सोना, चाँदी, माणिक, मोती आदि का व्यापार करना चाहिए। क्या जैन धर्म में गरीबों का कोई ठिकाना नहीं? खेती आदि का व्यवसाय तो राष्ट्र का जीवन है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज बोले "खेती का हमें स्वयं अनुभव है, उसमें परिणाम जितने सरल रहते हैं, उतने अन्य व्यवसाह में नहीं रहते हैं। अन्य धंधों में बगुले की तरह ध्यान रहता है, दुकानदार चुप बैठा रहता है, किन्तु उसका ध्यान सदा ग्राहक की ओर लगा रहता है। ग्राहक दिखा कि वह उसके पीछे लगा। इन धंधों में हजारों प्रकार का मायाचार होता है। गृहस्थ गद्दी पर चुपचाप बैठे हुए ग्राहक का ध्यान करता है। बड़ी बड़ी गद्दी वाले हजारों लोग मायाचार पूर्वक धन को लेते हैं। सोना चाँदी के व्यापार में भी ऐसे ही भाव रहते हैं।" खेती के विषय में कुंदकुंद स्वामी रचित कुरल काव्य का कथन बड़ा महत्वपूर्ण है, उसमें कृषि के महत्व पर बड़ी मार्मिक बात कही गई है- उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग। और कमाई अन्य की, खाते बाकि लोग।। निज कर को यदि खीच ले, कृषि से कृषक समाज। गृह त्यागी अरु साधु के, टूटे सिर पर गाज।। जोतो नान्दो खेत को, खाद बड़ा परतत्व। सींचे से रक्षा उचित, रखती अधिक महत्व।। पाप का कारण मनोवृत्ति है, न कि द्रव्य हिंसा। आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक महाकाव्य में लिखा है- "परिणाम विशेष वश जीव का घात न करता हुआ धीवर पाप का बंध करता है, किन्तु किसान कृषि में जीव घात होते हुए भी प्राणघाती मनोंवृत्ति न धारण करने के कारण धीवर के समान पाप को नहीं प्राप्त करता है।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०३ ? "आचार्यश्री जिनसे प्रभावित थे ऐसे आदिसागर मुनि का वर्णन" पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने एक आदिसागर (बोरगावकर) मुनिराज के विषय में बताया था कि वे बड़े तपस्वी थे और सात दिन के बाद आहार लेते थे। शेष दिन उपवास में व्यतीत करते थे। यह क्रम उनका जीवन भर रहा। आहार में वे एक वस्तु ग्रहण करते थे। वे प्रायः जंगल में रहा करते थे। जब वे गन्ने का रस लेते थे, तब गन्ने के रस के सिवाय अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करते थे। उनमें बड़ी शक्ति थी। उनकी आध्यात्मिक पदों को गाने की आदत थी। वे कन्नड़ी भाषा में पदों को गाया करते थे। वे भोज में आया करते थे। जब वे भोज में आते थे और हमारे घर में उनका आहार होता था, तब वे उस दिन हमारी दुकान में रहते थे। वहाँ ही वे रात्रि में सोते थे। हम भी उनके पास में सो जाते थे। हम निरंतर उनकी वैय्यावृत्ति तथा सेवा करते थे। दूसरे दिन हम उनको दूधगंगा, वेदगंगा नदी के संगम के पास तक पहुंचाते थे। बाद में हम उन्हें अपने कंधे पर रखकर नदी के पार ले जाते थे। मैंने पूंछा, "महराज ! एक उन्नत काय वाले मनुष्य को अपने कंधे पर रखकर ले जाने में आपके शरीर को बड़ा कष्ट होता होगा?" महराज ने कहा, "हमें रंच मात्र भी पीड़ा नहीं होती थी।