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ABC of Apbhramsa

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लवण व अंकुश - इनके माध्यम से देखते हैं पुरुष प्रधान समाज की जीती जागती तस्वीर

राम-सीता के पुत्र लवण व अंकुश के चरित्र के माध्यम से हम यहाँ मात्र यही देखेंगे कि भारतीय संस्कृति में पुत्रों की माँ और पिता के जीवन में क्या भूमिका होती है ? और माँ के दुःखों का कारण क्या है ? इसको पढने के बाद शायद सभी इस पर गंभीरता से विचार करेंगे। राम के द्वारा गर्भवती सीता को निर्वासन दिया जाने के कारण लवण व अंकुश का जन्म तथा लालन-पालन वज्रजंघ राजा के पुण्डरीक नगर में हुआ। सभी कलाओं में निष्णता प्राप्त करने के बाद युवावस्था प्राप्त होने पर पराक्रमी लवण व अंकुश ने खस, सव्वर, बव्वर, टक्क, कीर,

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लक्ष्मण प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते। निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है।

लक्ष्मण   प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते।  निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है।   लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग।  सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण थ

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लक्ष्मण

लक्ष्मण   प्रशंसा एक ऐसी चीज है जिससे बड़े-योगी भी नहीं बच पाते।  निन्दा की आँच जिसे जला भी नहीं सकती, प्रशंसा की छाँव उसे छार-छार कर देती है।   लक्ष्मण राजा दशरथ व उनकी रानी सुमित्रा के पुत्र तथा काव्य के नायक राम के छोटे भाई हंै। राम व लक्ष्मण के विषय में स्वयंभू कहते हैं - एक्कु पवणु अण्णेक्कु हुआसणु, एक पवन था, तो दूसरा आग।  सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी लक्ष्मण के जीवन से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ काव्य में इस प्रकार हैं- सुन्दर व आकर्षक तथा कला प्रिय लक्ष्मण के

भरत

भरत पूर्व में राम के कथानक के माध्यम से स्वयंभू यही संदेष देना चाहते है कि प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वप्रथम अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करना चाहिए। प्राथमिकता पूरी होने के बाद आगे बढना चाहिए। इससे जीवन बहुत कम संघर्ष के आगे बढता है। राम की सबसे पहली प्राथमिकता उसकी माँ कौषल्या तथा पत्नी सीता होती है। आज भी यदि प्रत्येक व्यक्ति इस प्राथमिकता पर विचार कर इसको क्रियान्वित करने का प्रयास करे, तो एक षान्त और सुखी भारत का सपना साकार हो सकता है। इसी प्रकार हम स्वयंभू द्वारा रचित पउमचर

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राम

इससे पूर्व हमने दशरथ के चरित्र चित्रण के माध्यम से देखा कि अज्ञान अवस्था में रागभाव से की गयी मात्र एक गलती घर-परिवारजनों के लिए कितना संकट उत्पन्न कर देती है ? एक राग के कारण दशरथ अपनी पहली पत्नी कौशल्या के प्रति इतना संवेदनहीन हो गये कि वे यह भी विचार नहीं कर पाये कि कैकेयी की बात मानने से कौशल्या के मन पर क्या असर होगा। सारा परिवार किस प्रकार छिन्न भिन्न हो जायेगा। रागवश मनुष्य की मति संवेदनहीन हो जाती है। अब आगे हम राम के चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि वह एक संकट आगे पुनः कितने नये संकटों को

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4. दशरथ -

4. दशरथ - जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख प

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रामकथा के पात्रों का चरित्र चित्रण

अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने

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पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड थ्वससवू जीपे 0

पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये व

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अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम महाकाव्य: पउमचरिउ (राम चरित्र)

अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण

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अपभ्रंश भाषा के प्रथम काव्यकार:स्वयंभू

यंभू अविवाद्य रूप से अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि तथा प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में अपभ्रंश के आदि कवि हैं। इनकी महानता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के दूसरे महाकवि पुष्पदन्त ने उनको व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। स्वयंभू ‘महाकवि’, ‘कविराज’, ‘कविराज चक्रवर्ती’ जैसी उपाधियों से सम्मानित थे। जिस प्रकार सूर- सूर तुलसी-शशी जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य की दो महान विभूतियों का यशोगान करती है उसी प्रकार अपभ्रंश साहित्य में ’सयम्भू-भाणु, पुफ्फयन्त-णिसिकन्त तो कोई अतिशय

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भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य

भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही

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आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश

आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।   1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक) वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत  प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने स
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