परमात्मप्रकाश के आगे के दोहे में आचार्य योगीन्दु आत्मा व परम आत्मा की चर्चा करते हुए पुनः कहते हैं कि आत्मा व परम आत्मा मूल रूप में समान ही है मूल रूप में उनमें कोई भेद नहीं है। आत्मा और परमात्मा में भेद हुआ है तो मात्र कर्म के कारण। कर्मां से बँधी हुई आत्मा ही बहिरात्मा होती है तथा कर्म बन्धन से रहित आत्मा ही परम आत्मा होती है। आत्मा जितनी जितनी आसक्ति से कर्मों से बँधती है उतनी उतनी ही वह अपने परमात्म स्वरूप से दूर रहती है और जितनी-जितनी आत्मा आसक्ति रहित होती है उतनी उतनी वह अपने परमात्म स्वर
आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम
आचार्य योगिन्दु ने जिस जिस तरह से आत्मा की अनुभूति की उन सब अनुभूतियों को जन कल्याणार्थ अभिव्यक्त भी किया। यहाँ आत्मा की अद्भुतता बताते हुए कहते हैं कि आत्मा निश्चितरूपसे देह में ही स्थित होती है फिर भी वह देह को स्पर्श नहीं करती और न ही वह देह के द्वारा स्पर्श की जाती है। अर्थात् देह में स्थित होने पर भी आत्मा का देह से पार्थक्य भाव है। यही कारण है कि जीव विभिन्न शरीर से जुदा होकर विभिन्न विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होता रहता है। देखिये इस ही कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा- 34. देहे वसंतु वि ण
यह हम सब भली भाँति समझते है कि जो वस्तु दृश्य होती है, उसको समझाने के लिए उसका बार-बार करने की आवश्यक्ता नहीं पडती, किन्तु अदृश्य वस्तु को बोध गम्य बनाने हेतु उसका विभिन्न तरीके से बार बार कथन करने की आवश्यक्ता होती है। चूंकि आत्मा भी अदृश्य है, अतः आचार्य योगिन्दु को प्रत्येक जीव के सहज बोधगम्य हेतु उसका विभिन्न तरीकों से बार- बार कथन करना पड़ा है। आगे के दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः कहते है कि हमें परमात्मा की खोज करने हेतु बाहर भटकने की आवश्यक्ता नहीं है। हमारी देह के भीतर ही जो अनादि, अनन्त
बन्धुओं किसी धर्मानुरागी को अपभ्रंश में आचार्य वंदना का स्वरूप देखना था इसलिए ब्लाँग के क्रम में कुछ परिवर्तन हो गया । अब आगे हम पुनः अपने विषय पर चलते हैं - आत्मा का लक्षण बताने के बाद आचार्य कहते हैं कि इन उपरोक्त लक्षणों से युक्त आत्मा का ध्यान करनेवाला योग्य अर्थात् उचित पात्र वही है, जिसका मन संसार में फँसानेवाले कर्म बंधनों तथा देह से सम्बन्धित भोगों से हट चुका है। ऐसे व्यक्ति का ध्यान ही सफल ध्यान है और उस ध्यान के फल से ही उसको संसार के दुःखों से मुक्ति मिलती है, उसका संसार में आवागमन का
अपभ्रंष भाषा के कवि स्वयंभू अपनी पउमचरिउ काव्य रचना प्रारम्भ करने से पूर्व आदि देव ऋषभदेव को नमस्कार कर अपने काव्य की सफलता की कामना करते हैं। उसके बाद आचार्यों की वंदना करते हैं - णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल-कन्ति-सोहिल्लं। उसहस्स पाय-कमलं स-सुरासर-वन्दियं सिरसा।। दीहर-समास-णालं सद्द-दलं अत्थ-केसरुग्घवियं। बुह-महुयर-पीय रसं सयम्भु-कव्वुप्पलं जयउ।। पहिलउ जयकारेवि परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणिं। झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु।। खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु
