मार्गदर्शक कडोरेलालजी भाई जी - १४
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
किसी के जीवन में बिना किसी उपदेश अथवा प्रेरणा के जिनधर्म के प्रति ऐसी श्रद्धा कि जिनधर्म ही हमारा कल्याण सकता है यह बात पूज्य वर्णी के जीवन को देखकर भली प्रकार स्पष्ट होता है।
आत्मकथा के पिछले वर्णन में हमने देखा कि वर्णीजी द्वारा अपनी धर्मपत्नी व माँ का जिनधर्म के आचरण हेतु परित्याग को देखकर भायजी के कहने पर उन्होंने अपनी माँ और पत्नी को अपने पास रहने हेतु बुलाया।
वर्णीजी का अपनी माँ को पत्र उनकी दृढ़ जिनआस्था का स्पष्ट परिचायक है। उनकी धर्म के प्रति का आस्था का योग्य कारण भी स्पष्ट होता है।
सभी पाठकों को यह अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
क्रमांक - १४
भायजी का आदेश था कि 'पहले अपनी धर्मपत्नी और पूज्य माता को बुलाओ फिर सानंद धर्मध्यान करो।' मैंने उसे शिरोधार्य किया और एक पत्र उसी दिन अपनी माँ को डाल दिया। पत्र में लिखा था-
'हे माँ ! मैं आपका बालक हूँ, बाल्यावस्था से ही बिना किसी के उपदेश तथा प्रेरणा के मेरा जैनधर्म में अनुराग है। बाल्यावस्था में ही मेरे ऐसे भाव होते थे कि हे भगवन ! मैं किस कुल में उत्पन्न हुआ हूँ? जहाँ न तो विवेक है और न कोई धर्म की ओर प्रवृत्ति ही है।'
धर्म केवल पराश्रित ही है। जहाँ गाय की पूजा की जाती है, ब्राम्ह्यणो को भगवान के समान पूजा जाता है, भोजन करने में दिन रात का भेद नहीं किया जाता है।
ऐसी दुर्दशा में रहकर मेरा कल्याण कैसे होगा? हे प्रभो ! मैं किसी जैनी का बालक क्यों नहीं हुआ? जहाँ पर छना पानी, रात्रि भोजन का त्याग, किसी अन्य धर्मी के हाथकी बनी हुई रोटी का न खाना, निरंतर जिनेन्द्र देव की पूजन करना, स्वाध्याय करना, रोज रात्रि को शास्त्रसभा का होना, जिसमें मुहल्ला भर की स्त्री-समाज और पुरुष समाज का आना, व्रत नियमों के पालने का उपदेश होना आदि धर्म के कार्य होते हैं।
यदि मै ऐसे कुल में जनमता तो मेरा भी कल्याण होता......! परंतु आपके भय से मैं नहीं कहता था। आपने मेरे पालन पोषण में कोई त्रुटि नहीं की। यह सब आपका मेरे ऊपर महाउपकार है।
मैं ह्रदय से वृद्धावस्था में मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ, अतः आप अपनी बधु को लेकर यहाँ आ जावें। मैं यहाँ मदरसा में अध्यापक हूँ। मुझे छुट्टी नहीं मिलती अन्यथा मैं स्वयं आपको लेने के लिए आता।
किन्तु आपके चरणों में मेरी एक प्रार्थना अब भी है। वह यह की आपने अब तक जिस धर्म में अपनी ६० वर्ष की आयु पूर्ण की, अब उसे बदलकर श्री जिनेनद्रदेव द्वारा प्रकाशित धर्म का आश्रय लीजिए, जिससे आपका जन्म सफल हो और आपकी चरण सेविका बहू का संस्कार भी उत्तम हो।
आशा है, मेरी विनय से आपका ह्रदय द्रवीभूत हो जायेगा। यदि इस धर्म का अनुराग आपके ह्रदय में न होगा। तब न तो आपके साथ ही मेरा कोई सम्बन्ध रहेगा और न आपकी बहू के साथ ही। मैं चार मास तक आपके चरणों की प्रतीक्षा करूँगा।
यद्यपि ऐसी प्रतिज्ञा न्याय के विरुद्ध है, क्योंकि किसी को यह अधिकार नहीं कि किसी का बलात्कारपूर्वक धर्म छुडावे, तो भी मैंने यह नियम कर लिया है कि जिसके जिनधर्म की श्रद्धा नहीं उसके हाथका भोजन नहीं करूँगा। अब आपकी कैसी इच्छा है, सो करें।'
पत्र डालकर मैं निशल्य हो गया और भायजी तथा वर्णी मोतीलालजी के सहवास से धर्म-साधन में काल बिताने लगा। तब मर्यादा का भोजन, स्वाध्याय तथा सामायिक आदि कार्यों में सानंद काल जाता था।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ५?
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