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JainSamaj.World
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☀अपनी बात -१


☀☀
जय जिनेन्द्र बंधुओं,

      आज से जैन संस्कृति के महान संवर्धक पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी की जीवनी को उनकी ही आत्मकथा के अनुसार प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

        पूज्य गणेश प्रसाद जी एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने अजैन कुल में जन्म होने के बाद भी, अत्यंत संघर्ष पूर्ण जीवन के साथ ऐसे समय में जैन संस्कृति का संवर्धन किया जब देश जैन धर्म को जानने वाले विद्धवान बहुत ही कम थे। वर्तमान में इतनी आसानी बड़े-२ ग्रंथों का अध्यापन हेतु विद्धवान उपलब्ध है यह वर्णी जी का उपकार कहा जा सकता है।

        वर्णी जी का जीवनी हम सभी के लिए अत्यंत ही प्रेरणास्पद है। यह पढ़कर निश्चित ही सभी को अत्यंत हर्ष भी होगा।

        यह समस्त सामग्री मैं पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा *मेरी जीवन गाथा* ग्रंथ से प्रस्तुत कर रहा हूँ। सामग्री की महत्वता के स्पष्टीकरण हेतु प्रारम्भ में कही कही मेरे अपने शब्द होंगे जो यथार्थ के समानार्थी ही होंगे।

        वर्णी जी की जीवनी हर श्रावक को पढ़ना क्यों आवश्यक इस बात के स्पष्टीकरण के लिए बहुत बड़े विद्धवान स्वर्गीय पंडित पन्नालाल जी द्वारा ग्रंथ में लिखी अपनी बात को सर्वप्रथम प्रस्तुत कर रहा हूँ।

 

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


                 *"अपनी बात"*


                 प्रस्तुती क्रमांक -१


            पाठकगण स्वयं पढ़कर देखेंगे कि "मेरी जीवन गाथा" पुस्तक कितनी कल्याण प्रद है। ये भी अनायास समझ सकेंगे कि एक साधारण पुरुष कितनी विपदाओं की आँच सहकर खरा सोना बन जाता है।

       इस पुस्तक को पढ़कर कहीं पाठकों के नेत्र आंसुओं से भर जावेंगे तो कहीं ह्रदय आनंद में उछलने लगेगा और कहीं वस्तु स्वरूप की तात्विक व्याख्या समझ करके शांतिसुधा का रसास्वादन करने लगेंगे।

       इसमें सिर्फ जीवन घटनाएँ नहीं हैं किन्तु अनेक तात्विक उपदेश भी हैं जिससे यह एक धर्मशास्त्र का ग्रंथ बन गया है।

       पूज्यश्री ने अपने जीवन से सम्बद्ध अनेकों व्यक्तियों का इसमें परिचय दिया है, जिससे यह आगे चलकर इतिहास का भी काम देगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

    अंत में मेरी यही भावना है कि इसका ऐसे विशाल पैमाने पर प्रचार हो जिससे सभी इससे लाभान्वित हो सकें।

                                तुच्छ 
                           पन्नालाल जैन

?एक आत्मकथा - मेरी जीवन गाथा?
? *आजकी तिथी - वैशाख कृष्ण ४*?

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