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०२ ? "आचार्यश्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति मुनि का वर्णन" एक बार मैंने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके गुरु के बारें में पूंछा था तब उन्होंने बतलाया था कि "देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से हमने जेठ सुदी १३ शक संवत १८३७ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी तथा फाल्गुन सुदी एकादशी शक संवत १८७१ में मुनि दीक्षा ली थी। वे बाल ब्रम्हचारी थे, सोलह वर्ष की अवस्था में सेनगण की गद्दी पर भट्टारक बने थे। उस समय उन्होंने सोचा था कि गद्दी पर बैठे रहने से मेरी आत्मा का क्या हित सिद्ध होगा, मुझे तो झंझटों से मुक्त होना है, इसीलिए दो वर्ष बाद उन्होंने निर्ग्रन्थ वृत्ति धारण की थी। उन्होंने जीवन भर आहार के बाद उपवास और उपवास के बाद आहार रूप पारणा-धारणा का व्रत पालन किया था।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  7. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०१ ? "शेर आदि का उनके पास प्रेम भाव से निवास व ध्यान कौशल" पूज्य शान्तिसागरजी महराज गोकाक के पास एक गुफा में प्रायः ध्यान किया करते थे। उस निर्जन स्थान में शेर आदि भयंकर जंतु विचरण करते थे। प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को उपवास तथा अखंड मौन धारण कर ये गिरी कंदरा में रहते थे। वहाँ अनेक बार व्याघ्र आदि हिंसक जंतु इनके पास आ जाया करते थे, किन्तु साम्यभाव भूषित ये मुनिराज निर्भीक हो आत्मध्यान में संलग्न रहते थे। गोकाक के पास कोंनुर की गुफा में भी सर्प ने आकर इन पर उपसर्ग किया था, किन्तु ये मुनिराज अपने साम्यभाव से विचलित नहीं हुए। महराज जब ध्यान में मग्न होते थे, तब उनकी तल्लीनता को वज्र द्वारा भी भंग नहीं किया जा सकता था। एक समय वे आषाढ वदी अष्टमी को समडोली में अष्टमी की संध्या से जो ध्यान में बैठे, तो नवमीं की प्रभात तक नही उठे। दस बजे तक लोगों ने प्रतीक्षा की, पश्चात चिंतातुर भक्तों ने दरवाजा तोड़कर भीतर घुसकर देखा तो महराज ध्यान में ही मग्न पाये गए। उस समय हल्ला होने पर भी उनकी समाधि भंग नहीं हुई थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  8. ? अमृत माँ जिनवाणी से - २०० ? "प्रगाढ़ श्रद्धा" कलिकाल के कारण धर्म पर बड़े-बड़े संकट आये। बड़े-बड़े समझदार लोग तक धर्म को भूलकर अधर्म का पक्ष लेने लगे, ऐसी विकट स्थिति में भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज की दृष्टि पूर्ण निर्मल रही और उनने अपनी सिंधु तुल्य गंभीरता को नहीं छोड़ा। वे सदा यही कहते रहे कि जिनवाणी सर्वज्ञ की वाणी है। वह पूर्ण सत्य है। उनके विरुद्ध यदि सारा संसार हो, तो भी हमें कोई डर नहीं है। उनकी ईश्वर भक्ति तथा पवित्र तपश्चर्या से बड़े-बड़े संकट नष्ट हुए हैं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पुण्य चरणों की भक्ति तथा उनके आदेश-उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करने से आध्यात्मिक शांति तथा लौकिक समृद्धि मिलती है। यह अतिश्योक्ति नहीं है। इस सत्य को मैंने अनेकों गुरुभक्तों के जीवन में चरितार्थ होते हुए देखा है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज का महान व्यक्तित्व तथा पुण्यजीवन इस पंचमकाल में धर्मप्रचुर चतुर्थकाल की पुनरावृत्ति सा करता हुआ प्रतीत होता था। आज के युग में वे धर्म के सूर्य हैं, दया के अवतार हैं, मैं उनके चरणों को सदा प्रणाम करता हूँ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  9. