क्रमशः ज्ञानी का कथन
आचार्य योगीन्दु आगे के दो दोहे में योगी की अन्य विशेषताओ का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि योगी ने शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को तथा कर्म बन्धनों के हेतु और उनके स्वभाव को जान लिया है, इसीलिए वह शरीर तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग द्वेष नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - अर्थ सरल है, इसलिए शब्द विश्लेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ। पाठकगण चाहे तो बतायें।
51. देहहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।
देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।।
अर्थ - जिसके द्वारा शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि शरीर पर राग और द्वेष नहीं करता।
52. वित्ति-णिवित्तिहि ँ परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।
बंधहँ हेउ वियाणियउ एयहँ जेण सहाउ।। 52।।
अर्थ -जिसके द्वारा इन कर्म बन्धनों के हेतु और इनका स्वभाव जान लिया गया है, (वह) श्रेष्ठ मुनि प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग-द्वेष नहीं करता।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.