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☀जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण - ३


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

        कल हमने देखा की पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी का जन्म सवत १९३१ अर्थात सन् १८७४ में हसेरा नामक ग्राम में हुआ था। 

        वर्णीजी द्वारा वर्णित उनकी बाल्यावस्था के समय उस क्षेत्र में लोगों के आचार-विचार तथा जीवन शैली का वर्णन निश्चित ही हम पाठकों के ह्रदय को छूने वाली है। कितना सरल व सहज तथा आनन्दप्रद जीवन था उस समय के लोगों का।

      कल की प्रस्तुत सामग्री से एक महत्वपूर्ण बात हम सभी को जानने को मिली, उस समय लोग आपने हाथों से ही अपने खेतों में उगने वाले कपास से निर्मित वस्त्र पहनते थे। अतः उस समय त्वचा समबन्धी रोग नहीं हुआ करते थे। 

       जो पाठक इस जीवनी को रूची पूर्वक पढ़ रहे होंगे निश्चित ही उनका मन गौरवशाली अतीत के स्पर्श से आनंदित हुए बिना नहीं रह पाया होगा।

    कल आप पढ़ेंगे अजैन कुल में जन्में बालक गणेश प्रसाद में जैतत्व के संस्कारों का आरोपण।

       

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


 *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*

                     क्रमांक - ३

      
             उस समय मनुष्य के शरीर सुदृढ़ और बलिष्ठ होते थे। वे अत्यंत सरल प्रकृति के होते थे। अनाचार नहीं के बराबर था।

        घर-२ गायें रहती थी। दूध और दही की नदियाँ बहती थी। देहात में दूध और दही की बिक्री नहीं होती थी। 

       तीर्थयात्रा सब पैदल करते थे। लोग प्रसन्नचित्त दिखाई देते थे। वर्षाकाल में लोग प्रायः घर ही रहते थे। वे इतने दिनों का सामान अपने घर में ही रख लेते थे। व्यापारी लोग बैल को लादना बंद कर देते थे। वह समय ही ऐसा था, जो इस समय सबको आश्चर्य में डाल देता है।

        बचपन में मुझे असाता के उदय से सुकीका रोग हो गया था। साथ ही लीवर आदि भी बढ गया था। फिर भी आयुष्कर्म के निषेको की प्रबलता के कारण इस संकट से मेरी रक्षा हो गयी थी।

           मेरी आयु जब ६ वर्ष की हुई, तब मेरे पिता मड़ाबरा आ गए थे। तब यहाँ मिडिल स्कूल था, डाक-खाना था और पुलिस थाना भी था। नगर अतिरमणीक था। वहाँ पर दस जिनालय और दिगम्बर जैनियों के १५० घर थे। प्रायः सब सम्पन्न थे।


? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
  ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ६?

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