Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    284
  • comments
    3
  • views
    19,794

About this blog

ABC of Apbhramsa

Entries in this blog

शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं हैं

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् मुक्ति कर्मों के क्षय से ही संभव है। परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से तो पुण्य होता है और वह भी यदि स्वदर्शन सहित नहीं हो तो आगे चलकर पाप में परिवर्तन हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -  61.      देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ।         कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ।। अर्थ - परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से पुण्य होता है, लेकिन कर्मों का क्षय नहीं होता। शान्ति

Sneh Jain

Sneh Jain

स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है

आचार्य योगिन्दु एक विशुद्ध अध्यात्मकार हैं। योगी जितने जितने आध्यात्मिक होते हैं उतने उतने ही सहज होते चले जाते हैं। इस दोहे के माध्यम से आचार्य योगिन्दु की सहज अध्यात्मिकता को देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य पाप का कारण है, क्योंकि स्वदर्शन रहित पुण्य से वैभव तो होता है किन्तु वह वैभव अहंकार उत्पन्न करता है। उस अहंकार से मति मूढ हो जाती है जिससे सारी क्रियाएँ पापमय होती है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य भी किसी प्रकार कार्यकारी नहीं है। आज के इस वैभव प्र

Sneh Jain

Sneh Jain

स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के साथ ही पुण्य कार्यकारी है। स्व दर्शन के अभाव में पुण्य भी दुखदायी है। 59.       जे णिय-दंसण अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति।           तिं विणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति।।59।। अर्थ -  जो निज दर्शन के सम्मुख हैं,(वे) अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं और उसके बिना वे पुण्य करते हुए भी अनन्त दुःख झेलते हैं। शब्दार्थ - जे-जो, णिय-दंसण अहिमुहा- निज दर्शन के सम्मुख हैं, सोक्खु-सुख को, अणंतु-अनन्त, लहंति-प्राप्त करते हैं, तिं-उसके, विणु-बिना,

Sneh Jain

Sneh Jain

स्व दर्शन ही मानव जीवन की सच्ची सार्थकता है

आचार्य योगीन्दु मानव जीवन की सार्थकता का मूल व्यक्ति के निज दर्शन में मानते हैं। वे कहते हैं कि स्व दर्शन से विमुख व्यक्ति के द्वारा की गयी पुण्य क्रियाओं का भी महत्व नहीं है जबकि स्वदर्शन पूर्वक मरण भी श्रेष्ठ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 58.       वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि।           मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि।। अर्थ - हे जीव! (तू) स्व दर्शन के सम्मुख हुआ मृत्यु को भी प्राप्त करता है (तो) अच्छा है, किन्तु निज दर्शन से विमुख हुआ पुण्य भी करता है तो (

Sneh Jain

Sneh Jain

ज्ञानी की क्रिया पुण्य पाप से रहित मोक्षमार्गी होती है

पूर्व के दोहे में आचार्य योगीन्दु ने उस पाप को भी सुंदर बताया जो कालान्तर में बुद्धि को मोक्ष मार्गी बना देते हैं।इस दोहे में आचार्य उन पुण्यों को भी सुंदर नहीं मानते जो जीवों को क्षणिक सुख प्रदान कर नरक गामी बनाते हैं। इस तरह ज्ञानी की क्रिया तो मात्र मोक्ष मार्गी ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 57.       मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति।          जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।। अर्थ - किन्तु ज्ञानी उन पुण्यों को (भी) अच्छा नहीं कहते, जो जीवों क

