आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराज को ऐसे गृहस्थों की संगति करने से मना करते हैं जो समता भाव से रहित हैं, क्योंकि समता भाव से रहित व्यक्तियों की संगति से मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार के दुःख मिलते हैं। उनसे मिलनेवाली चिंता मानसिक पीड़ा देती है जिससे शरीर भी पीड़ित होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
109. जो सम-भावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु।
चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु।।
अर्थ -जो समभाव से बाहर का है, उसके साथ संगति मत कर, (क्योंकि इससे तू) चिंता
आचार्य योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश ग्रंथ के प्रथम अधिकार त्रिविधात्माधिकार में आत्मा के तीन प्रकार का विस्तृत विवेचन किया। दूसरे मोक्ष अधिकार में मोक्ष का कथन किया। आगे इस तीसरे महाअधिकार में आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी भाई मुनिराजों के हित के लिए मुनि विषयक कथन कर रहे हैं। वे तीसरे अधिकार के प्रथम दोहे की शुरुआत ही इससे करते हैं कि श्रेष्ठ मुनि की आत्मद्रव्य से भिन्न पर पदार्थों के प्रति अनासक्ति होती है। वे आत्म द्रव्य से भिन्न पर द्रव्य को जानते हुए पर द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं, क्योंक
आचार्य योगीन्दु परमात्म प्रकाश के दूसरे मोक्ष अधिकार को इस दोहे के साथ समाप्त करते हैं। वे समापनरूप इस अन्तिम दोहे में स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जिस दिन सभी जीवों का मन राग-द्वेष को समाप्त कर सभी जीवो को समान मान कर शुद्धरूप हो जायेगा, उस दिन समस्त त्रिभुवन में शान्ति हो जायेगी। यह त्रिभुवन ही शान्त अर्थात मोक्षस्थल बन जायेगा। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्म प्रकाश के मोक्ष अधिकार का अन्तिम दोहा -
107. एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्ण-विसेसु।
इक्कइँ देवइँ जे ँ वसइ तिहुयणु एह
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव व कर्म का अपना- अपना, अलग-अलग अस्तित्व है। ना कर्म जीव होता है और ना ही जीव कर्म होता है। यही कारण है कि किसी भी समय में जीव कर्मों को नष्ट कर उनसे अलग अपना अस्तित्व सिद्ध कर सिद्ध हो जाता है। जीवों का भेद कर्मों के द्वारा ही किया गया है। कर्मों से रहित जीव सभी समान रूप से सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं। देखिये इससे सम्बत्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा -
106. जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ।
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ।।
आचार्य योगिन्दु स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जो भी व्यक्ति सभी जीवों का एक सा स्वभाव या अवस्था स्वीकार नहीं करता, उसके समभाव नहीं हो सकता और समभाव के अभाव में वह अशान्त बना रहता है। यदि उसको शान्ति चाहिए तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह सभी जीवों की एक सी अवस्था स्वीकार कर सब के प्रति सम भाव रखे। यह समभाव ही संसाररूप सागर में शान्ति की प्राप्ति हेतु नाव के समान है। देखिये इससे सम्बन्धित अगला दोहा -
105 जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव।
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो ण
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में आत्मा के स्वरूप को वही समझ सकता है और अनुभव कर सकता है जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, इन समस्तभेद को व्यवहार मानता है किन्तु निश्चय से इनको एक समान समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
104. सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ।
एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ।।
अर्थ - जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, (इस) समस्त (भेद) को (व्यवहार से) जानता है, (तथा) दृढ़ निश्चय करके (इनको) एक समान
आचार्य योगीन्दु सभी जीव समान किस प्रकार हैं, इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सभी जीनों को जो जो भी शरीर मिला है वह अपने अपने किये गये कर्मों के अनुसार मिला है, एक दूसरे के कर्म का फल किसे भी नहीं मिला। सभी जीव सभी स्थानों में और सब समय में उतने ही प्रमाण में होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
103. अंगइँ सुहुमइँ बादरइँ विहि-वसिँ होंति जे बाल।
जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सय-काल।।
अर्थ - जो अबोध सूक्ष्म और बादर शरीर (हैं) (वे) कर्मों की अधीनता से होते
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो प्राणी जीव का लक्षण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को नहीं समझता वह ही अज्ञानी है। ऐसा अज्ञानी ही देह के भेद के आधार पर जीवों का अनेक प्रकार का भेद करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