आचार्य योगीन्दु सभी जीवों को सुख और शान्ति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं, और यह सुख-शान्ति का मार्ग बिना आत्मा को पहचाने सम्भव नहीं है। अतः आत्मा पर श्रृद्धान कराने के लिए विभिन्न- विभिन्न युक्तियों से आत्मा के विषय में बताते हैं। इस 31वें दोहे में आत्मा का लक्षण बताया गया है - 31 अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु । अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।। अर्थ - आत्मा, मन रहित, इन्द्रिय रहित, मूर्ति (आकार) रहित, ज्ञानमय (और) चेतना मात्र है, (यह) इन्द्रियों का विषय
आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ हैं। वे जितना स्वयं तथा पर के मन को समझते हैं उतना ही वे प्रत्येक मानव को कि वह स्वयं व पर के मन को समझ सके, यह समझाने की योग्यता रखते हैं। परमात्मप्रकाश में यह बात हम निरन्तर देखते हैं। वे प्रत्येक बात को हर पक्ष के साथ दोहराते हैं ताकि विविध आयामों के साथ मूल तथ्य स्पष्ट हो सके। आगे के दोहे में वे आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध होने की पुष्टि जीव-अजीव में भेद होने किन्तु शुद्ध आत्मा व संसारी आत्मा के मूल रूप में समानता होने से करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि ज
आचार्य योगिन्दु आत्मा और परम आत्मा के दृढ सम्बन्ध को पुनः बताते हैं कि संसारी आत्मा और परम आत्मा मूल रूप में समान ही है, अर्थात् कर्म बन्धन से रहित दोनों का स्वरूप एक ही है। इनमें असमानता है तो मात्र भेद व अभेद दृष्टि का। भेद दृष्टि से यह आत्मा देह में विराजमान है तथा अभेद दृष्टि से यह आत्मा सिद्धालय में विराजमान है। वे बार बार यही बात दोहराते हैं कि बस तू मात्र इस बात को अच्छी तरह से समझ ले, अन्य बातों में समय व्यर्थ मत कर। आगे के दोहे में यही बात कही गयी है - 29. देहादेहहि ँ जो वसइ भेयाभेय-ण
अगले दोहे में आचार्य परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हैं कि जब व्यक्ति इन्द्रिय सुख-दुःखों से तथा मन के संकल्प-विकल्पों से परे हो जाता है, तब ही उसके देह में बसती हुई आत्मा शुद्ध अर्थात परम आत्मा में परिवर्तित हो जाती है। तब सिद्धालय में स्थित और स्व देह में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। आचार्य के अनुसार बस यही बात समझने योग्य है। इसी को उन्होंने अपने दोहे में कहा है- 28. जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ।। अर्थ - जहा
पुनः आगे के दोहे में परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार परम आत्मा का ध्यान करने से पूर्व में किये गये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार अपनी देह में स्थित शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से भी पूर्व में किये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। देह में स्थित शुद्धात्मा व सिद्धालय में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं है। शुद्धात्मा का ध्यान तभी संभव है जब देह व आत्मा के भेद को समझा जाये। 27. जे ँँ दिट्ठे ँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ । सो परु जाणहि जोइया देहि वसं
बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों व पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मर
अभी इससे पूर्व के ब्लाँग में हमने अपभ्रंश भाषा के प्रमुख अध्यात्मकार आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश में रचित परम आत्मा के स्वरूप से सम्बन्धित दोहों को अर्थ सहित देखा। अब हम इस ब्लाँग में उन ही दोहों का शब्दार्थ के द्वारा अध्ययन करेंगे - 15. अप्पा-आत्मा, लद्धउ-प्राप्त किया गया है, णाणमउ- ज्ञानमय, कम्म-विमुक्कें- कर्म बंधन से रहित हुए, जेण-जिसके द्वारा, मेल्लिवि-छोड़कर, सयलु- समस्त, वि-ही, दव्वु-द्रव्य, परु-पर, सो-वह, परु-सर्वोच्च, मुणहि-समझो, मणेण-अन्तःकरण से। 16. तिहुयण-वंदिउ- तीन लोक के