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९९ ? "आगम के भक्त" एक बार लेखक ने आचार्य महराज को लिखा कि भगवान भूतबली द्वारा रचित महाधवल ग्रंथ के चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, उस समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज को शास्त्र संरक्षण अकी गहरी चिंता हो गई थी। उस समय मैं सांगली में और वर्षाकाल में ही मैं उनकी सेवा में कुंथलगिरी पहुँचा। बम्बई से सेठ गेंदनमलजी, बारामती से चंदूलालजी सराफ तथा नातेपूते से रामचंद्र धनजी दावड़ा वहाँ आये थे। उनके समक्ष आचार्य महराज ने अपनी अंतर्वेदना व्यक्त करते हुए कहा - "धवल महाधवल महावीर भगवान की वाणी है। उसके चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, ऐसा पत्र सुमेरचंद शास्त्री का मिला, इसलिए आगामी उपाय ऐसा करना चाहिए जिससे कि ग्रंथों को बहुत समय तक कोई क्षति प्राप्त ना हो। इसलिए इनको ताम्रपत्र में लिखवाने की योजना करना चाहिए, जिससे हजारों वर्ष पर्यन्त सुरक्षित रहें। इस कार्य में लाख रुपये से भी अधिक लग जाये, तो भी परवाह नहीं करना चाहिए।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९८ ? "अपार तेजपुंज-२" भट्टारक जिनसेन स्वामी ने बताया कि एक धार्मिक संस्था के मुख्य पीठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थीं। उन समस्याओं में गुरुराज शान्तिसागरजी महराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वथा सुगम बना है। अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होंने मुझे श्रेष्ठ संयम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणा पूर्ण उपदेश दिया। मेरे जीवन का ऐसा दिन अब तक नहीं बीता है, जिस दिन उन साधुराज का मंगल स्मरण नहीं आया हो। उनकी पावन स्मृति मेरे जीवन की पवित्र निधि हो गई है। उस पावन स्मृति से बड़ी शांति व अवर्णनीय आह्लाद प्राप्त होता है। उस समय मठ की संपत्ति तथा उसकी आय के उपयोग के विषय में उनसे प्रश्न किया, तब महराज ने कहा कि धार्मिक संपत्ति का लौकिक कार्यों में व्यय करना दुर्गति तथा पाप का कारण है। मेरे मार्ग में विघ्नों की राशि सदा आई, किन्तु गुरुदेव के आदेशानुसार प्रवृत्ति करने से मेरा काम शांतिपूर्ण होता रहा। शास्त्र संरक्षण में उनका विश्वास था कि इस कलिकाल में भगवान की वाणी के संरक्षण द्वारा ही जीव का हित होगा, इसीलिए वे शास्त्र संरक्षण के विषय में विशेष ध्यान देते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९७ ? "अपार तेज पुंज-१" पिछले प्रसंग में भट्टारक जिनसेन स्वामी द्वारा पूज्य शांतिसागरजी महराज के बारे में वर्णन को हम जान रहे थे। उन्होंने आगे बताया- पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनंद हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्म प्रकाश मिला उसका में वर्णन करने में असमर्थ हूँ। इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ। उनका तपस्वी जीवन चित्त को चकित करता था। उस समय वे एक दिन के अंतराल से एक