102. देह-विभेयइँ जो कुणइ जीवहँ भेउ विचित्तु।
सो णवि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरित्तु।।
अर्थ - जो देह के भेद से जीवों का अनेक प्रकार भेद करता है, वह उन (जीवों) का लक्षण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को नहीं समझता है।
शब्दार्थ - देह-विभेयइँ - देह के भेद से
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव का लक्षण दर्शन और ज्ञान है। दर्शन व ज्ञान के आधार पर किया गया कर्म ही जीवों में भेद उत्पन्न करता है। और जो इस बात को मानता है वही ज्ञानी है और ऐसा ज्ञानी देह के भेद से जीवों में भेद को कभी भी स्वीकार नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
101. जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि।
देह-विभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि।।
अर्थ - जो भी प्राणी जीवों का लक्षण दर्शन और ज्ञान को समझता है, क्या वह ज्ञानी देह के भेद से ही उन (जीवों)
आचार्य योगीन्दु मोक्षगामी का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि मोक्ष में जाना कोई कठिन काम नहीं है। मोक्ष में जाने के लिए मात्र राग और द्वेष दोनों को छोड़कर और सभी जीवों को एक समान समझकर समभाव में स्थित होना पड़ता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
100. राय-दोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियंति।
ते सम-भावि परिट्ठिया लहु णिव्वाणु लहंति।।
अर्थ - जो राग और द्वेष दोनों को छोड़कर (सभी) जीवों को एक समान समझते हैं, समभाव में स्थित हुये वे शीघ्र्र मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
शब्दार्थ -राय-दो
आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो अपने आपको बहुत बड़ा ज्ञानी मानते हैं, किन्तु वे विभिन्न आत्माओं में भेद करते हैं, वे सच्चे अर्थ में ज्ञानी है ही नहीं और उनको कभी भी अपनी निर्मल आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता।। सच्चे अर्थ में वे ही ज्ञानी हैं और वे ज्ञानी ही अपनी निर्मल आत्मा का अनुभव करते हैं जो लोक में रहनेवाली आत्म में भेद नहीं करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
99. बंभहँ भुवणि वसंताहँ जे णवि भेउ करंति।
ते परमप्प-पयासयर जोइय विमलु मुणंति।।
अर्थ - 99.
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति को यह ज्ञान हो गया कि सभी जीवों का लक्षण ज्ञान और दर्शन है, इस लक्षण की अपेक्षा से सभी जीव समान है और यदि उनमें भेद हुआ है तो मात्र उसके कर्म के कारण। जिसमें यह ज्ञान हो गया वह तो फिर वह किसी भी जीव में छोटे-बड़े का भेद नहीं करेगा। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
98 जीवहँ लक्खणु जिणवरहिँ भासिउ दंसण-णाणु।
तेण ण किज्जइ भेउ तहिँ जइ मणि जाउ विहाण।।
अर्थ - जिनेन्द्रदेव के द्वारा जीवों का लक्षण (सम्यक्) दर्शन और ज्ञान कहा गया
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी जीव ज्ञानमय हैं, जन्म और मरण के बंधन से रहित हैं, जीव के प्रदेशों में समान हैं तथा सभी अपने-अपने गुणों में स्थित हैं। यदि इनमें भेद हुआ है तो मात्र अपने ही कर्म के कारण। वैसे सभी जीव मूल रूप में समान हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
97. जीवा सयलु वि णाण-मय जम्मण-मरण-विमुक्क।
जीव-पएसहिँ सयल सम सयल वि सगुणहिँ एक्क।।
अर्थ - सभी जीव ही ज्ञानमय, जन्म-मरण के बन्धन से रहित (अपने- अपने) जीव के प्रदेशों में समान तथा सभी अपने गुणों में एक है
आचार्य योगीन्दु मानते हैं कि जब तक सभी जीवों को एक नहीं माना जायेगा तब तक संसार में शान्ति की स्थापना असंभव है। सुख और दुःख सभी स्तर के जीवों को होते हैं, सभी जीवों की मूलभूत आवश्यक्ताएँ समान हैं। जब तक किसी भी व्यक्ति कों इस सच्चाई का बोध नहीं होगा तब तक उसके द्वारा की गई क्रियाएँ निरर्थक होंगी उसके द्वारा की गई क्रियाएँ उसको स्वयं को ही संतुष्ट नहीं कर सकेंगी। जैसे ही उसे इस सच्चाई का बोध होगा उसकी प्रत्येक क्रिया जागरूकता से होने के कारण सार्थक होगी और वह स्वयं भी पूर्ण सन्तुष्ट होगा। मेरे सम
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति में व्यक्ति के विकास के सोपान तीन रत्न, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही है। सर्वप्रथम अपनी दृष्टि निर्मल होने पर ही प्रत्येक वस्तु का सही रूप में बोध हो पाता है और जब बोध सही होता है तब वह बोध ही चारित्र में उतर पाता है। सही चारित्र ही व्यक्ति का सर्वोत्तम विकास है। इसलिए चारित्र तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। दृष्टि के निर्मल होने के बाद चारित्र का पालन कठिन नहीं है किन्तु दृष्टि का निर्मल होना बहुत कठिन है। इसील
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सर्वोच्च सत्य की खोज पर जो अग्रसर हुए हैं और जो अनुसंधान किया है वह है समभाव। इस समभावरूप सर्वोच्च सत्य की खोल कर लेने पर उनके लिए कोई भी छोटा और बड़ा नहीं होता है। सभी जीवों की आत्मा उनके लिए परम आत्मा होती है। सर्वोच्च सत्य के अनुभवी ही सर्वोदय का कार्य कर ते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
