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समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति के लिए मोह का त्याग आवश्यक


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोह कषाय का कारण है तथा कषाय ही राग द्वेष का कारण है। इसलिए मोह के त्याग से ही समत्वमय प्रज्ञा की प्राप्ति संभव है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

42.   जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु।

      मोह-कसाय-विवज्जियउ पर पावहि सम-बोहु।।

अर्थ -  हे जीव! जिससे मन में कषाएँ उत्पन्न होती हैं, उस मोह को तू छोड़। मोह कषाय

     से रहित हुआ (तू) राग-द्वेष रहित समत्वमय प्रज्ञा कोे प्राप्त कर।

 शब्दार्थ - जेण-जिससे, कसाय-कषाएँ, हवंति-होती हैं, मणि-मन में, सो-उसको, जिय-हे जीव!, मिल्लहि-छोड़, मोहु- आसक्ति को, मोह-कसाय-विवज्जियउ-मोह कषाय से रहित हुआ, पर सर्वोपरि, पावहि-प्राप्त कर, सम-बोहु -समत्वमय प्रज्ञा को।

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