आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं
आचार्य योगीन्दु आत्मा को ही ज्ञान बताने के बाद स्पष्ट घोषणा करते हैं कि आत्मा के अतिरिक्त सभी ज्ञान व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञान की सार्थकता आत्मा को जानने, समझने और उसे अनुभव करने में है। वैसे भी प्रत्येक श्रेष्ठ जीव का अपना चरम उद्देश्य सभी जीवों को सुख और शान्ति प्रदान करना हैए तथा सभी जीवों का अस्तित्व आत्मा के साथ ही है। आत्मा के बिना जीव का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मा की उपेक्षा करते हुओं के सभी ज्ञान व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
106. अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु ।
ते तुहुँ तिण्णि वि परिहरिवि णियमि ँ अप्पु वियाणु।।
अर्थ - हे वत्स! आत्मा से जो भी अलग हैं, वे सब ज्ञान नहीं होते हैं, इसलिए तू उन सबको छोड़कर नियम से आत्मा को जान।
शब्दार्थ - अप्पहँ -आत्मा से, जे-जो, वि-भी, विभिण्ण-अलग, वढ-हे वत्स!, ते-वे सब, वि-ही, हवंति-होते हैं, ण-नहीं, णाणु-ज्ञान, ते -इसलिए, तुहुँ-तू, तिण्णि-उन सबको, वि-ही, परिहरिवि णियमि ँ-नियम से, अप्पु - आत्मा को, वियाणु-जान।
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