योगी और संसारी जीव में भेद
आचार्य यागीन्दु योगी व संसारी जीवों में भेद बताते हैं कि जब संसारी जीव अपने आत्मस्वरूप से विमुख होकर अचेत सो रहे होते हैं तब योगी अपने स्वरूप में सावधान होकर जागता है और जब संसारी जीव विषय कषायरूप अवस्था में जाग रहे होते हैं उस अवस्था में योगी उदासीन अर्थात् सुप्त रहते हैं। अर्थात् योगी को आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
46.1 जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ।
जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।।
अर्थ -जो सब संसारी जीवों की रात है उस में साधुु जागता है और जिसमें समस्त संसार जागता है उसको रात मानकर वह सोता है।
शब्दार्थ - जा-जो, णिसि-रात, सयलहँ -सब,देहियहँ-संसारी जीवों की, जोग्गिउ-योगी, तहिँ-उसमें, जग्गेइ-जागता है, जहिँ -जिसमें, पुणु-और, जग्गइ-जागता है, सयलु -समस्त, जगु-जग, सा-वह (उसको) णिसि-रात, मणिवि-मानकर, सुवेइ-सोता है।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.