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?दिल्ली चातुर्मास - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२०


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

          पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर्विध्न विहार उनके संयम और तपश्चरण का ही प्रभाव था।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९   ?


                "दिल्ली चातुर्मास"


             दिल्ली आगमन के उपरांत पूज्य शान्तिसागरजी महराज का हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान हुआ। वहाँ अनेक स्थानों के भव्य जीवों का कल्याण करते हुए दिल्ली समाज के सौभाग्य से पुनः संघ का वहाँ आगमन हुआ।

            पूज्यश्री ने ससंघ राजधानी में ही चातुर्मास करने का निश्चय किया। संघ का निवास दरियागंज में हुआ था। पहले गुरुदेव के वियोग से जिन लोगों को संताप पहुँचा था, उनके आनंद का पारावार न रहा जब उनको ज्ञात हुआ कि अब दिल्ली का भाग्य पुनः जग गया, जहाँ ऐसे मुनिराज का चार माह तक धर्मोपदेश होगा।

          लोगों के मन में आशंका होती थी कि अंग्रेजों का राज्य है, कही राजधानी में मुनि विहार पर प्रतिबंध न आ जावे, किन्तु आचार्यश्री के सामने भय का नाम नहीं था। वे तो पूर्णतः निर्भय हैं। जो मृत्यु से भी सदा झूजने को तैयार रहते रहे हैं। उनको किस बात का डर होगा।


?समस्त देहली में दिगम्बर मुनियों का            
                   स्वतंत्र विहार?

                  मुनि संघ दरियागंज में स्थित था, किन्तु संघ के साधु आहार के लिए दिल्ली शहर के मुख्य-मुख्य राजपत्रों से आया जाया करते थे। कहीं कोई भी रोक टोक नहीं हुई। यह उनके तप का महान तेज था, जो उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ निर्विघ्न रीति से भारत की राजधानी में भ्रमण करता रहा।

        बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महराज के दर्शन करके अपने को धन्य मानते थे। दिगम्बर मुनियों का विहार न होने से कई लोगों को दिगम्बरत्व यथार्थ में 'अंधे की टेढ़ी खीर' जैसी समस्या बन जाया करता है, किन्तु किन्तु प्रत्यक्ष परिचय में आने वाले लोगों को वे परमाराध्य, सर्वदा, वंदनीय और मुक्ति का अनन्य उपाय प्रतीत होते हैं।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  ?आजकी तिथी - वैशाख शुक्ल २?


    कल दान तीर्थ प्रवर्तन पर्व "अक्षय तृतीया पर्व" है। अक्षय तृतीया ही वह विशेष तिथी थी जिसमें हम सभी श्रावकों को मुनियों को आहार दान द्वारा अतिशय पुण्योपर्जन की विधी का ज्ञान हुआ था। 

          इस विशेष पर्व को मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान तथा वैयावृत्ति करके मनाना चाहिए।

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