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JainSamaj.World
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परम सत्ता एक ही है


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समस्त प्राणी जगत के लिए अनुकरणीय एक ही परमसत्ता है, वह है परम आत्मा। नित्य, निरंजन, ज्ञानमय एवं परमआनन्द स्वभाव इस परमआत्मा के विषय में हम पूर्व में विस्तार से विवेचन कर चुके हैं। सभी ज्ञानी एवं भव्य आत्माएँ इस ही निरंजन परमआत्म स्वभाव को प्राप्त होती है। हरि, हर, मुनिवर सभी अपने निर्मल चित्त में इसी निरंजन स्वरूप का ध्यान करते हैं। इस प्रकार यह परम सत्ता एक ही है और इस परमआत्म तत्त्व की प्राप्ति करनेवाले सभी भव्यजनों का निर्मल स्वभाव भी समान ही है। आचार्य योगीन्दु की इस गाथा पर जरा सा भी विचार किया जाये तो आज भी साम्प्रदायिकता की भावना से उत्पन्न हुए विवादों और उनके कुपरिणामों से आसानी से निजात पाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

110.  मुणि-वर-विंदहँ हरि-हरहं जो मणि णिवसइ देउ।

      परहँ जि परतरु णाणमउ सो वुच्चइ पर-लोउ।।

अर्थ - श्रेष्ठ मुनिजनों के, हरि और हर (आदि) के चित्त में जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठतर ज्ञानमय परमेश्वर बसता है, वह ही श्रेष्ठ लोक कहा जाता है।

शब्दार्थ - मुणि-वर-विंदहँ-श्रेष्ठ मुनिजनों के, हरि-हरहं-हरि और हर के, जो-जो, मणि-चित्त में, णिवसइ-बसता है, देउ-परमेश्वर, परहँ-श्रेष्ठ से, जि-भी, परतरु-श्रेष्ठतर, णाणमउ-ज्ञानमय, सो-वह, वुच्चइ-कहा जाता है, पर-लोउ-श्रेष्ठ लोक

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