बार केवल दूध चावल लिया करते थे। वे सदा आत्म-चिंतन, शास्त्र-स्वाध्याय तथा तत्वोपदेश में संलग्न पाये जाते थे। लोककथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, आदि से वे अलिप्त रहते थे। उनके उपदेश से आत्मा का पोषण होता था। उनका विषय प्रतिपादन इतना सरस और स्पष्ट होता था कि छोटे-बड़े, सभी के ह्रदय में उनकी बात जम जाती थी। उनके दिव्य जीवन को देखकर मैंने उनको अपना आराध्य गुरु मान लिया था। मैं उनके अनुशासन तथा आदेश में रहना अपना परम सौभाग्य मानता हूँ। मेरे ऊपर उनकी बड़ी दयादृष्टि थी। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९६ ? "अपार तेजपुंज" भट्टारक जिनसेन स्वामी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में अपना अनुभव इस सुनाया- सन् १९१९ की बात है, आचार्य शान्तिसागरजी महराज हमारे नांदणी मठ में पधारे थे। वे यहाँ की गुफा में ठहरे थे। उस समय वे ऐलक थे। उनके मुख पर अपार तेज था। पूर्ण शांति भी थी। वे धर्म कथा के सिवाय अन्य पापाचार की बातों में तनिक भी नहीं पड़ते थे। मैं उनके चरणों के समीप पहुँचा, बड़े ध्यान से उनकी शांत मुद्रा का दर्शन किया। उन्होंने मेरे अंतःकरण को बलवान चुम्बक की भाँति आपनी ओर आकर्षित किया था। नांदणी में हजारों जैन अजैन नर-नारियों ने आ-आकर उन महापुरुष के दर्शन किये थे। सभी लोग उनके साधारण व्यक्तित्व, अखंड शांति, तेजोमय मुद्रा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। उनका तत्व प्रतिपादन अनुभव की कसौटी पर कसा, अत्यंत मार्मिक तथा अन्तःस्थल को स्पर्श करने वाला होता था। लोग गंभीर प्रश्न करते थे, किन्तु उनके तर्क संगत समाधान से प्रत्येक शंकाशील मन को शांति का लाभ हो जाता था। उनकी वाणी मे उग्रता या कठोरता अथवा चिढ़चिढ़ापन रंचमात्र भी नहीं था। वे बड़े प्रेम से प्रसन्नता पूर्वक संयुक्तिक उत्तर देते थे। उस समय मेरे मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि इन समागत साधु चुडामणि को ही अपने जीवन का आराध्य गुरु बताएँ और इनके चरणों की निरंतर समाराधना करूँ। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९५ ? "दयाधर्म का महान प्रचार" मार्ग में हजारों लोग आकर इन मुनिनाथ पूज्य शान्तिसागरजी महराज को प्रणाम करते थे, इनने उन लोगों को मांस, मदिरा का त्याग कराया है। शिकार न करने का नियम दिया है। इनकी तपोमय वाणी से अगणित लोगों ने दया धर्म के पथ में प्रवृत्ति की थी। ?आध्यात्मिक आकर्षण? क्षुल्लक सुमतिसागरजी फलटण वाले सम्पन्न तथा लोकविज्ञ व्यक्ति थे।उन्होंने बताया- आचार्य महराज का आकर्षण अद्भुत था। इसी से उनके पास से घर आने पर चित्त उनके पुनःदर्शन को तत्काल लालायित हो जाता है। मैं सत समागम का अधिक लाभ लिया करता था। उन्होंने बताया कि उनका व्रतों की ओर विशेष ध्यान नहीं था। एक दिन की बात है कि अकलूज आदि स्थानों की बात करते करते, अचानक मेरे मुख से यह बात निकल की यदि अतिशय क्षेत्र दहीगाव में पंचकल्याणक महोत्सव होगा, तो मैं क्षुल्लक दीक्षा ले लूँगा। मेरे शब्द आचार्य महराज के कर्ण गोचर हो गए। उन्होंने मेरे अंतःकरण को समझ लिया। उसके पश्चात अकलूज का चातुर्मास हुआ। वहाँ उनके मर्मस्पर्शी उपदेश सुन सुनकर