मित्रों, जिस प्रकार नमि व विनमि के विजयार्ध पर्वत पर जाकर बसने के कारण विद्याधरवंश का उद्भव हुआ उसी प्रकार घर, परिवार, समाज, नगर व देश के उद्भव व विकास के भी कुछ इसी प्रकार के कारण रहे हैं।
प्रश्न 15 ऋषभदेव का प्रथम आहार किसने, कहाँ और कब दिया ?
उत्तर 15 हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने, हस्तिनापुर में, वैशाखशुक्ल तृतीया को दिया।
प्रश्न 16 राजा श्रेयांस ने ऋषभदेव को आहार में क्या दिया ?
उत्तर 16 इक्षु रस
प्रश्न
प्रश्न 11 नमि और विनमि कौन थे ?
उत्तर 11 नमि और विनमि, ऋषभदेव के साले कच्छप और महाकच्छप के पुत्र थे।
प्रश्न 12 राजा ऋषभ ने नमि और विनमि को कौन सा क्षेत्र प्रदान किया था ?
उत्तर 12 विजयार्ध पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी।
प्रश्न 13 नमि व विनमि ने विजयार्ध पर्वत की उत्तर व दक्षिण श्रेणियाँ प्राप्त कर क्या किया ?
उत्तर 13 नमि विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में तथा विनमि विजयार्ध पर्वत
प्रश्न 9 नाभिराज के पुत्र ऋषभ का देवताओं ने अभिषेक कहाँ किया ?
उत्तर 9 सुमेरुपर्वत पर
प्रश्न 10 राजा ऋषभ के लिए वैराग्य का क्या कारण बना ?
उत्तर 10 नृत्य करती नीलांजना का प्राण त्यागना
प्रश्न 11 ऋषभदेव ने संन्यास कहाँ लिया ?
उत्तर 11 प्रयाग उपवन में
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि समता भाव वाले के ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पलते हैं। समता भाव से रहित के दर्शन, ज्ञान और चरित्र में से एक भी नहीं पलता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
40. दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ।
इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।।
अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं।
शब्दार्थ - दंसण-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरि
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र धारण करना तभी संभव है जब शान्त भाव हो। अत- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पालन से पहले भावों को शान्त रखने का अभ्यास करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
40. दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ।
इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।।
अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं।
शब्दार्थ -
प्रश्न 6 कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर प्रजा ने राजा ऋषभ से क्या कहा \
उत्तर 6 प्रजा ने कहा] हे राजन! हम भूख की मार से मरे जा रहे हैं। इस समय
खान पान व जीवन जीने के क्या उपाय है \
प्रश्न 7 प्रजा की करुण पुकार सुनकर राजा ऋषभ ने क्या कहा \
उत्तर 7 राजा ऋषभ ने उन्हें असि] मसि, कृषि, वाणिज्य और दूसरी अन्य
विद्याओं की शिक्षा दी।
प्रश्न 8 राजा ऋषभ का विवाह किससे हुआ \
उत्तर 8 नन्दा व सुनन्दा
प्रश्न 3 मरुदेवी ने रात मे देखे गये स्वप्न किसको बताये ?
उत्तर महाराज नाभिराज को
प्रश्न 4 स्वप्न सुनकर नाभिराज ने मरुदेवी को क्या कहा ?
उत्तर - तुम्हारे त्रिभुवन-विभूषण पुत्र होगा
प्रश्न 5 मरुदेवी के पुत्र का क्या नाम था ?
