श्रेष्ठ आत्मा की प्राप्तिके लिए समग्रता की आवश्यक्ता है
आचार्य योगीन्दु के अनुसार अपनी आत्मा को श्रेष्ठ तभी बनाया जा सकता है जब आत्मा ज्ञानवान हो और उस ज्ञानवान आत्मा से ज्ञानमय आत्मा को पहिचान लेता हो। अर्थात जब ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का भेद समाप्त होकर एकरूपता हो जाती है तब ही परम आत्मा की प्राप्ति होती है। देखिये इससे सम्बधित आगे का दोहा -
108. णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि।
ता अण्णाणि णाणमउँ किं पर बंभु लहेइ।। 108।।
अर्थ - हे ज्ञानी (भट्टप्रभाकर)! ज्ञानवान(आत्मा) ज्ञानी (आत्मा) से ज्ञानमय (आत्मा) को जब तक नहीं जानता है तब तक (उस) अज्ञानी को ज्ञानमय श्रेष्ठ परमात्मा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
शब्दार्थ - णाणिय-हे ज्ञानी!, णाणिउ-ज्ञानवान, णाणिएण-ज्ञानी से, णाणिउँ -ज्ञानी को, जा-जब तक, ण -नहीं, मुणेहि-जानता, ता-तब तक, अण्णाणि-अज्ञानी को, णाणमउँ -ज्ञानमय, किं -कैसे, पर-श्रेष्ठ, बंभु -परमात्मा, लहेइ-प्राप्त हो सकती है।
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