☀जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण - ४
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य वर्णी द्वारा वर्णित उनके जीवन की हर एक बात का वर्णन अत्यंत रोचकता तथा आनंद लिए हुए है।
आज के वर्णन में आप देखेंगे की अजैन कुल में जन्म होने के उपरांत भी जैन धर्म की पताका को सर्वत्र फहराने का श्रेय रखने वाले बालक गणेश प्रसाद के जीवन में जैनत्व के संस्कारों का बीजारोपण कैसे हुआ।
उस भव्य आत्मा की उपादान शक्ति देखो जो रावण के व्रत के प्रसंग पर रात्रि भोजन त्याग का इतना बड़ा संकल्प ले लिया। यहाँ उस समय के लोगों के सहज स्वभाव तथा धार्मिकता का परिज्ञान होता है जो स्वाध्याय में किसी महापुरुष के व्रत ग्रहण आदि के प्रसंग पर स्वयं भी स्वाध्याय के मध्य में नियम ग्रहण करते थे।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
क्रमांक - ४
मैंने ७ वर्ष की उम्र में विद्यारम्भ किया और १४ वर्ष की उम्र में मिडिल पास हो गया। चूंकि यहाँ पर यहीं तक शिक्षा थी, अतः आगे नहीं पढ़ सका।
मेरे गुरु श्रीमान मूलचंद्रजी ब्राम्हण थे, जो बहुत ही सज्जन थे। उनके साथ मैं गाँव के बाहर श्री रामचंद्रजी के मंदिर में बाहर जाया करता था। वही रामायण का पाठ होता था। उसे मैं सानंद श्रवण करता था।
किन्तु मेरे घर के सामने जिनालय था इसलिए वहाँ भी जाया करता था। इस मुहल्ले में जितने घर थे, सब जैनियों के थे, केवल एक घर बढ़ई का था।
उन लोगों के सहवास से प्रायः हमारे पिताजी का आचरण जैनियों के सदृश हो गया था। रात्रिभोजन मेरे पिताजी नहीं करते थे।
जब मैं १० वर्ष का था, तब की बात है। सामने मंदिरजी के चबूतरे पर प्रतिदिन पुराण का प्रवचन होता था। एक दिन त्याग का प्रकरण आया। इसमें रावण के परस्त्री-त्याग व्रत लेने का उल्लेख किया गया था। बहुत से भाइयों ने प्रतिज्ञा ली, मैंने उस दिन दिन आजन्म रात्रि भोजन त्याग दिया। उसी त्याग ने मुझे जैनी बना दिया।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ७?
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