मेरी आत्मा में वैराग्य का भाव जग गए। हमने दीक्षा लेने का निश्चय किया। दहीगाँव का पंचकल्याणक हो चुका था। सर्वव्यवस्था करने के उपरांत हमने नान्दरे में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। यह मेरा पक्का अनुभव है कि आचार्य महराज के चरणों में निवास करने से जो शांति प्राप्त होती है, वह अन्यत्र नहीं मिलती है। पहले मेरे स्नेही लोग विनोद तथा उपहास करते हुए कहा करते थे कि मैं क्या दीक्षा लूँगा? किन्तु आचार्य महराज की वीतराग वाणी ने मेरे मोह ज्वर को दूर करके मेरी आत्मा का उद्धार कर दिया। उनके निमित्त से हम कृतार्थ हो गए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - मार्गशीर्ष कृष्ण ७?
  14. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९४ ? "व्यवहार कुशलता" पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महराज की व्यवहार कुशलता महत्वपूर्ण थी। सन् १९३७ में आचार्यश्री ने सम्मेदशिखरजी की संघ सहित यात्रा की थी, उस समय मैं उनके साथ-साथ सदा रहता था। सर्व प्रकार की व्यवस्था तथा वैयावृत्ति आदि का कार्य मेरे ऊपर रखा गया था। उस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के जीवन का पूर्णतया निरीक्षण किया और मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि श्रेष्ठ आत्मा में पाये जाने वाले सभी शास्त्रोक्त गुण उनमें विद्यमान हैं। प्रवास करते हुए मार्ग में कई बार जंगली जानवरों का मिलना हो जाता था, किन्तु महराज में रंच मात्र भी भय या चिंता का दर्शन नहीं होता था। उन जैसी निर्भीक आत्मा के आश्रय से सभी यात्री पूर्णतया भय विमुक्त रहे आते थे। जब जब मार्ग में बड़ी से बड़ी विपत्ति आई, तब तब हम आचार्य महराज का नाम स्मरण करके कार्य में उद्यत हो जाते थे और उनकी जय बोलते हुए काम करते थे, जिससे विध्न की घटा शीघ्र ही दूर हो जाती थी। प्रवास में अपार कष्ट होते हैं, किन्तु इन महान योगी के प्रताप से शुलों का भूलों में परिणमन हो जाता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९३ ? "महराज का पुण्य जीवन" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र जिनगौड़ा पाटील से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में जानकारी लेने पर उन्होंने बताया- हमारे घर शास्त्र चर्चा सतत चलती रहती थी। आचार्य महराज व्रती थे, इससे आजी माँ उनका विशेष ध्यान रखती थी। जब मैं ५-६ वर्ष का था, तब मुझे वे (महराज) दुकान के भीतर अपने पास सुलाते थे। वे काष्ठासन पर सोते थे। किन्तु मुझे गद्दे पर सुलाते थे। प्रभात में वे सामायिक करते थे व पश्चात मुझे जगाकर पंच णमोकार मंत्र पढ़ने को कहते थे। वे मुझे रत्नक्रण्ड श्रावकाचार कंठस्थ कराते थे। वे अनेक प्रकार के सदुपदेश मुझे देते थे। प्रभात में मैं स्कूल चला जाता था। मध्यान्ह में लौटकर आता था। उस समय महराज अपने पास बैठकर मुझे भोजन कराते थे, वे दूसरी थाली में मौन से एक ही बार भोजन करते थे। दोपहर में वे मुझे कुछ पढ़ाते थे। पश्चात वे मुझे किसमिस, बादाम, खोपरा, मिश्री आदि खिलाते थे, किन्तु वे खुद भी नहीं खाते थे। संध्या के समय महराज मुझे खेत की ओर, तो कभी-२ मैदान की तरफ घुमाने ले जाते थे। आजी माँ की