आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से । आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा न गुरु है, न शिष्य है, न स्वामी है, न सेवक है, न शूरवीर (और) कायर है, और न श्रेष्ठ (और) नीच है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के आचार्य योगीन्दु के अनुसार यदि प्रत्येक मनुष्य मात्र इस एक गाथा पर गहराई से विचारकर अपनी आत्मा को ज
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध ना बौद्ध धर्म से है, न दिगम्बर जैन धर्म से, न श्वेताम्बर से न किसी अन्य धर्म सम्प्रदाय से। उसके लिए आत्मा मात्र एक आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
88. अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ।
अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ।।
अर्थ -आत्मा वन्दना करनेवाला, (और) तपस्वी जैन मुनि नहीं है, आत्मा धर्माचार्य नहीं है, तथा आत्मा
आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
87. अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु।
पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।।
अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथ
आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
87. अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु।
पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।।
अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथ
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जैसे ही आत्मा का मूढ स्वभाव नष्ट होता है वैसे ही आत्मा जाग्रत अवस्था को प्राप्त होने लगती है। जाग्रत अवस्था से पूर्व मूढ अवस्था में उसकी जो क्रियाएँ होती थी वे जाग्रत अवस्था में पूर्ण परिवर्तन के साथ होती हैं। मूढ अवस्था में वह आत्मा को गोरा, काला आदि विभिन्न वर्णोवाला मानता था किन्तु जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेने पर वह गम्भीर भाव चिन्तन से यह समझ जाता है कि आत्मा गोरवर्णवाली, काले रंगवाली, नहीं है, आत्मा लाल नहीं है, आत्मा सूक्ष्म और स्थूल भी नहीं है। देखिये इससे सम्
आचार्य योगिन्दु व्यक्ति की मूढता का कथन करने के बाद कहते हैं कि उसकी इस मूढता का कारण उसका अपना मोह स्वभाव है, और जैसे-जैसे उपयुक्त समय आने पर उसका मोह नष्ट होता है उसकी मूढता नष्ट होती है। उसके बाद ही उसकी सत्य तत्त्व पर श्रद्धा होती है और तब ही आत्मा से उसकी पहचान शुरु होने लगती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
85 काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ।
तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमे ँ अप्पु मुणेइ।
अर्थ -हे योगी! समय प्राप्तकर जैसे-जैसे मोह नष्ट होता है, वैसे-वैसे मनु
बन्धुओं!, जैसा कि आप को पूर्व में बताया जा चुका है कि परमात्मप्रकाश में 3 अधिकार हैं। 1. आत्माधिकार 2. मोक्ष अधिकार 3. महाधिकार। अभी हमारा प्रवेश आत्माधिकार में ही है। आत्मा के विषय में पूर्णरूप से जान लेने के बाद ही हम आत्मा की शान्ति अर्थात् मोक्ष में प्रवेश होने की बात कर सकते है। आत्माधिकार के 82 दोहों तक हम आत्मा के विषय में जान चुके हैं। आत्माधिकार के 41 दोहे और शेष हैं, इसके बाद हमारा मोक्ष अधिकार में प्रवेश होगा। निश्चितरूप से मोक्ष अधिकार हमें आसानी से समझ आयेगा।
आत्माधिकार के अगले
पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे-
81. हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु।
पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।।
अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ
पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे-
81. हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु।
पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।।
अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ
पूर्व कथित बात को ही पुष्ट करते हुए आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यह व्यक्ति कर्म से रचित भेदों को ही अपना मूल स्वरूप समझलेने के कारण अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को भूल जाता है। इसी कारण शान्ति के मार्ग से भटककर अशान्ति के मार्ग पर चल देता है, जिसका परिणाम होता है दुःख और मानसिक तनाव। कर्म से रचित भेदों को अपना मानने के कारण ही व्यक्ति अपने को गोरा, काला, दुबला, मोटा आदि मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
80. हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्ण्उ वण्णु।
हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती बल्कि सम्यक् से विपरीत होती है, वह वस्तु के स्वरूप का जैसा वह है, उससे विपरीत रूप में आकलन करता है तथा कर्म से रचित भावों को अपना आत्मस्वरूप समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
79. जीउ मिच्छत्ते ँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ।
कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ।। 79।।
अर्थ - मिथ्यात्व से परिपूर्ण हुआ जीव तत्व (वस्तु स्वरूप) को विपरीत जानता है।( वह) कर्म से रचित उन भावों को अपना कहता है।
शब्दार्थ - जीउ-
परमात्मप्रकाश का प्रत्येक दोहा आचार्य योगीन्दु के मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम होने का द्योतक है। वे चाहते हैं कि सृष्टि का प्रत्येक जीव सुख और शान्ति का जीवन जीवे तथा दुःखों से दूर रहे। उनके अनुसार प्रत्येक जीवके दुःख का कारण उसके मन की आसक्ति ही हैै। इस आसक्ति के कारण वह दूसरों से अपेक्षा रखता है और दूसरे उससे अपेक्षा रखते हैं। स्वयं की अपेक्षा पूरी नहीं होने तथा दूसरों की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाने के कारण ही प्राणी दुःख भोगता है। आसक्ति नहीं होने पर व्यक्ति कीचड़ में कमल के समान तथा र
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि विभिन्न पर्यायों में आसक्त हुआ जीव मिथ्या दृष्टि होता है। जो कर्म करके आसक्त नहीं होता उसकी दृष्टि निर्मल होती है, किन्तु जिसकी बहुत आसक्ति होती है उसकी दृष्टि निर्मल नहीं हो सकती। वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है। आसक्ति के कारण वह बहुत प्रकार के कर्मों को बांध लेता है, जिससें उसका संसार से भ्रमण समाप्त नहीं होता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
77. पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ।
बंधइ बहु-विह-कम्मडा जंे संसारु भमेइ।।
अर्थ -पर्याय में अनुरक्त जीव
जीवन का निर्मल होना ही सम्यक् जीवन जीना है। निर्मलतापूर्ण सम्यक् जीवन के लिए व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। निर्मल दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि है। आचार्य योगिन्दुु कहते हैं कि आत्मा से आत्मा को जानता हुआ व्यक्ति सम्यक् दृष्टि होता है। वैसे भी यदि हम अनुभव करें तो हम देखेंगे कि सुख- दुख का अनुभव प्रत्येक आत्मा में समानरूप से होता है, और यह बात जो समझ लेता है वह किसी को दुःख नहीं दे सकता। ऐसा व्यक्ति ही जिनेन्द्र द्वारा कथित मार्ग पर चलकर शीघ्र ही कर्मों से मुक्त हो जाता है। देखिये इससे स
आचार्य योगिन्दु कहते है कि हमें दुःखों से मुक्ति पाने हेतु आत्मा का ध्यान करना चाहिए। उसी क्रम में वे कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर अन्य सब पराये भाव हैं। उसके बाद आत्मा के ध्यान की विधि बताते हुए कहते हैं कि जो आत्मा आठ कर्मों से बाहर, समस्त दोषों से रहित (तथा) दर्शन, ज्ञान और चारित्रयुक्त है, वही ध्यान करने योग्य है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
74. अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प-सहाउ।।
अर्थ - हे जीव! ज्ञानमय आत्मा को छोडकर अन्य भाव
आचार्य योगीन्दु देह से लगे जरा और मरण के भय से मुक्त करने हेतु आत्मा का चिंतन करने की बात करते हैं। फिर आत्मा का चिंतन कैसे करे यह बताते हैं। वे कहते हैं कि हे प्राणी! कर्म और कर्म से उत्पन्न भाव तथा सभी पुद्गल द्रव्य आत्मा से भिन्न है। तू इस प्रकार विचारकरके और आत्मा का सुगमता से चिंतन करके अपने दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।
73. कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु ।
जीव-सहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ।।
अर्थ -हे जीव! कर्मों के भाव (तथा) अन्य अचेतन द्रव्य
