?महत्वपूर्ण शंका का समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१ ?
"महत्वपूर्ण शंका समाधान"
अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-२ है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल मूत्र का संबंध नहीं है।"
इसके पश्चात महराज ने पूंछा,"यह बताओ की तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं?"
प्रोफेसर,"हाँ ! महराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।"
महराज, "अब विचारो जिस जल में मछली आदि, आदि मल मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है।
इसके पश्चात महराज ने कहा, "हम लोग तो पानी छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।"
यह सुनते ही वे विद्वान चुप हो गए। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है।
पुनः महराज ने यह भी कहा, "जो यह सोचते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े के लिए ही होता है, वह भी दोषपूर्ण कथन है। गाय के अंदर बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरता पूर्ण समझ रखा है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ३?
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