?सुंदर प्रायश्चित - अमृत माँ जिनवाणी से - १३६
? अमृत माँ जिनवाणी से - १३६ ?
"सुन्दर प्राश्चित"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का अनुभव और तत्व को देखने की दृष्टि निराली थी।
एक बार महाराज बारामती में थे। वहाँ एक संपन्न महिला की बहुमूल्य नाथ खो गई। वह हजारों रूपये की थी। इससे बडो-२ पर शक हो रहा था। अंत में खोजने के बाद उसी महिला के पास वह आभूषण मिल गया।
वह बात जब महाराज को ज्ञात हुई, तब महाराज ने उस महिला से कहा- "तुम्हे प्रायश्चित लेना चाहिए। तुमने दूसरों पर प्रमादवश दोषारोपण किया।"
उसने पूंछा- "क्या प्रायश्चित लिया जाए?"
महाराज ने कहा- "यहाँ स्थित जिन लोगों पर तुमने दोष की कल्पना की थी, उनको भोजन कराओ।"
महाराज के कथनानुसार ही कार्य हुआ।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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