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लोतोत्तर वैराग्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १४


Abhishek Jain

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?      अमृत माँ जिनवाणी से - १४     ?


                " लोकोत्तर वैराग्य "


       आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के ह्रदय मे अपूर्व वैराग्य था।

      एक समय मुनि वर्धमान स्वामी ने महाराज के पास अपनी प्रार्थना भिजवायी- "महाराज ! मैं तो बानबे वर्ष से अधिक का हो गया। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा है। क्या करूँ ? "

     इस पर महाराज ने कहा- "हमारा वर्धमान सागर का क्या संबंध ? ग्रहस्थावस्था मे हमारा बड़ा भाई रहा है सो इसमें क्या ? हम तो सब कुछ त्याग कर चुके हैं। 

      पंच प्रवर्तन रूप संसार मे हम अनादिकाल से घूमे हैं। इसमें सभी जीव हमारे भाई बंधु रह चुके हैं। ऐसी स्थिति मे किस-२ को भाई,  बहिन, माता , पिता मानना। 
 
       हमको तो सभी जीव समान हैं। हम किसी मे भी भेद नहीं देखते हैं। ऐसी स्थिति मे वर्धमान सागर बार-बार हमे क्यो दर्शन के लिए कहते हैं।"
 
      उस व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता पूर्वक कहा- "महाराज ! वे आपके दर्शन अपने भाई के रूप मे नहीं करना चाहते हैं। आपने उन्हें दीक्षा दी है, अतः वे अपने गुरु का दर्शन करना चाहते हैं।"

    महाराज बोले- "यदि ऐसी बात है, तो वहाँ से ही स्मरण कर लिया करें। यहाँ आने की जरूरत क्या है?"

      कितनी मोहरहित, वीतरागपूर्वक परणति आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की थी। विचारवान व्यक्ति आश्चर्य मे पड़े बिना न रहेगा। 

        जहाँ अन्य त्यागी लौकिक संबंधो और पूर्व सम्पर्को का विचार कर मोही बन जाते हैं। वहाँ आचार्यश्री अपने सगे ज्येष्ठ भाई के प्रति भी आदर्श वीतरागता का रक्षण करते रहे।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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