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आत्म-स्वरूप का अनुभवी कौन है ?


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में आत्मा के स्वरूप को वही समझ सकता है और अनुभव कर सकता है जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, इन समस्तभेद को व्यवहार मानता है किन्तु निश्चय से इनको एक समान समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

104.    सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ।

        एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ।।         

अर्थ - जो जीव के शत्रु और मित्र, अपने और दूसरे, (इस) समस्त (भेद) को (व्यवहार से) जानता है,  (तथा) दृढ़ निश्चय करके (इनको) एक समान समझता है, वह (ही) आत्मा (के स्वरूप) को अनुभव करता है।

शब्दार्थ - सत्तु-शत्रु, वि-और, मित्तु-मित्र, वि-और, अप्पु-अपने, परु -दूसरे, जीव-जीव के, असेसु-समस्त, विएइ-जानता है, एक्कु-एक समान, करेविणु -दृढ़ निश्चय करके, जो-जो, मुणइ-समझता है, सो-वह, अप्पा-आत्मा को, जाणेइ-अनुभव करता है।

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