मृत्यु के बाद महराज दुकान में रात्रि को शास्त्र पढ़ते थे। उसी वक्त उनका मित्र रुद्रप्पा आया करता था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९२ ? "मुनिभक्त" सातगौड़ा मुनिराज के आने पर कमण्डलु लेकर चलते थे और खूब सेवा करते थे। हजारों आदमियों के बीच में स्वामी का इन पर अधिक प्रेम रहा करता था। वे भोजन को घर में आते तथा शेष समय दुकान पर व्यतीत करते थे। वहाँ वे पुस्तक बाँचने में संलग्न रहते थे। उनकी माता का स्वभाव बड़ा मधुर था। वे हम सब लड़कों को अपने बेटे के समान मानती थी। वे हमें कहती थी, "कभी चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, अधर्म नहीं करना। उनके घर में घी, दूघ का विपुल भंडार रहता था।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९१ ? "गरीबों के उद्धारक" पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दीक्षा लेने के उपरांत गाँव में पुराने लोगों में जब चर्चा चलती थी, तब लोग यही कहते थे कि हमारे गाँव का रत्न चला गया। गरीब लोग आँखों से आँसू बहाकर यह कहकर रोते थे कि हमारा जीवन दाता चला गया। शूद्र लोग उनके वियोग से अधिक दुखी हुए थे, क्योंकि उन दीनों के लिए वह करुणासागर थे। वे कहते थे कि अभी तक हममें जो कुछ अच्छी बातें हैं, उसका कारण वह स्वामीजी ही हैं। हमने कभी चोरी नहीं की, मिथ्या भाषण भी नहीं किया, कुशील सेवन भी नहीं किया तथा दूसरों की बहु बेटियों को माता और बहिन की दृष्टि से देखा, इसका कारण महराज का पवित्र उपदेश है। वे कभी भी व्यर्थ बातें नहीं करते थे। गप्पें भी नहीं लगाया करते थे। हम सबको व्यर्थ की बातें करने से रोकते थे। स्वामी ने स्वप्न में दो तीन बार दर्शन दिए। अब जीवन में उनका दर्शन कहाँ होगा? यह सारा वृत्तांत ८० वर्ष के वृद्ध ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बारे में बताए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? ?आज की तिथी - मार्गशीर्ष कृष्ण ३? ☀ पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को प्रकाशित करने हेतु चल रही, प्रसंगों की श्रृंखला के संबंध में आप कोई सुधारात्मक सुझाव देना चाहें तो आप 9321148908 पर सुझाव भेज सकते हैं।
  18. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १९० ? "शांत प्रकृति" सातगौड़ा बाल्यकाल से ही शांत प्रकृति के रहे हैं। खेल में तथा अन्य बातों में इनका प्रथम स्थान था। ये किसी से झगडते नहीं थे, प्रत्युत झगड़ने वालों को प्रेम से समझाते थे। वे बाल मंडली में बैठकर सबको यह बताते थे कि बुरा काम कभी नहीं करना चाहिए। वे नदी में तैरना जानते थे। उनका शारीरिक बल आश्चर्य-प्रद था। उनका जीवन बड़ा पवित्र और निरुपद्रवी रहा है। वे कभी भी किसी को कष्ट नहीं देते थे। वे करुणा भाव पूर्वक पक्षियों को अनाज खिलाते थे। वे मेला, ठेला तथा तमाशों में नहीं आते थे। केवल धार्मिक उत्सवों में भाग लेते थे। हम लोगों को उपदेश देते थे कि अपना काम ठीक से करना चाहिए व व्यर्थ की बातों में नहीं पड़ना चाहिए। