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☀रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर -३७


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

      पूज्य वर्णीजी की श्री कुण्डलपुरजी की वंदना के समय वीर प्रभु के सम्मुख प्रार्थना के उल्लेख की प्रस्तुती चल रहीं है।

     आप देखेंगे कि वर्णीजी की प्रस्तुत प्रार्थना में कितने सरल तरीके से जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का विज्ञान प्रस्तुत हो रहा है। वर्णीजी के भावों व तत्व चिंतन को पढ़कर आपको लगेगा जैसे आपके अतःकरण की बहुत सारी जटिलताएँ समाप्त होती जा रही हैं।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

          *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*

                     *क्रमांक - ३७*

               श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त की भलाई करने की बुद्धि नहीं हो सकती। वह देवेन्द्र ही क्या?

       फिर प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ ? उनका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे गया, उसको इस की आवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे-हमें छाया दीजिए। 

      वह तो स्वयं ही वृक्ष के नीचे बैठने से छाया का लाभ ले रहा है। एवं जो रुचि पूर्वक भी अरिहंत देव के गुणों का स्मरण करता है उसके मंद कषाय होने से स्वयं शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शांति का लाभ होने लगता है।

       ऐसा निमित्त नैमत्तिक संबंध बन रहा है। परंतु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणों का वृक्ष के द्वारा रोध होने से वृक्ष तल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणों का रुचि पूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवों के शुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है, फिर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिए।

      भगवान को पतित पावन कहते हैं अर्थात जो पापियों का उद्धार करे वह पतित पावन है। यह कथन भी निमित्त कारण की अपेक्षा है। निमित्तकारणों में भी उदासीन निमित्त हैं प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण होता है। एवं जो जीव पतित है वह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त हैं। यदि वह शुभ परिणाम न करे तो वह निमित्त नहीं।

      वस्तु की मार्यादा यही है परंतु से कथन शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुल दीपकोयं बालकः, 'माणवकः सिंहः'। विशेष कहाँ तक लिखें? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती।

       मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं।         ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१२

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