Sneh Jain

Sneh Jain

कभी कभी पाप भी हितकर हो जाते हैं

आचार्य योगीन्दु ने यहाँ बहुत ही करुणापूर्वक शब्दों में सभी जीवों को समझाया है कि यदि हमसे अज्ञानवश पाप युक्त क्रिया हो भी गयी है तो हमें परेशान होने की ज्यादा आवश्यक्ता नहीं है बल्कि विचारकर आगे के लिए सचेत होना आवश्यक है। वैसे भी देखा जाये तो सुख में व्यक्ति के सुधरने की गुंजाइश कम होती है, जबकि पाप का फल भोगने पर व्यक्ति दुःख से हटना चाहता है और फिर वह मोक्ष मार्ग पर ले जानेवाले मार्ग पर चल देता है। वे पाप ही होते हैं जो व्यक्ति को आगे मोक्ष मार्ग पर लगा देते है। आचार्य ने अपने सुंदर शब्दों मे

Sneh Jain

Sneh Jain

अज्ञानी जीव की क्रिया का फल

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अज्ञानी जीव समभाव में स्थित नहीं होने के कारण मोह से दुःख सहता हुआ संसार में भ्रमण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 55     जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पावु वि दोइ।         सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।।    अर्थ - जो जीव पाप और पुण्य दोनों को ही समान नहीं मानता है, वह जीव बहुत काल तक दुःख  सहता हुआ मोह से संसार में भ्रमण करता है। शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीउ-जीव, समु-समान, पुण्णु-पुण्य, वि-और, पावु-पाप,

Sneh Jain

Sneh Jain

क्रमशः अज्ञानी का कथन

पुनः आचार्य योगीन्दु अज्ञानी व्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह जीव मोक्ष के हेतु दर्शन, ज्ञान और चारित्र को तो समझता नहीं है और जो मोक्ष का कारण नहीं है, उन पाप पुण्य को मोक्ष का कारण मानकर करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 54.   दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ।      मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ।। अर्थ -जो (सम्यक्), दर्शन, ज्ञान (और) चारित्रमय आत्मा को नहीं जानता है।, वह जीव उन दोनों (पाप-पुण्य) को मात्र मोक्ष का कारण कहकर करता है। शब्दार्थ -

Sneh Jain

Sneh Jain

अज्ञानी का कथन

योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।       सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ

Sneh Jain

Sneh Jain

अज्ञानी का कथन

योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।       सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ

Sneh Jain

Sneh Jain

क्रमशः ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु आगे के दो दोहे में योगी की अन्य विशेषताओ का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि योगी ने शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को तथा कर्म बन्धनों के हेतु और उनके स्वभाव को जान लिया है, इसीलिए वह शरीर तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग द्वेष नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - अर्थ सरल है, इसलिए शब्द विश्लेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ। पाठकगण चाहे तो बतायें। 51.    देहहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।        देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।। अर्थ - जिसके

Sneh Jain

Sneh Jain

क्रमशः ज्ञानी के विषय में कथन

पुनः आगे के चार दोहों में ज्ञानी अर्थात् मुनि की विशेषता बताते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है तथा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है, अतः वह अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता और ना ही काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग द्वेष करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - दोहे का अर्थ  सरल होने के कारण विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। 49.   गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।       गंथह

Sneh Jain

Sneh Jain

क्रमशः ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु पुनः योगी के विषय में कहते हैं कि योगी कहने, कहलवाने, स्तुति करने, निंदा करने आदि विषम भावों से परे रहकर समभाव में स्थित रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 48.   भणइ भणावइ णवि थुणइ णिंदइ णाणि ण कोइ।       सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ। अर्थ -ज्ञानी पुरुष न कुछ कहता है न कहलवाता है, न स्तुति करता है न निंदा करता है। वह सिद्धि का कारण समभाव को जानता हुआ उसी में स्नान (अवगााहन) करता है शब्दार्थ - भणइ- कहता है, भणावइ-कहलवाता है, णवि-न, ही, थुणइ-स्तुति

Sneh Jain

Sneh Jain

योगी अर्थात् ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु योगी व संसारी जीव में भेद बताने के बाद योगी अर्थात ज्ञानी के विषय में क्रमश 6 दोहों में  कथन करते हैं। प्रथम दोहे में वे कहते हैं कि ज्ञानी समभाव में स्थित होने के कारण ही आत्म स्वभाव को प्राप्त करता है एवं राग से दूर रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 47.   णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ।       जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प- सहाउ। अर्थ -  ज्ञानी समभाव को छोड़कर कहीं भी राग को प्राप्त नहीं होता। जिससे वह  उस (समभाव) के कारण ही ज्ञानमय आत्म स्वभाव को प्र

