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?महराज का अनुभव - अमृत माँ जिनवाणी से - १४३


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

               प्रस्तुत प्रसंग उपवास के सम्बन्ध में श्रेष्टचर्या के धारक परम तपस्वी महान आचार्य निग्रंथराज पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के श्रेष्ठ अनुभव को व्यक्त करता है।

           इस प्रसंग को पढ़कर, निरंतर अपने कल्याण की भावना से उपवास करने वाले श्रावकों को अत्यंत हर्ष होगा एवं रूचि पूर्वक पढ़ने वाले अन्य सभी श्रावकों के लिए उपवास के महत्व को समझने के साथ आत्मकल्याण हेतु दिशा प्राप्त होगी।

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४३    ?


               "महाराज का अनुभव"


प्रश्न - "उपवास से क्या लाभ होता है? क्या उससे शरीर को त्रास नहीं होता है?"

उत्तर - "आहार का त्याग करने से शरीर को कष्ट क्यों नहीं होगा? लंबे उपवासों के होने पर शरीर में स्थिलता आना स्वाभाविक बात है। फिर उपवास क्यों किया जाता है, यह पूंछो, तो उसका उत्तर यह होता है कि उपवास द्वारा मोह की मंदता होती है। उपवास करने से शरीर नहीं चलता।

       जब शरीर की सुधि नहीं रहती है, तो रुपया-पैसा, बाल-बच्चों की भी चिंता नहीं सताती है। उस समय मोह भाव मंद होता है, आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। अपने शरीर की चिंता छूटती है, तब दूसरों की क्या चिंता रहेगी?"

     इस विषय के स्पष्टीकरनार्थ महराज ने एक घटना बताई - "एक समय एक हौज में पानी भरा जा रहा था, एक बंदरिया अपने बच्चे को कंधे पर रखकर उस हौज में थी। जैसे-जैसे पानी बढ़ता जाता था, वह गर्दन तक पानी आने के पूर्व बच्चे को कंधे पर रखकर बचाती रही, किन्तु जब जल की मात्रा बड़ गई और स्वयं बदरिया डूबने लगी, तो उसने बच्चे को पैर के नीचे दबाया और उस पर खड़ी हो गई, जिससे वह स्वयं ना डूब पावे।

         इतना अधिक ममत्व स्वयं के जीवन पर होता है। उस शरीर के प्रति मोह भाव उपवास में छूटता है। यह क्या कम लाभ है।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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