उत्तर ऋषभ कुमार, आदि कुमार
आचार्य योगिन्दु स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कर्मों की निर्जरा व संवर करने वाला योग्य पात्र वही है जो आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
39. कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ।
संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ।।
अर्थ - वह (ही) पूर्व में कियेे कर्म को नष्ट करता है और नये (कर्म) के प्रवेश को (अपने में) स्थान नहीं देता, जो समस्त आसक्ति को छोड़कर शान्त भाव धारण करता है।
शब्दार्थ - कम्मु-कर्म को, पुरक्किउ-पूर्व में किये गये, स
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि संवर और निर्जरा करने का अभ्यास आत्मस्वरूप में लीन होकर ही किया जा सकता है। समस्त विकल्प इस आत्म विलीन अवस्था में ही नष्ट होते हैं। ध्यान के समय इसका अभ्यास करने के बाद व्यक्ति धीरे-धीरे प्रत्येक स्थिति में तटस्थ रहने का अभ्यासी हो जाता है और संसारी कार्य करता हुआ भी वह विकल्पों से दूर रहता है। इस प्रकार उसकी संवर व निर्जरा की अवधि धीरे-धीरे बढ़ती रहती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
38. अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु।
संवर-णिज्जर
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी (मुनि) के द्वारा समभावपूर्वक की गयी क्रिया ही उसके पुण्य और पाप के संवर का कारण होती है। देखिये इससे सम्बन्धित निम्न दोहा -
37. बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ।
पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ।।
अर्थ - (फिर) जिससे दोनों (सुख और दुःख) को ही सहता हुआ मुनि मन में सम भाव धारण करता है। इसलिए हे जीव! वह पुण्य और पाप के संवर (कर्म निरोध) का कारण होता है।
शब्दार्थ - बिण्णि-दोनों को, वि-ही, जेण-जिससे, सहंतु -सहता हुआ, मुणि-मुन
ब्लागस मित्रों, जयजिनेन्द्र।
परमात्मप्रकाश पर ब्लाँग लिखने से पूर्व मैंने (पउमचरिउ) जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण किया था। उसके माध्यम से हम यह जान चुके थे कि जैन रामकथा भारतीय समाज की एक जीती जागती तस्वीर है। उसमें हमने यह देखा कि हम अपने विवेक से या फिर हम दूसरों की प्रेरणा से जो कुछ कर रहे हैं उसी का परिणाम भुगत रहे हैं। पिछले आरम्भिक ब्लाँग में पात्रों के चरित्र चित्रण के बाद मुझे लगा कि क्यों न मैं इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को जो भारतीय समाज की जीती जागती तस्वीर है अपने ब्लाग
आचार्य योगीन्दु ज्ञानीव्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह दुःख और सुख को समता भाव से सहता है, जिसके कारण उसके कर्मों की निर्जरा होती है और वह आसक्ति से रहित कहा जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
36. दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु।
कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु।।।
अर्थ - दुःख और सुख को सहता हुआ ध्यान में पूर्णरूप से विलीन ज्ञानी जीव निर्जरा (कर्मों के क्षय) का कारण होता है, तब वह आसक्ति से रहित कहा जाता है।
शब्दार्थ - दुक्खु-दुःख, वि-और, सुक्
स्वदर्शन के बाद आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो ज्ञान सम्यक्दर्शन होने में कारण है तथा जो वस्तु के भेओ को स्पष्टतः जानता है वह सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
35. दंसण-पुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहँ विण्णाणु।
वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु।।
अर्थ -दर्शन का कारण (तथा) वस्तु के भेदों को जानता हुआ जो जीवों का स्पष्ट निश्चयात्मक (सद्बोधात्मक) ज्ञान है उसको (तू) अचल ज्ञान समझ।
शब्दार्थ - दंसण-पु
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के बिना आत्मा का ध्यान संभव नहीं है, इसलिए सर्वप्रथम स्वदर्शन को जानना आवश्यक है। स्वदर्शन के विषय में वे कहते हैं कि जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण है, वह ही स्व दर्शन है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
34. सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ।
वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दंसणु जोइ।।
अर्थ - जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण (अधिगम) है, उसको (तू)
निज (स्व) दर्शन जान।
आचार्य योगीन्दु पुनः इसी बात को दृढता के साथ कहते हैं कि रत्नत्रययुक्त आचरण के साथ आत्मा का ध्यान करनेवाले ज्ञानी निश्चय से मुक्ति को प्राप्त होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
33. अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति।
ते पर णियमे ँ परम-मुणि लहु णिव्वाण लहंति।।
अर्थ - जो प्रतिदिन विशुद्ध और गुणमय आत्मा का प्रतिदिन ध्यान करते हैं, मात्र वे (ही) श्रेष्ठ मुनि निश्चय से शीघ्र मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा का, गुणमउ-गुणमय, णिम्मलउ-विशुद्ध, अणुद
आचार्य योगिन्दु यहाँ मोक्षपद अर्थात शाश्वत शान्तिपद प्राप्ति की सही राह बताते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति विशुद्ध रत्नत्रय से ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होना मानते हैं तथा मोक्षपद प्राप्ति के इच्छुक हैं वे ही अपनी आत्मा का ध्यान कर मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार इस दोहे में योगिन्दुदेव ने मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान रत्नत्रय को माना है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
32. जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति।
ते आराहय सिव-पयहँ णिय अप्पा झायंति।।
अर्थ - ज
