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श्रेष्ठ मुनि की पर पदार्थों के प्रति अनासक्ति


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु ने परमात्मप्रकाश ग्रंथ के प्रथम अधिकार त्रिविधात्माधिकार में आत्मा के तीन प्रकार का विस्तृत विवेचन किया। दूसरे मोक्ष अधिकार में मोक्ष का कथन किया। आगे इस तीसरे महाअधिकार में आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी भाई मुनिराजों के हित के लिए मुनि विषयक कथन कर रहे हैं। वे तीसरे अधिकार के प्रथम दोहे की शुरुआत ही इससे करते हैं कि श्रेष्ठ मुनि की आत्मद्रव्य से भिन्न पर पदार्थों के प्रति अनासक्ति होती है। वे आत्म द्रव्य से भिन्न पर द्रव्य को जानते हुए पर द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि पर द्रव्य के प्रति आसक्ति से परमात्मा के ध्यान से विचलित हो जाते हैं, भटक जाते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

108.  परु जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति।

      पर-संगइँ परमप्पयहँ लक्खहँ जेण चलंति।।

श्रेष्ठ मुनि उत्कृष्ट (आत्म द्रव्य) को जानते हुए होते हैंैं, इसलिए (आत्मा से भिन्न) पर द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं, क्योंकि (आत्मा से भिन्न) पर द्रव्य के सम्बन्ध से ध्यान करने योग्य परम पद से विचलित हो जाते हैं (भटक जाते हैं)

शब्दार्थ - परु -पर को,जाणंतु-जानते हुए, वि-इसीलिए, परम-मुणि - श्रेष्ठ मुनि, पर-संसग्गु-पर के सम्बन्ध को, चयंति-छोड़ देते हैं, पर-संगइँ-पर के सम्बन्ध से, परमप्पयहँ-परम पद से, लक्खहँ -ध्यान करने योग्य, जेण - क्योंकि, चलंति-विचलित हो जाते हैं।

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