Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    284
  • comments
    3
  • views
    19,794

About this blog

ABC of Apbhramsa

Entries in this blog

मुनि को मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान होना परम आवश्यक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना होता है। यदि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना नहीं है तो वह सच्चे अर्थ में मुनि है ही नहीं, और यह मुक्ति, मुक्ति दायक ज्ञान से ही संभव है। मात्र एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण कर लेने मात्र को मुुक्ति मान लेना मुनि का मात्र एक भ्रम है।  देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 85.  तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ।      णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ।। अर्थ - हे जीव! (एक) तीर्थ (से)

Sneh Jain

Sneh Jain

प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य सहित कार्य ही सार्थक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धि

Sneh Jain

Sneh Jain

अधिक विकल्प व्यक्ति के विकास में बाधक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति ज्ञानी होना चाहता है, अपनी परम आत्मा को पहचानना चाहता है तो उसके लिए उसे सबसे पहले अपने मन में उठने वाले व्यर्थ विकल्पों को नष्ट करना होगा, अन्यथा वह कितने ही ग्रंथों का अध्ययन कर लें सब व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 83.  सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु।      देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।। अर्थ -जो शास्त्र को पढ़ता हुआ भी (अपनी) विविध तरह की कल्पना (सन्देह) को नष्ट नहीं करता,, वह मूर्ख (विवेक शून्य) होता

Sneh Jain

Sneh Jain

सत्य को समझने से ही कर्मों से मुक्ति हो सकती है

हमने पूर्व में देखा कि आसक्ति से मुक्ति में ही कर्मों से मुक्ति है। आगे इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कर्मों से मुक्ति के लिए सत्य को जानना आवश्यक है क्योंकि सत्य को जानने के बाद ही आसक्ति का त्याग सरलता से हो सकता है। सत्य को समझकर आसक्ति के त्याग के बिना शास्त्रों का अघ्ययन व तप करना भी व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 82.    बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ।        ताव ण मुंचइ जाव णवि इहु परमत्थु मुणेइ।। अर्थ -(जो) शास्त्रों को समझता है

Sneh Jain

Sneh Jain

आसक्ति से मुक्ति ही कर्मों से मुक्ति है

आचार्य योगीन्दु ने कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए बहुत ही सहज और वह भी एक ही मार्ग बताया है कि आसक्ति से मुक्त हो जाओ, कर्मों से मुक्ति मिलेगी और जीवन में शाश्वत सुख व शान्ति लहरा उठेगी। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 81.    जो अणु-मेत्त वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु।        सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु।। अर्थ - यहाँ पर (इस जगत में) जब तक जो जीव अणु मात्र भी मन में (स्थित) आसक्ति को नहीं छोड़ता है, तब तक वह परमार्थ (सत्य) को जानता हुआ भी (कर्मो

Sneh Jain

Sneh Jain

आसक्ति रहित कर्म संवर व निर्जरा का कारण

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो आसक्ति रहित होकर अपने कर्मों के फल को भोगता है उसके कर्मों का बंध नहीं होता तथा पूर्व में किये कर्म बन्ध भी नष्ट हो जाते है। कर्म बंध ही दु.ख का फल है। अतः आसक्ति रहित कर्म करना ही मानव की श्रेष्ठ जीवन कला है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -   80.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिं राउ ण जाइ।       सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ।। अर्थ -  जो अपने कर्मफल को भोगता हुआ भी उनमें आसक्ति उत्पन्न नहीं करता, वह फिर से कर्म को नहीं बाँधता, जिससे (

Sneh Jain

Sneh Jain

मोह निरन्तर कर्म बंध का कारण है

आचार्य यागीन्दु कहते हैं कि जो मोह के वशीभूत होकर अच्छे और बुरे भाव करते हैं वे निरन्तर कर्म बंघ करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 79.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु मोहइँ जो जि करेइ।       भाउ असुंदरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ।। अर्थ - जो अपने कर्म फल को भोगता हुआ भी मोह से अच्छा और बुरा भाव करता है, वह आगे (पुनः) कर्म उत्पन्न (नवीन कर्म बन्ध) करता है। शब्दार्थ - भुंजंतु- भोगता हुआ, वि-भी, णिय-कम्म-फलु -अपने कर्म फल को, मोहइँ-मोह से, जो-जो, (जि - पादपूर्ति हेतु प्रयु

