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पिपरौद के रास्ते में सर्पराज का आतंक - अमृत माँ जिनवाणी से - ७३


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७३     ?


  "पिपरौद के रास्ते में सर्पराज का आतंक"


                     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने ससंघ बिलहरी से पिपरौद ग्राम की ओर प्रस्थान किया, तो एक यात्री ने कहा- "महाराज, रास्ते में एक भीषण सर्प है, वह जाने वालों का पीछा करता है, अतः वह रास्ता खतरनाक है।"

                   सब लोग चिंता में पड़ गए। लोग यही चाहते थे कि महाराज दूसरे रास्ते से चलने की आज्ञा दें। क्रुद्ध सर्प के रास्ते पर चलकर प्राणों के साथ खिलवाड़ करने से लोग डरते थे, किन्तु उन्होंने ऐसे महापुरुष के चरण पकडे थे, जो जीवन भर निर्भीक रहे हैं। अनेकों बार घंटों सर्पराज जिसने शरीर पर काफी उपद्रव करके परीक्षा ले चुके, किन्तु उन शांति के सागर में अशान्ति का लेश ना पाया गया। आचार्यश्री सामान्य श्रेणी के व्यक्ति नहीं थे।

         आचार्य महाराज ने कहा- "घबराओ मत।"

          और वे उसी रास्ते से आगे बढते चले। महाराज के पूण्य प्रताप से सर्पराज बाँस-बिडे में सो रहा था, इससे निष्कंटक रास्ता कट गया। जिनेन्द्र भगवान के वचनो पर श्रद्धा रखने वालों का संकट ऐंसे ही टल जाता है।

        मानतुंग आचार्य ने भी लिखा है:

            हे भगवन ! जिस पुरुष के ह्रदय में आपके नाम रूपी नाग-दमनी औषधि विधमान है, वह शंकारहित हो रक्त नेत्र वाले, समद कोयल के कंठ समान श्याम वर्ण वाला, क्रोधयुक्त, फण उठाकर आते हुए सर्पराज को अपने पैरों से लांघ जाता है।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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