बुद्धि और गति का सम्बन्ध
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव अपनी आत्मा में ही अपनी मति को लगाना चाहिए। मनुष्य की यह आत्म निष्ठ बुद्धि ही उसके सुख का कारण है। जो अपनी बुद्धि को आत्मा में स्थित रखता है, वह उत्कृष्ट जन कहा जाता है। बुद्धि और आत्मा का परोष्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि जिसमें जीव की बुद्धि होती है उसमें ही नियम से उसकी गति होती है। यही कारण है कि जिस का निदान कर व्यक्ति मरण को प्राप्त होता है मरकर जिसका निदान कर वह मरा है उस ही गति में वह पुनः जन्म लेता है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु सदैव पर वस्तु में मति रखने के स्थान पर परमआत्मा में मति करने का उपदेश देते हैं। पुराणों में भी कथन हुआ है कि अमुक राजा धन में आसक्त हुआ मरकर अपने ही भण्डार में अजगर हुआ। अतः सभी को अपनी बुद्धि पर वस्तुओं से हटाकर आत्मा में लगानी चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
111. सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ।
जहिँ मइ तहिँं गइ जीवह जि णियमे ँ जेण हवेइ।।
अर्थ -जिसकी बुद्धि उस (निज आत्मस्वरूप) में बसती है वह सर्वथा उत्कृष्ट जन कहा जाता है। क्योंकि जिसमें जीव की बुद्धि होती है, उसमें ही नियम से उसकी गति होती है।
शब्दार्थ - सो -वह, पर-सर्वथा, वुच्चइ-कहा जाता है, लोउ-जन, परु-उत्कृष्ट, जसु-जिसकी, मइ-मति, तित्थु-उसमें, वसेइ-बसती है, जहिँ-जिसमें मइ-मति, तहिँं-उसमें, गइ-गति, जीवह-जीव की, जि-ही, णियमे ँ - नियम से, जेण-क्योंकि, हवेइ-होती है।
112. जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तुहुँ मरणु वि जेण लहेहि।
ते परबंभु मुएवि मइँ मा पर-दव्वि करेहि।।
अर्थ - . हे जीव! जिसमें तेरी मति है, उस (मति) के कारण मरकर भी उस ही गति को प्राप्त करता है। इसलिए हे जीव! (त)ू परम आत्मा को छोड़कर पर वस्तु में मति मत कर।
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