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जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण -८


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

      आत्मकथा के कुछ अंश की आजकी प्रस्तुती में पूज्य वर्णीजी को उनके पिता द्वारा अत्यंत लाभकारी उपदेश का वर्णन है। वर्णी जी के पिता ने उनके लिए यह उपदेश दिया था लेकिन यह हम सभी के लिए भी कल्याणकारी है।

       इसके अलावा भी उनके पिता तथा दादा की मृत्यु के क्षणों का वर्णन है।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

 *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*

                     क्रमांक - ८

                 स्वर्गवास के समय उन्होंने मुझे यह उपदेश दिया कि -

      'बेटा, संसार मे कोई किसी का नहीं। यह श्रद्धान दृढ़ रखना। तथा मेरी एक बात और दृढ़ रीति से हृदयांगम कर लेना। वह यह कि मैंने णमोकार मंत्र के स्मरण से अपने को बड़ी बड़ी आपत्तियों से बचाया है। तुम निरंतर इसका स्मरण करना।

     जिस धर्म में यह मंत्र है उस धर्म की महिमा का वर्णन करना हमारे से तुच्छ ज्ञानियों द्वारा होना असंभव है। तुमको यदि संसार बंधन से मुक्त होना इष्ट है तो इस धर्म में दृढ़ श्रद्धान रखना और इसे जानने का प्रयास करना। बस हमारा यही कहना है।'

      जिस दिन उन्होंने यह उपदेश दिया था, उसी दिन सायंकाल को मेरे दादा, जिनकी आयु ११० वर्ष की थी, बड़े चिंतित हो उठे। अवसान के पहले जब पिताजी को देखने के लिए वैद्य आए, तब दादा ने उनसे पूछा- 'महराज ! हमारा बेटा कब तक अच्छा होगा?'

       वैद्य महोदय ने उत्तर दिया -'शीघ्र नीरोग हो जाएगा ?'

      यह सुनकर दादा ने कहा - 'मिथ्या क्यों कहते हो? वह तो प्रातःकाल तक ही जीवित रहेगा। दुख इस बात का है कि मेरी अपकीर्ति होगी- बुड्डा तो बैठा रहा, पर लड़का मर गया।'

         इतना कह कर वे सो गए। प्रातःकाल मैं दादा को जगाने गया, पर कौन जागे? दादा का स्वर्गवास हो हो चुका था। उनका दाह कर आए ही थे कि मेरे पिता का भी वियोग हो गया। हम सब रोने लगे, अनेक वेदनाएँ हुईं, पर अंत में संतोष कर बैठ गये।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ११?

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