☀रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर -३८
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य वर्णीजी की श्री कुण्डलपुरजी की वंदना के समय वीर प्रभु के सम्मुख प्रार्थना के उल्लेख की प्रस्तुती चल रहीं है।
आप देखेंगे कि वर्णीजी की प्रस्तुत प्रार्थना में कितने सरल तरीके से जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का विज्ञान प्रस्तुत हो रहा है। वर्णीजी के भावों व तत्व चिंतन को पढ़कर आपको लगेगा जैसे आपके अतःकरण की बहुत सारी जटिलताएँ समाप्त होती जा रही हैं।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
*क्रमांक - ३८*
मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं।
पुदगल द्रव्य की अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह अनंत ज्ञानादि गुणों को प्रगट नहीं होने देता और इसी से कार्तिकेय स्वामी ने स्वामि कर्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि-
"कापि अपुव्वा दिस्सइपुग्गलदव्यस्स एरिसी सत्ती।केवलणाणसहावो,विणासिदौ जाइ जीवस्य।।
'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे की जीव का स्वभाव भूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो रहा है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तब उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है। अस्तु, यद्यपि जो आपके गुणों का अनुरागी है वह पुण्यबंध नहीं चाहता, क्योंकि पुन्यबंध संसार का ही कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का कारण जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्र मोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परंतु उनमें क्रतत्वबुद्धि नहीं । तथाहि-
'कर्तत्वं न स्वभावोस्य चितो वेदयितृत्ववत।अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।।'
'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*? ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१२?
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.