बन्धुओं, आत्मा की मूर्छित अवस्था एवं जागृत अवस्था के लक्षण से संक्षिप्त में अवगत करवाने के बाद आचार्य योगिन्दु हमें परमआत्मा के स्वरूप का विस्तार से कथन कर रहे हैं। पुनः मैं आपको एक बार आत्मा के 3 प्रकार को दोहरा देती हूँ। 1. मूर्छित आत्मा (बहिरात्मा)- जो देह को ही आत्मा मानता है। 2.जागृत आत्मा - यहाँ सण्णाणें शब्द ध्यान देने योग्य है। इसमें संवेदना एवं ज्ञान (विवेक) दोनों का समावेश है, जो हितकारी उत्कृष्ट ज्ञान की और संकेत करता है। आगे परम आत्मा के लक्षण के साथ परमआत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाल
आचार्य योगिन्दु मानव-मन के गूढ़ रहस्यों से भली भाँति अनभिज्ञ हैं, इसीलिए उनको रहस्यवादी कवि तथा इनके परमात्मप्रकाश को रहस्यवादी धारा के काव्य की संज्ञा दी गयी है। सभी जीवों के प्रति इनकी संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको परमात्मप्रकाश लिखने को प्रेरित किया तथा इस संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको उन्नत अध्यात्मकारों की श्रेणी में विराजमान किया है। इन्होंने मानव को मूर्छित अवस्था से हटाने के लिए बहुत ही सरल शैली अपनायी है जिससे प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति आत्मा का अनुभव कर अपनी इस मूर्छित अवस्था का त्याग कर
आचार्य योगिन्दु एक शुद्ध कोटि के अध्यात्मकार हैं। वे देह के आश्रित भेदों से प्राणियों के भेद को प्रमुखता नहीं देते। समस्त जगत की मानव जाति को वे आत्म अवस्था की तीन कोटियों में विभाजित कर देखते हैं। उनके अनुसार आत्मा के तीन भेद हैं- मूढ, विचक्षण, परमब्रह्म। शब्दकोश में इनके अर्थ इस प्रकार मिलते हैं -1. मूढ - मूर्ख, मन्दबुद्धि, जड़, अज्ञानी, नासमझ आदि,। 2. विचक्षण-स्पष्टदर्शी, विद्वान, पण्डित, दक्ष, विशेषज्ञ, कुशल आदि। 3. परमब्रह्म- परमात्मा। ब्रह्मदेव ने मूच्र्छित आत्मा को बहिरात्मा, विचक्षण आत्म
आचार्य योगीन्दु तीन प्रकार की आत्मा का आगे विस्तार से कथन करने से पूर्व ही भट्टप्रभाकर के माध्यम से हम सबको यह प्रमुख बात बता देना चाहते हैं कि उन तीन प्रकार की आत्मा के विषय में जानकर हमको क्या करना है ? वे कहते हैं कि मैं जो तुम्हारे लिए तीन प्रकार की आत्मा के विषय में कथन करूँगा, उसमें से तुम आत्मा की मूच्र्छित अवस्था को छोड़ देना तथा आत्मा की जो ज्ञानमय परमात्म स्वभाव अवस्था है, उसको तुम अपनी स्वसंवेदनात्मक ज्ञानमय आत्म अवस्था से जानना। इस प्रकार तीन प्रकार के आत्मस्वभाव का कथन कर उसमें से ग्
भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में आचार्य योगिन्दु बिना किसी भूमिका के सीधे सीधे 11वें दोहे से आत्मा के प्रकार (अप्पा तिविहु कहेवि) के कथन करने की बात से अपने ग्रंथ का शुभारंभ करने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि मैं तीन प्रकार की आत्मा का कथन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, तू पंच गुरुओं को भाव पूर्वक चित्त में धारणकर उसे सुन। यही कारण है कि परमात्मप्रकाश के टीकाकार पूज्य ब्रह्मदेव ने इस ग्रंथ को तीन भागों में विभाजित कर इस ग्रंथ के प्रथम भाग को त्रिविधात्माधिकार नाम दिया। 11वें दोहे के माध्यम से अ