Sneh Jain

Sneh Jain

योगी और संसारी जीव में भेद

आचार्य यागीन्दु योगी व संसारी जीवों में भेद बताते हैं कि जब संसारी जीव अपने आत्मस्वरूप से विमुख होकर अचेत सो रहे होते हैं तब योगी अपने स्वरूप में सावधान होकर  जागता है और जब संसारी जीव विषय कषायरूप अवस्था में जाग रहे होते हैं उस अवस्था में योगी उदासीन अर्थात् सुप्त रहते हैं। अर्थात् योगी को आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 46.1 जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ।     जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।। अर्थ -जो सब संसारी जी

Sneh Jain

Sneh Jain

क्रमशः राग द्वेष रहित समभाव में स्थित जीव के लक्षण

आगे के दो दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः समभाव में स्थित हुए जीव के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह अपने शत्रुभाव को छोड़कर परम आत्मा में लीन हो जाता है और और अकेला लोक के शिखर के ऊपर चढ जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -  45.  अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।      सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहं णिलीणु हवेइ। अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके अन्य दोष भी होता है कि वह अपने शत्रु को छोड़कर परम आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। शब्दार्थ -

Sneh Jain

Sneh Jain

राग द्वेष से रहित हुए व्यक्ति की स्थिति

यहाँ आचार्य ब्याज स्तुति अलंकार के माध्यम से कथन को प्रभावी बनाने के लिए दोष में भी गुण की स्थापना करते हुए कह रहे हैं कि राग द्वेष से रहित हुआ व्यक्ति अपने कर्मबंध को नष्ट कर देता है और अपने प्रति जगत को कठोर बना देता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि वह अपने स्वार्थी बन्धु को दूर कर देता है तथा जगत को अपने प्रति पागल (आकर्षित) कर लेता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 44.   विण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ।         बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ।।

Sneh Jain

Sneh Jain

देखिये भारत की तस्वीर 33-35

प्रश्न 33  राजा भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर राजा बाहुबलि की मनोस्थिति कैसी थी और  उन्होंने क्या किया ? उत्तर 33   भरत के चक्र को देखकर भरत ने मन में विचार किया कि आज मैं भरत को धरती पर गिरा देता हूँ किन्तु पुनः विचार आया, नहीं, नहीं, राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को भी मार दिया जाता है। मुझे धिक्कार है। मैं राज्य छोड़कर अचल, अनन्त सुख के स्थान मोक्ष की साधना करूँगा। तभी उन्होंने भरत को धरती का उपभोग करने के लिए कहकर संन्यास ग्रहण कर लिया। प्रश्न 34   राजा भरत

Sneh Jain

Sneh Jain

वर्तमान जगत में सुखी कौन है ?

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् परमशान्ति की प्राप्ति का उद्देश्य इह और परलोक दोनो से ही होना चाहिए। जिस जीव में वर्तमान जगत में शान्ति प्राप्त करने की योग्यता आ जाती है, वही जीव पर लोक मे शान्ति प्राप्त करने के योग्य हो पाता है। उनके अनुसार वर्तमान जगत में इस योग्यता का आधार है, तत्त्व और अतत्व को मन में समझना, रागद्वेष से रहित होना, तथा आत्म स्वभाव में प्रेम रखना। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -   43.   तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।       ते पर सुहिया इत्थु ज

