क्रमशः राग द्वेष रहित समभाव में स्थित जीव के लक्षण
आगे के दो दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः समभाव में स्थित हुए जीव के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह अपने शत्रुभाव को छोड़कर परम आत्मा में लीन हो जाता है और और अकेला लोक के शिखर के ऊपर चढ जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
45. अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।
सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहं णिलीणु हवेइ।
अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके अन्य दोष भी होता है कि वह अपने शत्रु को छोड़कर परम आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है।
शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, सत्तु -शत्रु, वि-और, मिल्लिवि-छोड़कर, अप्पणउ-अपने, परहं -परम आत्मा में, णिलीणु-अत्यन्त विलीन, हवेइ-हो जाता है।
46 अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।
वियलु हवेविणु इक्कलउ उप्परि जगहँ चडेइ।।
अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है,उसका अन्य दोष और होता है, वह (सबसे) रहित होकर अकेला लोक के (शिखर) के ऊपर चढ़ जाता है।
शब्दार्थ - अण्णु-दूसरा, वि-भी, दोसु-दोष, हवेइ-होता है, तसु-उसके, जो-जो, सम-भाउ-रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव, करेइ-धारण करता है, वियलु -रहित, हवेविणु-होकर, इक्कलउ-अकेला, उप्परि-ऊपर जगहँ -लोक के, चडेइ-चढ़ जाता है।
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