पंच परमेष्ठि को नमन करने के बाद भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से चारो गतियों के दुःखों से मुक्त करनेवाले परम आत्मा का कथन करने हेतु निवेदन करता है। इसका आगे के तीन दोहों में निम्न प्रकार से कथन है - 8. भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ। भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।। अर्थ - (इस प्रकार) अपने भावों को निर्मल करके (तथा) पंच गुरुओं को भावपूर्वक प्रणाम करके भट्टप्रभाकर के द्वारा श्री योगीन्दु मुनिराज से (यह) प्रार्थना की गयी - शब्दार्थ - भाविं-भावपूर्वक, पणविवि-प्रणाम करके, पं
परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है कि ‘कबीरवाणी’ की त
मंगलाचरण के रूप में परमात्मप्रकाश के प्रथम दोहे में सिद्धालय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठि को वंदन करने के बाद दोहा 2 और 3 में भविष्य में होनेवाले एवं वर्तमान में विद्यमान सिद्ध परमेष्ठि को नमन किया गया है। (परमात्मप्रकाश, दोहा संख्या 2,3) 2. ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत। सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत।। अर्थ - . और भी उन मंगलमय, अनुपम, ज्ञानयुक्त, अनन्त श्री सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो (आगामी काल में) परम समाधि को अनुभव करते हुए (सिद्ध) होंगे। शब्दार्थ - त
भट्टप्रभाकर द्वारा ग्रंथ के प्रारम्भिक 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्धों की वंदना, 6ठे दोहें में अरिहन्त परमेष्ठि की वंदना, 7वें दोहें में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठि को नमन कर 8-10 दोहें में आचार्य योगिन्दु से परमआत्मा के विषय में कथन करने की प्रार्थना की गई है। यहाँ सि़द्ध परमेष्ठि की वंदना के साथ प्रथम गाथा से ग्रंथ का शुभारंभ किया जा रहा है। 1. जे जाया झाणग्गियए ँ कम्म-कलंक डहेवि। णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि।। अर्थ - जो ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी दोषों को जलाकर, नित्य
मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ है। मोक्ष अधिकार के अन्तिम 107दोहे में ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में लिखा है के इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष फल और मोक्ष इन तीनों को कहनेवाले दूसरे महाधिकार में चार अन्तरस्थलों का इकतालीस दोहों का महास्थल समाप्त हुआ। 3. महाधिकार तीसरे महाधिकार के प्रारम्भिक एक सौ आठवें दोहे में ब्रह्मदेव ने लिखा है कि आगे ‘पर जाणंतु वि’ एक सौ सात दोहा पर्यन्त तीसरा महाधिकार कहते हैं और उसी में ग्रंथ को समाप्त करते हैं। यहाँ ब्रह्मदेव ने पूर्व के दो अधिकारों के समान तीसरे अधिकार का नाम नहीं दिया
प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम
अब तक हमने जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों के जीवन-कथन के माध्यम से रामकथा को समझने का प्रयास किया। पुनः इन रामकथा के पात्रों पर गहराई से विचार करे तो हम देखते हैं कि जैन रामकथाकारों का उद्देश्य रामकथा के माध्यम से जैनधर्म व जैन सिद्धान्तों की पुष्टि करना रहा है। जैनदर्शन के सभी अध्यात्मकारों ने संसार के प्राणियों के दुःख के मूल में राग को स्वीकार किया है। राग के ही इतर नाम है, आसक्ति, ममत्व, मुर्छा आदि। राग की चर्चा प्रायः सभी दर्शनकारों ने की है, चाहे वह पुराणकाव्य हो, या मुक्तक काव्य, कथाकाव्य,