Sneh Jain

Sneh Jain

सुंुंदर वस्तु की प्राप्ति के बाद असुन्दर वस्तु की प्राप्ति की आवश्यक्ता नहीं है

पूर्व कथित बात को आगे बढ़ाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसने एक बार सर्व सुंदर आत्मा से आत्मसात कर लिया है उसको फिर आत्मा को छोड़कर कोई पर वस्तु प्रिय नहीं लगती। जिस प्रकार मरकतमणि की प्राप्ति के बाद काँच कौन लेना चाहेगा। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 78.   अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु ।       मरगउ जेँ परयाणियउ तहुँ कच्चे ँ कउ गण्णु।। अर्थ -(ज्ञानियों के) ज्ञानमय चित्त में आत्मा को छोड़कर दूसरी (वस्तु) सम्मिलित नहीं होती। जिसके द्वारा मरकतमणि जान ली गई है, उसके लिए

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञानी को आत्मा ही प्रिय है

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि ज्ञानी का लगाव आत्मा से ही है और आत्मा का सौन्दर्य शील और सदाचरण में ही है। अतः ज्ञानी का मन शील और सौन्दर्य को नष्ट करनेवाले विषयों में रमण नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 77.   अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु।       तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु।। अर्थ -ज्ञानियों के लिए आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु सुंदर नहीं हैॅ, इसलिए परमार्थ (सत्य) को     जानते हुए (ज्ञानियों) का मन विषयों में रमण नहीं करता है। शब्दार्थ - अप्

Sneh Jain

Sneh Jain

स्व-बोध होने पर राग नहीं रहता

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध होने पर दुःखों का जनक राग समाप्त हो जाता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के आगे अन्धकार नहीं ठहरता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 76.   तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ।      दिणयर -किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ।। अर्थ -हे जीव! वह स्व-बोध होता ही नहीे है, जिससे राग बढ़ता है। सूर्य की किरणों के आगे क्या अन्धकार का फैलाव सुशोभित होता है ? शब्दार्थ - तं - वह, णिय-णाणु- स्व बोध, जि-ही, होइ -होता है, णवि-नहीं, जेण -जिससे, पवड्ढइ-ब

Sneh Jain

Sneh Jain

स्व - बोध ही सच्चा ज्ञान है

आचार्य योगीन्दु ने पूर्व में कहा कि ज्ञान के बिना शान्ति नहीं हैं। आगे इसका विस्तार करते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध ही सच्चा ज्ञान है। वैसे यदि हम इसको अनुभव करें तो हम पायेंगे कि वास्तव में जिसको अपना ही बोध नहीं है उसको पर का बोध होना कैसे सम्भव है ? दूसरे शब्दों में जिसको अपने ही सुख-दुःख का एहसास नहीं हो वह दूसरों के सुख में कैसे सहयोगी हो सकता है। जब हम अपनी ही  पीडा का अनुभव कर उसको दूर करने का प्रयत्न करेंगे तभी हम हम दूसरों की पीड़ा का अनुभव कर उसको दूर करने में सहयोग देंगे।

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञान के बिना शान्ति नहीं है

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते है कि ज्ञान के अभाव में जीव को शान्ति मिल ही नहीं सकती । पानी के बहुत विलोडन किये हुए से हाथ चिकना नहीं होता, मन्थन तो घी का ही करना होगा। उसी प्रकार ज्ञानपूर्वक जीवन के मन्थन से ही शान्ति का मार्ग तलाश कर उस पर चलने से ही शान्ति प्राप्त की जा सकती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 74.   णाण-विहीणहँ मोक्खु-पउ जीव म कासु  वि जोइ।       बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ।। अर्थ -  हे जीव! ज्ञान रहित किसी के लिए भी मोक्ष पद (शान्ति की स्थित

