अज्ञानी जीव की क्रिया का फल
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अज्ञानी जीव समभाव में स्थित नहीं होने के कारण मोह से दुःख सहता हुआ संसार में भ्रमण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
55 जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पावु वि दोइ।
सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।।
अर्थ - जो जीव पाप और पुण्य दोनों को ही समान नहीं मानता है, वह जीव बहुत काल तक दुःख सहता हुआ मोह से संसार में भ्रमण करता है।
शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीउ-जीव, समु-समान, पुण्णु-पुण्य, वि-और, पावु-पाप, वि-ही, दोइ-दोनों को, सो-वह, चिरु-चिर काल तक, दुक्खु-दुःख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, मोहिं-मोह से, हिंडइ-भ्रमण करता है, लोइ-लोक में।
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