Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    70
  • comments
    0
  • views
    7,178

धर्ममाता श्री चिरोज़ा बाई जी -१६


Abhishek Jain

378 views

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

        बहुत मार्मिक है आत्मकथा की प्रस्तुती का आज का यह खंड। निश्चय ही यह पढ़कर आप विशिष्ट आनंद का अनुभव करेंगे।

        यहाँ आपको देखने मिलेगा गणेशप्रसाद की धार्मिक आस्था के प्रति दृढ़ता तथा चिरौंजाबाईजी का साधर्मी बालक के प्रति ममत्व, उनकी सरलता तथा विशाल हृदयता।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

      *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*

                       क्रमांक - १६

                                       मैं फिर भी नीची दृष्टि किये चुपचाप भोजन करता रहा। यह देख बाईजी से न रहा गया। उन्होंने भायजी व वर्णीजी से पूछा- 'क्या यह मौन से भोजन करता है? उन्होंने कहा - 'नहीं, यह आप से परिचित नहीं है। इसीसे इसकी ऐसी दशा हो रही है।'

      इस पर बाईजी ने कहा - 'बेटा सानंद भोजन करो, मैं तुम्हारी धर्ममाता हूँ, यह घर तुम्हारे लिए है, कोई चिंता न करो, मैं जब तक हूँ, तुम्हारी रक्षा करूँगा।'

       मैं संकोच में पड़ गया। किसी तरह भोजन करके बाईजी की स्वाध्याय शाला में चला गया। वहीं पर भायजी व वर्णीजी आ गए। भोजन करके बाईजी भी वहीं पर आ गईं।

         उन्होंने मेरा परिचय पूंछा। मैंने जो कुछ था, वह बाईजी से कह दिया। परिचय सुनकर प्रसन्न  हुईं। 

        और उन्होंने भायजी तथा वर्णीजी से कहा- 'इसे देखकर मुझे पुत्र जैसा स्नेह होता है- इसको देखते ही मेरे भाव हो गये हैं कि इसे पुत्रवत पालूँ।'

       बाईजी के ऐसे भाव जानकर भायजी ने कहा 'इसकी माँ और धर्मपत्नी दोनों हैं।'

     बाईजी ने कहा- 'उन दोनों को भी बुला लो, कोई चिंता की बात नहीं, मैं इन तीनों की रक्षा करूँगा।'

     भायजी साहब ने कहा- 'इसने अपनी माँ को एक पत्र डाला है। जिसमें लिखा है कि यदि जो तुम चार मास में जैनधर्म स्वीकार न करोगी तो मैं तुमसे संबंध छोड़ दूँगा।'

        यह सुन बाईजी ने भायजी को डाँटते हुए कहा- 'तुमने पत्र क्यों डालने दिया?' साथ ही मुझे भी डाँटा- 'बेटा ! ऐसा करना तुम्हें उचित नहीं।' इस संसार में कोई किसी का स्वामी नहीं, तुमको कौन सा अधिकार है जो उसके धर्म का परिवर्तन कराते हो।'

      मैंने कहा - 'गलती तो हुई। परंतु मैंने प्रतिज्ञा ले ली थी कि यदि वह जैनधर्म न मानेगी तो मैं उसका संबंध छोड़ दूँगा। बहुत तरह से बाईजी ने समझाया, परंतु यहाँ तो मूढ़ता थी, एक भी बात समझ न आई।'

         यदि दूसरा कोई होता, तो मेरे इस व्यवहार से रुष्ट हो जाता। फिर भी बाईजी शांत रहीं, और उन्होंने समझाते हुए कहा- 'अभी तुम धर्म का मर्म नहीं समझते हो, इसी से यह गलती करते हो, इसी।'

          मैं फिर भी जहाँ का तहाँ बना रहा। बाईजी के इस उपदेश का मेरे ऊपर कोई प्रभाव न पड़ा। अंत में बाईजी ने कहा- 'अविवेक का कार्य अंत में सुखवह नहीं होता।' अस्तु,

       सायंकाल को बाईजी ने दूसरी बार भोजन कराया, परंतु मैं अब तक बाईजी से संकोच करता था। यह देख बाईजी ने फिर समझाया- 'बेटा ! माँ से संकोच मत करो।'

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ७?

☀बंधुओं,

        मुझे पूरा विश्वास है कि रुचिवान पाठक पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा के प्रस्तुत अंशों को पढ़कर आनंद का अनुभव करते होंगे। आपको आगे और पढ़ने की इच्छा होती होगी।

         आप *मेरी जीवन गाथा* ग्रंथ को अवश्य पढ़ें। वर्णी जी की सम्पूर्ण की आत्मकथा रोचकता को लिए हुए है।

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...