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८९ ? "शुद्रो पर प्रेमभाव" सातगौड़ा की अस्पृश्य शूद्रों पर बड़ी दया रहती थी। हमारे कुएँ का पानी जब खेत में सीचा जाता था, तब उसमें से शूद्र लोग यदि पानी लेते थे, तब हम उनको धमकाते थे और पानी लेने से रोकते थे, किन्तु सातगौड़ा को उन पर बड़ी दया आती थी। वे हमें समझाते थे और उन गरीबों को पानी लेने देते थे। खेतों के काम में उनके समान कुशल आदमी हमने दूर-दूर तक नहीं देखा। खेत में गन्ने बोते समय उनका हल पूर्णतः सीधी लाइन में चलता था। वे सबसे बड़े प्रेम से बोलते थे। पशुओं पर भी उनका बड़ा भारी प्रेम था। उनको ये दिल खोलकर खिलाते-पिलाते थे। इनके बैल हाँथी सरीखे मस्त होते थे। इनके सामने जो गरीब जाता था, उसको मुक्तहस्त होकर ये अनाज दिया करते थे। बस्ती में छोटे बड़े सभी लोग जरा भी इनके विरुद्ध नहीं थे। वे भगवान के यहाँ से ही साधु बनकर आये थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८८ ? "इन्होंने मिथ्यात्व का त्याग कराया" यहाँ पटिलों का प्रभाव सदा रहा है, किन्तु भेद नीति के कारण ब्राह्मणों ने अपना विशेष स्थान बनाया है। लोग मिथ्यादेवों की आराधना करते थे। यहाँ के मारुति के मंदिर जाते थे। लिंगायतों तथा ब्राह्मणों के धर्म गुरुओं की भक्ति-पूजा करते थे। उनका उपदेश सुना करते थे। उनको भेट चढ़ाया करते थे। इस प्रकार गाढ मिथ्या अंधकार में निमग्न लोगों को सत्पथ में लगाने का समर्थ किसमें था? महराज के उज्ज्वल तथा पवित्र उपदेश के प्रभाव से लोगों ने गृहीत मिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्व के मार्ग को ग्रहण किया। महराज के प्रभाव से जैनियों को बौद्धिक तथा मानसिक स्वातंत्र्य मिला और समाज का परित्राण हुआ। पूज्य शान्तिसागरजी महराज की सभी प्रवृत्तियाँ धैर्य के उन्मुख तथा धर्मानुकूल होती थी। वे धर्म-नीति, मिथ्यात्व निराकरण तथा अहिंसा-प्रचार के सिवाय लौकिक व्यवहार अथवा राजनीति के पंक में लिप्त नहीं होते थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८७ ? "दयासागर" सातगौड़ा का दयामय जीवन प्रत्येक के देखने में आता था। दीन-दुखी, पशु-पक्षी आदि पर उनकी करुणा की धारा बहती थी। जहाँ-जहाँ देवी आदि के आगे हजारों बकरे, भैंसे आदि मारे जाते थे, वहाँ अपने प्रभावशाली उपदेश द्वारा जीव बध को ये बंद कराते थे। इससे लोग इनको "अहिंसावीर" कहते थे। ये दया मूर्ति के साथ ही साथ प्रेम मूर्ति भी थे। इस कारण ये सर्प आदि भीषण जीवों पर भी प्रेम करते थे। उनसे तनिक भी नहीं डरते थे। इनका विश्वास था कि ये प्राणी बिना सताये कभी भी कष्ट नहीं देते हैं। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. ☀ आज कार्तिक शुक्ला द्वादशी की शुभ तिथी को १८ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८६ ? "असाधारण धैर्य" सातगौड़ा को दुख तथा सुख में समान वृत्ति वाला देखा है। माता पिता की मृत्यु होने पर, हमने उनमें साधारण लोगों की भाँति शोकाकुलता नहीं देखी। उस समय उनके भावों में वैराग्य की वृद्धि दिखाई पड़ती थी। उनका धैर्य असाधारण था। माता-पिता का समाधिमरण होने से उन्हें संतोष हुआ था। उनके पास आर्तध्यान, रौद्रध्यान को स्थान न था। वे धर्मघ्यान की मूर्ति थे। वे दया, शांति, वैराग्य, नीति तथा सत्य जीवन के सिंधु थे। