ज्ञानी देह के भेद से जीवों में भेद नहीं मानता है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव का लक्षण दर्शन और ज्ञान है। दर्शन व ज्ञान के आधार पर किया गया कर्म ही जीवों में भेद उत्पन्न करता है। और जो इस बात को मानता है वही ज्ञानी है और ऐसा ज्ञानी देह के भेद से जीवों में भेद को कभी भी स्वीकार नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
101. जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि।
देह-विभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि।।
अर्थ - जो भी प्राणी जीवों का लक्षण दर्शन और ज्ञान को समझता है, क्या वह ज्ञानी देह के भेद से ही उन (जीवों) के भेद को मानता है ?
शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों का, दंसणु - दर्शन, णाणु -ज्ञान को, जिय-प्राणी, लक्खणु -लक्षण, जाणइ-समझता है, जो- जो, जि-भी, देह-विभेएँ - देह के भेद से, भेउ-भेद को, तहँ-उनके, णाणि-ज्ञानी, कि-क्या, मण्णइ-मानता है, सो-वह, जि-ही।
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