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☀जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण - ५


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

         आज के उल्लेख मैं आप देखेंगे कि कितना गहरी श्रद्धा थी एक अजैन बालक में जिन धर्म के प्रति। अपनी जातिगत मान्यताओं के हटकर किसी अन्य धर्म के प्रति इतनी आस्था!

       कहते हैं पूत के गुण पालने में दिखते हैं। जिनधर्म के प्रति इतना श्रद्धान, इतनी आस्था को देखकर उस समय वर्णीजी के भविष्य को कोई कहने वाला हो ना हो लेकिन हम पाठक जरूर कह सकते हैं कि जिनधर्म के प्रति गहरी आस्था वाला वह बालक सामान्य नहीं था वह अवश्य ही ऐसे महान धर्म का मर्मज्ञ अवश्य बनेगा।

       अत्यंत ही रोचक है वर्णी जी का जीवन आप उनकी आत्मकथा को अवश्य पढ़ें तथा अन्य लोगों को भी इस हेतु प्रेरित करें।


?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


 *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*

                     क्रमांक - ५


          एक दिन की बात है, मैं शाला के मंदिर मैं गया। उस दिन वहाँ प्रसाद में  पेड़ा बाँटे गये, मुझे भी मिलने लगे। तब मैंने कहा- "मैंने रात्रि भोजन त्याग दिया है।"

          यह सुन गुरुजी बहुत नाराज हुए। बोले, छोड़ने का क्या कारण है? मैंने कहा- "गुरु महराज ! मेरे घर के सामने जिनमंदिर है। वहाँ पर पुराण प्रवचन होता है। उसको सुन कर मेरी श्रद्धा उसी धर्म में हो गई है।

      पद्मपुराण में पुरुषोत्तम रामचंद्रजी का चरित्र चित्रण किया है। वही मुझे सत्य भासता है। रामायण में रावण को राक्षस और हनुमान को बंदर बतलाया है। इसमें मेरी श्रद्धा नहीं है।

         अब मैं इस मंदिर मे नहीं नहीं आऊँगा। आप मेरे विद्यागुरु हैं, मेरी श्रद्धा को अन्यथा करने का आग्रह न करें।"

     गुरुजी बहुत ही भद्र प्रकृति के थे, अतः वे मेरे श्रद्धान के साधक हो गए। एक दिन का जिकर है- मैं हुक्का भर रहा था। मैंने हुक्का भरते समय तम्बाकू तमाखू पीने के लिए चिलम को पकड़ा, हाथ जल गया। मैंने हुक्का जमीन पर पटक दिया और गुरुजी से कहा- 

     "महराज ! जिसमें इतना दुर्गन्धित पानी रहता है, उसे आप पीते हैं? मैंने तो उसे फोड़ दिया, अब जो करना हो, सो करो।"

      गुरुजी प्रसन्न होकर कहने लगे- "तुमने दस रुपये का हुक्का फोड़ दिया, अच्छा किया, अब न पियेंगे, एक बला टली।" मेरी प्रकृति बहुत भीरु थी, मैं डर गया, परंतु उन्होंने सांत्वना दी। 'कहा - भय की बात नहीं।'


? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ८?

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