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में रत्नत्रय का आराधक वही है जिसका ध्येय मात्र एक गुणों का आवास आत्मा है। गुणनिधि आत्मा का ध्यान ही शुद्ध भावों का जनक है। व्यवहारिकरूप में भी यह देखा जाता है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसके शुद्ध भावों पर ही आधारित है जबकि बाहरी विकास मात्र दिखावे पर आधारित है। आन्तरिक विकास शाश्वत है जबकि बाहरी विकास क्षणिक और परिवर्तनशील है। आन्तरिक विकास से व्यक्ति सुख-दुःख से कम प्रभावित होता है जबकि बाहरी विकास जरा से दुःख में भी व्यक्ति को आहत कर देता है। इसीलिए रत्
ज्ञान के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य चारित्र के विषय में संक्षेप में कहते हैं कि स्वकीय शुद्ध भाव ही चारित्र है और यह चारित्र स्व और पर को समझन के बाद पर स्वभाव का त्याग करने पर फलित होता है। यह है आचार्य योगीन्दु की विचक्षणता। उन्होंने विशालकाय चारित्र को स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका दिया। स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका हुआ चारित्ररूपी महल का कथन कर शुद्ध चारित्र का निर्वाह बहुत आसान कर दिया। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया अपने भाव से करता है। अतः शुद्धभावपूर्वक की गयी क्रिया शुद्ध
आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में कहते हैं कि जो द्रव्य जिस तरह स्थित है उसको जो उस ही प्रकार जानता है, आत्मा के जानने का वह सही स्वभाव ही ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
29. जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि।
अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि।।29।।
अर्थ - जो द्रव्य जिस तरह स्थित है (और) उसको जो (आत्मा) उस ही प्रकार जानता है, (उस) आत्मा के उस स्वभाव (सहज गुण) को ही तू ज्ञान समझ।
शब्दार्थ - जं - जो, जह-जिस प्रकार, थक्कउ-स्थित, दव्वु -द्रव्य,
आचार्य योगिन्दु ने द्रव्यों के कथन के साथ पिछले दोहों में सम्यग्दर्शन के कथन को पूरा किया। अब वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान व चारित्र का कथन करेंगे। इसी सूचनात्मक कथन से सम्बन्धित देखिये इनका अग्रिम दोहा -
28. णियमे ँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि।
एवहि ँ णाणु चरित्तु सुणि जे ँ पावहि परमेट्ठि।।
अर्थ -. नियमपूर्वक मेरे द्वारा व्यवहार (नय) से यह ही (सम्यक्) दर्शन कहा गया। अब तू ज्ञान और चरित्र को सुन, जिससे तू परम पूज्य (सिद्धत्व) को प्राप्त करे।
शब्दा
समस्त द्रव्यों के बारे में मूलभूत जानकारी देने के बाद आचार्य योगिन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव को समझकर ही दुःख व सुख के कारणों को समझा जा सकता है। तभी दुःख के कारणों से बचकर तथा सुख के कारणों में लगकर ही शान्ति के मार्ग से श्रेष्ठ लोक मोक्ष में जाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
27. दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ।
होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ।।
अर्थ - हे जीव! द्रव्यों के इस स्वभाव कोे दुःख का कारण ज
द्रव्यों का संक्षिप्त में स्पष्टरूप से कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जीवों की क्रिया का कारण ये द्रव्य ही हैं। इन द्रव्यों के फलस्वरूप ही जीव विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं। इन कर्म के कारण ही जीव चारों गतियों के दुःखों को सहन करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित अग्रिम दोहा -
26. एयइँ दव्वइँ देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति।
चउ-गइ-दुक्खु सहंत जिय ते ँ संसारु भमंति।।26।।
अर्थ - ये द्रव्य जीवों के लिए अपने- अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं। उ
आचार्य योगिन्दु इन द्रव्यों की स्थिति के विषय में कहते हैं कि ये सभी द्रव्य लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए अपने-अपने गुणों में रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
25. लोयागासु धरेवि जिय कहियइँ दव्वइँ जाइँ।
एक्कहिं मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहि णिवसहि ताइँ।।
अर्थ - हे जीव! (ये) जो द्रव्य कहे गये हैं वे सब लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए निजी (आत्मीय)े गुणों में रहते हैं।
शब्दार्थ - लोयागासु -लोकाकाश को, धरेवि-धारणकर, ज
आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के प्रदेशों के विषय में कहते हैं कि धर्म, अधर्म और जीव असंख्य प्रदेशी हैं, आकाश अनन्त प्रदेशी है तथा पुद्गल बहु प्रदेशी है। काल का कोई प्रदेश नहीं है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में धर्म, अधर्म, जीव, आकाश और पुद्गल को सम्मिलित किया है, काल द्रव्य को नहीं किया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
24. धम्माधम्मु वि एक्कु जिउ ए जि असंख्य-पदेस।
गयणु अणंत-पएस मुणि बहु-विह पुग्गल-देस।।
अर्थ - धर्म, अधर्म और एक जीव इन (तीनों) को ही तू
आचार्य योगीन्दु द्रव्यों के गमन और आगमन की क्रिया के सम्बन्ध में बताते हैं कि जीव व पुद्गल आवागमन करते हैं। जीव द्रव्य का चारों गतियों में आवागमन होता है और पुद्गल द्रव्य का भी जीव द्रव्य के द्वारा इधर. उधर होना देखा जाता है। इन दो द्रव्यों को छोड़कर बाकी अन्य चारों धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य जीव व पुद्गल द्रव्य की भाँति आवागमन से रहित है। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का आगे का दोहा -
23. दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण।
जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि पभणहि ँ णाण