मार्गदर्शक कडोरेलालजी भाई जी - १०
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
धर्मात्मा जीवों का पुरुषार्थ देखो, अजैन कुल में जन्म के उपरांत भी संघर्षों के साथ अपनी शुद्ध परिणति की दिशा में आगे बढ़ते गए। उनकी इस दृढ़ता से उनकी भवितव्यता का परिचय मिलता है। महापुरुषों में ऐसी असामान्य बातें देखने को मिलती हैं।
आज के उल्लेख में आप देखेंगे की वर्णी जी ने शुद्ध आहार के जैन संस्कारस्वरूप अपनी जातिगत लोगों के मध्य भोजन करना अनुचित समझा भले ही उन्होंने जाति से निष्कासित होना स्वीकार किया।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
क्रमांक - १०
दो मास के बाद द्विरागमन हो गया। मेरी स्त्री भी माँ के बहकावे में आ गई और कहने लगी- 'तुमने धर्म परिवर्तन कर बड़ी भूल की, अब फिर अपने सनातन धर्म में आ जाओ और सानंद जीवन बिताओ।'
ये विचार सुनकर उससे प्रेम हट गया। मुझे आपत्ति सी जँचते लगी; परंतु उसे छोड़ने को असमर्थ था। थोड़े दिन बाद मैंने कारोटोरन गाँव की पाठशाला में अध्यापक की कर ली और वही उसे बुला लिया। दो माह आमोद-प्रमोद में अच्छी तरह निकल गए। इतने में मेरे चचेरे भाई लक्ष्मण का विवाह आ गया। उसमें वह गई, मेरी माँ भी गई, और मैं भी गया।
वहाँ पँक्ति भोजन में मुझसे भोजन करने के लिए आग्रह किया गया। मैंने काकाजी से कहा कि 'यहाँ तो अशुद्ध भोजन बना है। मैं पंक्ति भोजन में सम्मलित नहीं हो सकता।'
इससे मेरी जाति वाले बहुत क्रोधित हो उठे, नाना आवाच्य शब्दों से मैं कोशा गया। उन्होंने कहा- 'ऐसा आदमी जाति-बहिष्कृत क्यों न किया जाए, जो हमारे साथ भोजन नहीं करता, किन्तु जैनियों के चौके में खा आता है।'
मैंने उन सबसे हाथ जोड़कर कहा- कि 'आपकी बात स्वीकार है।' और दो दिन रहकर टीकमगढ़ चला आया। वहाँ आकर मैं श्रीराम मास्टर से मिला। उन्होंने मुझे जतारा स्कूल का अध्यापक बना लिया। यहाँ आने पर मेरा पं. मोतीलाल जी वर्णी, श्रीयुत कडोरेलाल भायजी तथा स्वरूपचंद बनपुरिया आदि से परिचय हो गया।
इससे मेरी जैन धर्म में अधिक श्रद्धा बढ़ने लगी। दिन रात धर्म श्रवण में समय जाने लगा। संसार की असारता पर निरंतर परामर्श होता था। हम लोगों में कड़ोरेलाल भायजी अच्छे तत्वज्ञानी थे। उनका कहना था - 'किसी कार्य में शीघ्रता मत करो, पहले तत्वज्ञान का सम्पादन करो, पश्चात त्यागधर्म की ओर दृष्टि डालो। '
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण १३?
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