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८५ ? "सबके उपकारी" सातगौड़ा अकारण बंधु तथा सबके उपकारी थे। उनको धर्म तथा नीति के मार्ग में लगाते थे। वे भोज भूमि के पिता तुल्य प्रतीत होते थे। उनके साधु बनने पर ऐसा लगा कि नगर के पिता अब हमेशा के लिए नगर को छोड़कर चले गए। उस समय उनकी चर्चा होते ही आँसू आ जाते हैं कि उस जैसी विश्वपूज्य विभूति के ग्राम में हम लोगों का जन्म हुआ है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज के प्रसंग के माध्यम से आप पूज्य शान्तिसागरजी महराज की गृहस्थ जीवन से ही अद्भुत निस्पृहता को जानकर, निश्चित ही सोचेंगे कि यह लक्षण किसी सामान्य आत्मा के नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तर से आत्म कल्याण हेतु साधना करने वाली भव्य आत्मा के ही हैं। ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८४ ? "मुनिभक्ति व निस्प्रह जीवन" मुनियों पर सातगौड़ा की बड़ी भक्ति रहती थी। एक मुनिराज को वे अपने कंधे पर बैठाकर वेदगंगा तथा दूधगंगा के संगम के पार ले जाया करते थे। वे रात्री दिवस शास्त्र पढ़ने में तत्पर रहते थे। एक बार बांच लेने पर अमुक ग्रंथ में अमुक बात लिखी है, ऐसा वे अपनी स्मृति के बल पर बोलते थे। लेन-देन, व्यापार आदि में वे पूर्ण विरक्त थे। छोटा भाई कुमगोड़ा कपड़े की दुकान पर बैठता था। जब वह बाहर चला जाता था, तब वह तकिया छोड़कर बैठे रहते थे। लोग आकर पूँछते, कुमगौड़ा कुठे गेला सातगौड़ा? तब वे कहते थे कि वह बाहर गया है। यदि कपड़ा लेना है तो अपने मन से चुन लो, अपने हाँथ से नापकर कपड़ा फाड़ लो और बही में अपने हाँथ से लिख दो। इस प्रकार की उनकी निस्पृहता थी। वे कुटुम्ब के झंझटों में नहीं पढ़ते थे।" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. ? अमृत माँ जिनवाणी से - १८३ ? "अश्व परीक्षा आदि में पारंगत" वे अश्व परीक्षा में प्रथम कोटि के थे। वे अपनी निपुणता किसी को बताते नहीं थे, केवल गुणदोष का ज्ञान रखते थे। वे घर के गाय बैल आदि को खूब खिलाते थे और लोगों को कहते थे कि इनको खिलाने में कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। आज उनके सुविकसित जीवन में जो गुण दिखते हैं, वे बाल्यकाल में बट के बीज के समान विद्यमान थे। बचपन में वे माता के साथ प्रतिदिन मंदिर जाया करते थे। ?आत्मध्यान की रुचि? बच्चों के समान बारबार खाने की आदत उनकी नहीं थी। वे अपनी निपुणता को सदा शास्त्र पढ़ते हुए पाए जाते थे। ध्यान करने में उनकी पहले से रुचि थी। वेदांती लोग उनके पास आकर चर्चा करते थे। वेदांत प्रेमी रुद्रप्पा से उनकी बड़ी घनिष्टता थी। इनके उपदेश के प्रभाव से वह छानकर पानी पिता था, रात्रि को भोजन नहीं करता था। रात्रि को भोजन करते समय महराज ने उसे प्रत्यक्ष में पतंगे आदि जीवों को भोजन में गिरते बताया था। इससे रात्रि भोजन से उसके मन में विरक्ति उत्पन्न हो गई। उसको महराज के उपदेश से यह प्रतीत होने लगा था कि जैन धर्म ही यथार्थ है। उनके प्रभाव से वह उपवास करने लगा था। जब वह प्लेग से बीमार हुआ, तब महराज ने उसकी आत्मा के लिए कल्याणकारी जिन धर्म का उपदेश दिया था। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का
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