94. बुज्झंतहँ परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ।
जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ।।
अर्थ - हे जीव! सर्वोच्च सत्य को समझते हुओं के (लिए)
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सामान्य व्यक्ति सत्य को समझ पाये यह बहुत मुश्किल है किन्तु उन मुनिराजों के लिए भी सत्य को समझ पाना उतना ही नामुमकिन है जो धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक परिग्रह के कारण स्वयं को बड़ा मानते हैं। देखिये इससे सम्बन्धि आगे का दोहा - ,
93 अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गरुयउ गंथहि तत्थु।
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु।।
अर्थ - जो भी मुनि (धन धान्य आदि बाह्य तथा क्रोध आदि आन्तरिक) परिग्रह के कारण स्वयं को वास्तव (में) बड़ा मानता है, वह वास्तव में
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यश लाभ की इच्छा ही व्यक्ति के विकास में बाधा है। चाहे गृहस्थ हो या मुनि यदि वह यश लाभ की इच्छा रहित होकर काम करे तो उसका काम स्व और पर दोनों के लिए हितकारी होगा। यश व लाभ की इच्छा से किये काम से अपना लक्ष्य पूरा नहीं होने पर काम के प्रति किया श्रम व समय व्यर्थ हो जाता है और यश के बदले में अपयश ही मिलता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
92 लाहहँ कित्तिहि कारणिण जे सिव-मग्गुु चयंति।
खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउल्लु देउ डहंति।।
अर्थ
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराजों के प्रति बहुत स्नेह रखते हैं। वे चाहते हैं कि जिस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठिन चर्या अपनायी है वह छोटी- छोटी आसक्तियों में व्यर्थ नहीं हो जावे और कहीं वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकें। इसीलिए वे कहते हैं कि मुनिराज ने मुनिराज अवस्था से पूर्व परिग्रह त्याग करके मुनिराज पद धारण किया है, और अब वे मुनि अवस्था ग्रहण कर पुनः परिग्रह रखते हैं तो वह वैसा ही है जैसे परिग्रहरूप वमन का त्याग करके पुनः उस त्यागे हुए परिग्रहरूप वमन को अंगीकार करे।
आचार्य योगीन्दु एक उच्च कोटि के अध्यात्मकार तो हैं ही साथ में बहुत संवेदनशील भी हैं। वे अपने साधर्मी बन्धु मुनिराजों के प्रति बहुत संवेदनशील है। वे कहते हैं कि जिनवर भेष धारण करना और केश लोंच जैसे कठिन कार्य करके भी मात्र एक परिग्रह त्याग जैसे सरल कार्य को नहीं अंगीकार किया गया तो उसने स्वयं ने ही अपनी आत्मा को ठग लिया और फिर जिस प्रयोजन से उन्होंने जिस कठिन मार्ग को अपनाया था वह व्यर्थ हो गया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
90. केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण।
सयल
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नही
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नही
आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व अज्ञानी मुनि की क्रिया में मुख्यरूप से भेद करते हैं कि अज्ञानी मुनि निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी मुनि इनको बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
88. चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि ँ तूसइ मूढु णिभंतु।
एयहि ँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु।।
अर्थ - अज्ञानी (मुनि) निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी (इनको) बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है।
शब्दार्
आचार्य योगीन्दु ज्ञानी और मूर्ख मुनि में ज्ञानी मुनि का यह लक्षण बताने के बाद कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है, अज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि अज्ञानी मुनि बहुत प्रकार के धर्म के बहाने से इस समस्त जगत को ही प्राप्त करने के लिए इच्छा करता है। ज्ञानी और अज्ञार्नी मुनि में यह ही भेद है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
87. लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु।
बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहि ँ वि एहु विसेसु।।
अर्थ - किन्तु अ
आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व मूर्ख मुनियों में भेद करते हुए ज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
86. णाणिहि ँ मूढहँ मुणिवरहँ अंतरु होइ महंतु।
देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवहँ भिण्णु मुणंतु।। 86।।
अर्थ -ज्ञानी (मुनिवरों) में मूर्ख मुनिवरों से बहुत बड़ा भेद होता है। ज्ञानी देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह (देह के प्रति आसक्ति) को छोड़ देता है।
शब्दार्थ - णाणिहि ँ -ज्ञ