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञान ही मोक्ष का साधन है

आचार्य योगिन्दु कहते है कि ज्ञान से ही मोक्ष अर्थात शाश्वत शान्ति की प्राप्ति संभव है। सम्यक्ज्ञान ही  सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के बीच का सेतु है। सम्यक् ज्ञान के अभाव में न सम्यक् दर्शन की प्राप्ति संभव है और ना ही सम्यक चारित्र होना संभव है। इन तीनों के समन्वित होने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अतः ज्ञान ही प्रकारान्तर से मोक्ष का साधन सिद्ध होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 73.    देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति।       णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति।।

Sneh Jain

Sneh Jain

शुभ व शुद्ध क्रिया का फल

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दान तप आदि शुभ भाव पूर्वक की गयी क्रियाओं से अस्थिर विषय सुख व स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु जन्म मरण रहित मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए  ज्ञानपूर्वक विशु़द्ध भाव से की गयी विशुद्ध क्रिया ही आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  72.    दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण।       जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण।। अर्थ -दान से विषय सुख और तप से इन्द्रत्व (स्वर्ग का आधिपत्य) प्राप्त किया जाता है, किन्तु ज्ञान से जन्म-मरण रहि

Sneh Jain

Sneh Jain

अशुभ, शुभ व शुद्ध भाव का संक्षेप में कथन

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि शुभ भाव से व्यक्ति अच्छे कर्म करता है किन्तु उससे कर्म बंध होता है और अशुभ भाव से व्यक्ति बुरे कर्म करता है और उससे भी कर्म बंध होता है। मात्र एक शुद्ध भाव ही वह भाव है जिससे व्यक्ति कर्म बन्ध नहीं करता है। शुद्ध भाव में रत व्यक्ति समस्त कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से परे होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 71.   सुह-परिणामे ँ धम्मु पर असुहे ँ होइ अहम्मु।      दोहि ँ वि एहि ँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु।। अर्थ -शुभ भाव से धर्म और अशुभ से अधर्

Sneh Jain

Sneh Jain

विशुद्ध भाव रहित क्रिया अर्थ हीन है

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि हे जीव! यदि तू शान्ति चाहता है तो उसके लिए तुझे सर्वप्रथम चित्त को शुद्ध करना ही पडेगा। चित्त शुद्धि के अभाव में तू कितना ही भ्रमण कर ले और कितनी ही क्रियाएँ कर ले, शान्ति संभव नहीं है। चित्त शुद्धि से ही व्यक्ति पाप और पुण्य से परे होकर षान्ति के मार्ग को प्राप्त कर सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 70.   जहि ँ भावइ तहि ँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि।       केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि।। अर्थ -हे जीव! जहाँ पर (त

Sneh Jain

Sneh Jain

विशुद्ध भाव के बिना मुक्ति संभव नहीं है

आचार्य योगीन्दु मात्र विशुद्ध भाव को ही मुक्ति का मार्ग स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि विशु़द्ध भाव से विचलित हुओं के मुक्ति किसी भी तरह संभव है ही नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 69.   सिद्धिहि ँ केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु।       जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्क।। अर्थ -मुक्ति का मार्ग एक शुद्ध भाव (ही) है। जो मुनि उस(विशुद्ध) के भाव से विचलित हो जाता हैै  वह किस प्रकार मुक्त हो सकता है। शब्दार्थ - सिद्धिहि ँ -मुक्ति का, केरा- सम्बन्धवाचक परसर्ग, पंथड

