क्रमशः ज्ञानी का कथन
आचार्य योगीन्दु पुनः योगी के विषय में कहते हैं कि योगी कहने, कहलवाने, स्तुति करने, निंदा करने आदि विषम भावों से परे रहकर समभाव में स्थित रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
48. भणइ भणावइ णवि थुणइ णिंदइ णाणि ण कोइ।
सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ।
अर्थ -ज्ञानी पुरुष न कुछ कहता है न कहलवाता है, न स्तुति करता है न निंदा करता है। वह सिद्धि का कारण समभाव को जानता हुआ उसी में स्नान (अवगााहन) करता है
शब्दार्थ - भणइ- कहता है, भणावइ-कहलवाता है, णवि-न, ही, थुणइ-स्तुति करता है, णिंदइ-निन्दा करता है, णाणि-ज्ञानी, ण-न, कोइ-किसी की, सिद्धिहिँ-सिद्धि का, कारणु-कारण, भाउ-भाव, समु-सम, जाणंतउ-जानता हुआ, पर-पूरी तरह से, सोइ-स्नान करता है।
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