योगी अर्थात् ज्ञानी का कथन
आचार्य योगीन्दु योगी व संसारी जीव में भेद बताने के बाद योगी अर्थात ज्ञानी के विषय में क्रमश 6 दोहों में कथन करते हैं। प्रथम दोहे में वे कहते हैं कि ज्ञानी समभाव में स्थित होने के कारण ही आत्म स्वभाव को प्राप्त करता है एवं राग से दूर रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
47. णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ।
जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प- सहाउ।
अर्थ - ज्ञानी समभाव को छोड़कर कहीं भी राग को प्राप्त नहीं होता। जिससे वह उस (समभाव) के कारण ही ज्ञानमय आत्म स्वभाव को प्राप्त करेगा।
शब्दार्थ - णाणि-ज्ञानी, मुएप्पिणु-छोड़कर, भाउ-भाव, समु -सम, कित्थु-कहीं, वि-भी, जाइ -प्राप्त होता,ण -नहीं, राउ-राग को, जेण-जिससे, लहेसइ -प्राप्त करेगा, णाणमउ-ज्ञानमय, तेण-उसके कारण, जि-ही, अप्प- सहाउ- आत्म स्वभाव को।
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