Sneh Jain

Sneh Jain

धर्म विशुद्ध भाव का ही दूसरा नाम है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि धर्म का सम्बन्ध विशुद्ध भाव से है तथा विशुद्ध भावपूर्वक की गयी क्रिया ही धार्मिक क्रिया है। विशुद्ध भाव रहित की गयी बाहरी क्रियाओं का कोई मूल्य नहीं है। बन्धुओं यही है आचार्य योगीन्दु का पाप -पुण्य से परे सच्चा न्याय युक्त कथन। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  68.   भाउ विसद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु।       चउ-गइ-दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।। अर्थ -अपने विशुद्ध भाव को (ही) धर्म कहकर ग्रहण करो। जो (विशुद्ध भाव), (संसार में) पड़े हुए इस जीव की चार

Sneh Jain

Sneh Jain

चित्त की शुद्धि ही प्रमुख है

आचार्य योगीन्दु का स्पष्ट उद्घोष है कि यदि हम शान्ति चाहते हैं तो यह बिना चित्त शुद्धि के संभव है ही नहीं। चित्त शुद्धि ही भाव शुद्धि का साधन है। जिसका चित्त शुद्ध है, वह ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान का सच्चा अधिकारी है और वह ही कर्मों का नाश कर सकता है। चित्त की शुद्धता के बिना इनमें से कुछ भी संभव नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 67.   सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु।       सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।। अर्थ -शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) संयम, शील (

Sneh Jain

Sneh Jain

विशुद्ध भावों के बिना स्तुति, स्वनिंदा एवं पापों के प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसके मन में संयम नहीं है, वही उसके अशुभ भाव का कारण है और विशुद्धता के अभाव में स्तुति, निंदा, प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है। मन की विशुद्धता ही आत्मोत्थान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 66.   वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु।       पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु।। अर्थ -जिसके अशुभ भाव है, वह स्तुति कर,े (अपने द्वारा किये) पापों की निंदा करे, अपने पापों  का प्रायश्चित करे, किन्तु उसके संयम नहीं है क्योंकि उसके मन में विशुद्धता

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञानी की पहचान

आचार्य योगीन्दु ज्ञानी का स्वरूप बताने के बाद स्पष्टरूप से कहते हैं कि ज्ञानी वंदना, निंदा, पापों के प्रायश्चित आदि से परे रहकर मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहता है। मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 65.      वंदणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहि ँ एहु ण जुत्तु।         एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु।। अर्थ -  मात्र एक ज्ञानमय पवित्र शुद्धभाव को छोेड़कर यह स्तुति,(आत्म) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का प्रायश्चित ज्ञानियों

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञानी का सच्चा स्वरूप

आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाता

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञानी का सच्चा स्वरूप

आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाता

Sneh Jain

Sneh Jain

गति का आधार कर्म ही है

आचार्य योगीन्दु कहते है कि हमारी गति का आधार हमारे कर्म ही हैं। हमने पाप और पुण्य दोनों प्रकार के कर्म किये थे, इसलिए हमने यह मनुष्य गति पायी। जब हम पाप (अशुभ) कर्म करेंगे तो हम नारकी और तिर्यंच गति में जन्म लेंगे और जब पुण्य (शुभ) कर्म करेंगे तो देव गति प्राप्त करेंगे। यदि हम पाप पुण्य की क्रियाओं से रहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर देंगे तो मोक्ष गति को प्राप्त होंगे। इसलिए हमारी गति  हमारे अपने कर्मों के आधार पर ही सुनिश्चित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 63.     पावे ँ णारउ

Sneh Jain

Sneh Jain

शुभ कर्म से द्वेष ही पाप है

आचार्य योगीन्दु ने पाप, पुण्य और मोक्ष को कितने सहज तरीके से तीन चार गाथाओं में समझा दिया है, यह है उनकी मनोवैज्ञानिकता। जितना आश्चर्य लोगों के प्रतिकूल आचरण पर होता है उतना ही आश्चर्य हम अज्ञानियों को आचार्य योगिन्दु मुनिराज की सरलता पर होता है। सर्व प्रथम वे कहते हैं कि स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है। उसके बाद वे कहते हैं स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है । फिर कहते हैं कि शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं है और अन्त में पाप का कथन कर अपने सम्पूर्ण मन्तव्य को स्पष्ट कर

Sneh Jain

Sneh Jain

×
×
  • Create New...