Sneh Jain

Sneh Jain

देखिये भारत की तस्वीर 27-29

प्रश्न 27                  राजा बाहुबलि की बात का दूत क्या जवाब देकर अयोध्या लौट आया ? उत्तर 27               दूत ने कहा, यद्यपि यह भूमण्डल तुम्हें पिता के द्वारा दिया गया है परन्तु बिना कर                              (टेक्स)दिये सरसों के बराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है और अयोध्या लौट आया। प्रश्न 28                  दूत ने अयोध्या में आकर राजा भरत को क्या बताया ? उत्तर 28               दूत ने बताया, हे देव! आपको वह तिनके के बराबर भी नहीं समझता और ना ही वह                

Sneh Jain

Sneh Jain

देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 24-26

प्रश्न 24                  राजा भरत ने मंत्री से राजा बाहुबलि का सिद्ध नहीं होना जानकर क्या किया ? उत्तर 24               राजा भरत ने राजा बाहुबलि को समझाने के लिए उनके पास दूत भेजा। प्रश्न 25                  दूत ने बाहुबलि के पास जाकर क्या कहा ? उत्तर 25               दूत ने कहा, हे राजन! आपको राजा भरत से जाकर मिलना चाहिए और जिस प्रकार दूसरे                               अट्ठानवे भाई उनकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम भी अभिमान छोड़कर राजा भरत  की सेवा               

Sneh Jain

Sneh Jain

देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 21-23

प्रश्न    21                           ऋषभदेव के किस पुत्र को चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हुई ? उत्तर     21                            राजा भरत को प्रश्न    22                           अयोध्या में चक्र प्रवेश नहीं करने पर राजा भरत ने क्या किया ? उत्तर    22                           राजा भरत क्रोध से भर उठा और उसने अपने मंत्रियों से पूछा-यश और जय का रहस्य जाननेवाले मंत्रियों! बताओ, क्या कोई ऐसा बचा                                           है जो मुझे सिद्ध नहीं हुआ  हो ?      

Sneh Jain

Sneh Jain

देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 18 - 20

प्रश्न 18                  ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ? उत्तर 18               पुरिमताल उद्यान में प्रश्न 19                  ऋषभदेव के समवशरण का लोगों पर क्या प्रभाव पडा़ ? उत्तर 19               पुरिमताल के प्रधान राजा ऋषभसेन ने संन्यास ग्रहण किया और उसके साथ चैरासी गर्वीले राजाओं ने भी संन्यास लिया।सभी वनचर भी अपने                              वैर भाव को समाप्त कर रहने लगे। ये चैरासी राजा ही ऋषभदेव के गणधर बने। प्रश्न 20                  राजा ऋषभ के कुल कितनी

Sneh Jain

Sneh Jain

समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति के लिए मोह का त्याग आवश्यक

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोह कषाय का कारण है तथा कषाय ही राग द्वेष का कारण है। । इसलिए मोह के त्याग से ही समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति संभव है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 42.   जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु।       मोह-कसाय-विवज्जियउ पर पावहि सम-बोहु।। अर्थ -  हे जीव! जिससे मन में कषाएँ उत्पन्न होती हैं, उस मोह को तू छोड़। मोह कषाय      से रहित हुआ (तू) राग-द्वेष रहित समत्वमय प्रज्ञा कोे प्राप्त कर।  शब्दार्थ - जेण-जिससे, कसाय-कषाएँ, हवंति-होती हैं, मणि

Sneh Jain

Sneh Jain

कषाय भाव ही असंयम का कारण है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कषाय नष्ट होने पर ही मन शान्त होता है और तब ही जीव के संयम पलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 41.  जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ।      होइ कसायहँ वसि गयउ जीव असंजदु सोइ।।।41।। अर्थ - जब तक ज्ञानी शांत रहता है, तब तक ही वह संयमी घटित होता है। कषायों के वश में गया हुआ वह ही जीव असंयमी हो जाता है। शब्दार्थ - जाँवइ -जब तक, णाणिउ-ज्ञानी, उवसमइ-शान्त रहता है, तामइ-तब तक, संजदु-संयमी, होइ-होता है, होइ-हो जाता है, कसायहँ -कषायों के, वसि-वश में

Sneh Jain

Sneh Jain

×
×
  • Create New...