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आत्मबल - अमृत माँ जिनवाणी से - ११


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ११     ?


                    "आत्मबल"


                आत्मबल जागृत होने पर बड़े-२ उपवास आदि तप सरल दिखते हैं।

     बारहवे उपवास के दिन लगभग आधा मील चलकर मंदिर से आते हुए आचार्य शान्तिसागर महाराज के शिष्य पूज्य नेमिसागर मुनिराज ने कहा था- "पंडितजी ! आत्मा में अनंत शक्ति है।अभी हम दस मील पैदल चल सकते हैं।"

     मैंने कहा था- "महाराज, आज आपके बारह उपवास हो गए हैं।" वे बोले, "जो हो गए, उनको हम नहीं देखते हैं।इस समय हमें ऐंसा लगता है, कि अब केवल पाँच उपवास करना हैं।"

    मैंने उपवास के सत्रहवें दिन पूंछा कि- "महाराज ! अब आपके पुण्योदय से सत्रहवाँ उपवास का दिन है तथा आप में पूर्ण स्थिरता है। प्रमाद नहीं है, देखने में ऐंसा लगता है मानो तीन चार उपवास किए हों।"

       वे बोले- "इसमे क्या बड़ी बात है, हमे ऐंसा लगता है कि अब हमे केवल एक ही उपवास करना है।" उन्होंने यह भी कहा था- "भोजन करना आत्मा का स्वाभाव नहीं है।नरक में अन्य पानी कुछ भी नहीं मिलता है।सागरो पर्यन्त जीव अन्न-जल नहीं पाता है,तब हमारे इस थोड़े से उपवास की क्या बड़ी चिंता है?"

      उस समय उनके समीप बैठने में ऐंसा लगता था, मानो हम चतुर्थकालीन ऋषिराज के पाद पद्मो में पास बैठे हों।

   अठारहवें दिन संघपति गेंदनमलजी, दादिमचंदजी, मोतीलालजी जवेरी बम्बई वालों के यहाँ वे खड़ें-खड़ें करपात्र में यथाविधि आहार ले रहे थे। उस दिन पेय वस्तु का विशेष भोजन हुआ था।गले की नली शुष्क हो गई थी, अतः एक-एक घूँट को बहुत धीरे-धीरे वे निगल रहे थे।

      उस समय प्रत्येक दर्शक के अंतःकरण में यही बात आ रही थी कि इस पंचमकाल में हीन सहनन होते हुए भी वे मुनिराज चतुर्थकालीन पक्षाधिक उपवास करने वाले महान तपस्वीओ के समान नयन गोचर हो रहे हैं।

      गुरु-भक्त नेमिसागर महाराज ने कहा- "उपवास शांति से हो गये, इसमें शान्तिसागर महाराज का पवित्र आशीर्वाद ही था"


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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