आचार्य योगिन्दु मानव के सभी भयों को मानव की देह से सम्बन्धित ही मानते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि देह से सम्बन्धित दुःखों का विनाश ही मानव के सभी दुःखों का विनाश होना है। आगे वे देह के दुःखों से मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि देह से सम्बन्धित दुःख होने पर देह से आसक्ति का त्याग कर निरन्तर आत्मा का ध्यान करने से ही देह के दुःखों से पार हुआ जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
72. छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु।
अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु।।
अर्थ -हे
क्षमा करें, पिछले ब्लाॅग में कुछ व्यस्तता के कारण दोहे के शब्दार्थ में गलती हो गयी। 71वें दोहे के शब्दार्थ के स्थान पर 72 वें दोहे के शब्दार्थ दे दिये गये। अतः पुनः शुद्धि के साथ उसी दोहे को दोहराया जा रहा है।
शरीर के प्रति अभय विषयक कथन
इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्द
इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्दु शरीर से अधिक आत्मा के महत्व का कथन कर प्रत्येक जीव को शरीर के प्रति अभय प्रदान करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
72. छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु ।
अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु ।।
अर्थ - हे जीव! देह के बु
आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
70. देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु ।
देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।।
अर्थ - देह क
आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
70. देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु ।
देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।।
अर्थ - देह क
आत्मा का कर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बताने के बाद आचार्य योगिन्दु आगे कहते हैं कि कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्म के अभाव में आत्मा की अस्तित्वहीनता के विषय में कहा है कि आत्मा आत्मा ही है उसका कर्म को छोड़कर अन्य के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीें है। कर्म के आश्रय के अभाव में आत्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न बंध को प्राप्त होता है, न मुक्ति को प्राप्त होता है और ना ही उसके जन्म, बुढापा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण आदि कोई एक भी संज्ञा होती है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे -
67
आज हम 3 गाथाओं में कर्म की महत्ता का कथन करते है। आचार्य योगिन्दु कहते हैं जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख, बन्ध और मोक्ष भी कर्म ही करता है तथा तीनों लोकों में भी कर्म ही आत्मा को भ्रमण कराता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे की 3 गाथाएँ -
64. दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ।।64।।
अर्थ - जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख कर्म ही उत्पन्न करता है। आत्मा मात्र देेखता और जानता है, इस प्रकार निश्चय (नय) कहता है।
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इस जगत में कर्मों की ही वर्चस्वता है। हमारी समस्त इन्द्रियाँ, हमारा मन, हमारे समस्त विभाव, चारों गति में जन्म लेकर दुःख -सुख भोगना ये सब अपने शरा किये गये कर्मों के ही परिणाम हंै। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
63. पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव।। 63।।
अर्थ - हे जीव! पाँचों ही इन्द्रियाँ और मन, और भी समस्त विभाव और दूसरा चार गति का दुःख (ये सब) जीवों के कर्म से उत्पन्न किये गये हैं।
बन्धुओं, जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि आचार्य योगिन्दु का समय ई 6ठी शताब्दी है। मैं आपको इस ग्रंथ के बारे में विश्वास दिलाती हूँ कि जब आप इस ग्रंथ का मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर लेंगे तब आप इस संसार के वैचारिक द्वन्द से आक्रान्त होने से आसानी से बच जायेंगे। आपका अपने कार्य के प्रति लिया गया निर्णय सही होगा। इससे आप अपने जीवन के आनन्द का मधुर रस पान कर सकेंगे। मैं आपको कर्म की परिभाषा से पूर्व इस ग्रंथ के विषय में पुनः बता दूं कि यह ग्रंथ मुख्यरूप से तीन भागों में विभक्त है। 1. त्रिविध आत्मा अधिकार