जीव व कर्म पृथक- पृथक हैं
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव व कर्म का अपना- अपना, अलग-अलग अस्तित्व है। ना कर्म जीव होता है और ना ही जीव कर्म होता है। यही कारण है कि किसी भी समय में जीव कर्मों को नष्ट कर उनसे अलग अपना अस्तित्व सिद्ध कर सिद्ध हो जाता है। जीवों का भेद कर्मों के द्वारा ही किया गया है। कर्मों से रहित जीव सभी समान रूप से सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं। देखिये इससे सम्बत्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा -
106. जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ।
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ।।
अर्थ - निश्चयपूर्वक जीवों का भेद कर्मों के द्वारा किया गया है, कर्म जीव होता ही नहीं है, जिस कारण से किसी भी समय को प्राप्त करके जीव उन (कर्मों) से अलग हो जाता है।
शब्दार्थ - जीवहँ-जीवों का, भेउ-भेद, जि-निश्चयपूर्वक, कम्म-किउ-कर्मों के द्वारा किया गया है, कम्मु-कर्म, वि -ही, जीउ-जीव, ण-नहीं, होइ-होता है, जेण-जिस कारण से, विभिण्णउ-अलग, होइ-हो जाता है, तहँ-उनसे, कालु-समय को, लहेविणु-प्राप्त करके, को- किसी, इ-भी।
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